बकरा घोड़े के साथ -रामनाथ विद्यालंकार
ऋषिः गोतमः। देवता यज्ञः । छन्दः निवृद् जगती।
एष छार्गः पुरोऽअश्वेन वाजिन पूष्णो भूगो नीयते विश्वदेव्यः। अभिप्रियं यत्पुरोडाशमर्वता त्वष्टेदेनसौश्रवसाय जिन्वति ॥
-यजु० २५.२६
(एषः ) यह (विश्वदेव्यः१) सब इन्द्रियों का हितकर्ता ( छागः२) विवेचक मन (वाजिनाअश्वेन) बलवान् कर्म फलभोक्ता जीवात्मा के साथ ( पूष्णः भागः ) पोषक परमेश्वर का भक्त बनकर उसके प्रति ( नीयते ) ले जाया जा रहा है। ( अर्वता ) पुरुषार्थी जीवात्मा के साथ ( अभिप्रियं) परमेश्वर को प्रसन्न करनेवाले ( पुरोडाशं ) हविरूप ( यत् ) जिस मन को और ( एनं ) इस जीवात्मा को ( त्वष्टा ) सृष्टिकर्ता परमेश्वर ( इत् ) निश्चय ही ( सौश्रवसाय ) उत्तम यश के लिए (जिन्वति) तृप्त करता है।
आओ, बकरे को घोड़े के सिर में बाँध कर ‘पूषा’ के पास ले चलें। ये बकरा और घोड़ा पशुपति पूषा के पास जाकर उसकी भक्ति करेंगे। किन्तु कहीं आप इन्हें सचमुच का बकरा और घोड़ा पशु मत समझ लेना। बकरे का वाचक शब्द मन्त्र में छाग’ है। छाग शब्द छेदनार्थक ‘छो’ धातु से बनता है। मनुष्य के मन को भी छाग’ कहते हैं, क्योंकि मन किसी गूढ़ सन्दर्भ की काट-छाँट या विवेचना करके विवक्षित भाव को निकालता है। ‘अश्व’ शब्द भोजनार्थक क्रयादिगणी अश धातु से बना है, जिसका अर्थ यहाँ कर्मफलभोक्ता जीवात्मा है। अति बलिष्ठ होने के कारण वह ‘वाजी’ कहलाता है। पूषा’ पोषक परमेश्वर का नाम है। मनुष्य अपने मन और आत्मा को पूषा परमेश्वर के सान्निध्य में ले जाकर उसकी उपासना करते हैं, तो वे भी पूषा परमेश्वर के पोषण गुण से युक्त हो जाते हैं। वे स्वयं परिपुष्ट और शक्तिशाली होकर अन्यों को भी पोषण प्रदान करते हैं। इस प्रकार पुष्टि का साम्राज्य सर्वत्र छा जाता है। पूषा’ परमेश्वर के साथ-साथ मनुष्य के मन और आत्मा त्वष्टा’ परमेश्वर की भी उपासना करते हैं, जो सृष्टि का रचयिता अद्भुत शिल्पकार है। त्वष्टा की उपासना से मनुष्य के मन और आत्मा भी शिल्पकार और अद्भुत कारीगर हो जाते हैं। मन और आत्मा मिलकर स्वान्त:सुख तथा परसुख के लिए सत्साहित्य की सृष्टि करते हैं, जनहित के लिए तरह तरह के उपयोगी यन्त्र, यान, ओषधि, चिकित्सा के उपकरण, ज्ञानवर्धन तथा मनोरञ्जन के साधन आदि का आविष्कार करते हैं। मन और आत्मा त्वष्टा प्रभु के पुरोडोश (समर्पणीय हवि) बन जाते हैं, त्वष्टा प्रभु को आत्मसमर्पण कर देते हैं। इनके आत्मसमर्पण से सन्तष्ट होकर त्वष्टा’ इन्हें सौश्रवस अर्थात सुकीर्ति से संतृप्त कर देता है। |
आओ, हम भी अपने बकरे और अश्व अर्थात् मन और आत्मा को पूषा और त्वष्टा देव के प्रति ले जायें तथा उन दोनों के गुण-कर्मों से संतृप्त होकर स्वयं को कृतार्थ करें।
पाद–टिप्पणियाँ
१. विश्वेभ्यो देवेभ्यः इन्द्रियेभ्यो हित: विश्वदेव्यः ।
२. छ्यति छिनत्ति विविनक्ति विषयान् यः स छाग: मनः । छो छेदने,दिवादिः ।।
३. अश्नाति कर्मफलानि भुङ्के यः सोऽश्व: जीवात्मा। (अश्वः कस्मात् ?अश्नुते ऽध्वानं महाशनो भवतीति वा, निरु० २.२८) ।
४. ऋच्छति गच्छति पुरुषार्थी भवतीति अर्वा ।।ऋ गतौ, वनिप् प्रत्यय उ० ४.११४।।
५. पुर: अग्रे दायते दीपते इति पुरोडाशः हविः ।| पुरस्-दाशे दाने।।
६. श्रूयते इति श्रवः यशः, शोभनं श्रवः सुश्रवः, सुश्रवसो भावः सौश्रवसम्।
७. जिवि प्रीणने, भ्वादिः ।
बकरा घोड़े के साथ -रामनाथ विद्यालंकार