प्रभु-दर्शन -रामनाथ विद्यालंकार
ऋषिः स्वयम्भु ब्रह्म। देवता परमात्मा । छन्दः निवृद् आर्षी त्रिष्टुप् ।
वेनस्तत्पश्यन्निहितं गुहा सद्यत्र विश्वं भवत्येकनीडम्। तस्मिन्नूिद सं च वि चैति सर्वः सऽओतः प्रोतश्च विभूः प्रजासु॥
-यजु० ३२.८
( वेनः ) इच्छुक, पूजक, मेधावी मनुष्य ही ( तत् गुहा निहितं सत् ) उस गुहा में निहित अर्थात् गुह्य परब्रह्म परमेश्वर को ( वेद ) जानता है, ( यत्र ) जिसमें ( विश्वं ) ब्रह्माण्ड ( एकनीडं भवति ) एक घोंसले में निहित के समान होता है। ( तस्मिन् ) उस परमेश्वर के अन्दर ( इदं सर्वं ) यह सकल विश्व ( सम् एति ) प्रलयकाल में समा जाता है, और ( वि एति च ) सृष्टिकाल में उससे पृथक् हो जाता है। ( सः विभूः ) वह व्यापक परमेश्वर ( प्रजासु ) प्रजाओं के अन्दर ( ओतः प्रोतः च ) ओत-प्रोत है।
परब्रह्म परमेश्वर सर्वसाधारण के लिए ऐसा ब्रह्म है, जो मानो किसी गम्भीर गुफा में रहता हो, जहाँ किसी की पहुँच न हो। उसके दर्शन वही कर सकता है, जिसमें उसके दर्शन के अनुकूल विशिष्ट योग्यता हो। ‘वेन’ मनुष्य को ही उसके दर्शन हो सकते हैं। वेन धातु वैदिक निघण्टु कोष में इच्छा, गति और अर्चना अर्थों में पठित है। ईश्वर-दर्शन के लिए सर्वप्रथम तो मनुष्य के अन्दर दर्शन की उत्कट इच्छा या अभीप्सा होनी चाहिए। उसके हृदय में प्रभु-दर्शन की लौ लगी होनी चाहिए। दूसरे उसकी गतिविधि बाह्य जगत् की ओर न होकर प्रभु की ओर होनी चाहिए। तीसरे उसमें प्रभु की अर्चना में आनन्द लेने की निपुणता होनी चाहिए। निघण्ट में ही ‘वेन’ शब्द मेधावी-वाचक शब्दों में भी पठित है। अतः ईश्वर-दर्शक को ईश्वर–सम्बन्धी शास्त्रों में गहन चिन्तन एवं पाण्डित्य भी होना चाहिए। ऐसा योगाभ्यासी साधक ही प्रभु का साक्षात्कार कर सकता है। | कैसा है वह परमेश्वर ? उसके अन्दर सारा विश्व ऐसे ही निवास करता है, जैसे पंछी घोंसले में रहता है। सकल विश्व का वह घोंसले के समान आश्रयस्थान है । मन्त्र के अन्त में उसके विषय में यह कहा गया है कि प्रलयकाल में उसी के अन्दर सब कुछ समा जाता है, और सृष्टिकाल में उसके अन्दर से निकल आता है। परन्तु यह स्थापना तो वेदान्तदर्शन की है। यदि ऐसा मान लें, तो ईश्वर जगत् का उपादान कारण सिद्ध होता है, जबकि त्रैत दर्शन के अनुसार है वह जगत् का निमित्त कारण। मण्डक उपनिषदः कहती है कि यह जगत परमेश्वर के अन्दर से ऐसे ही निकलता है, जैसे मकड़ी के अन्दर से जाला निकलती है, और फिर उसी में समा जाता है । मन्त्र का कथन भी इसी कथन से मिलता-जुलता है। जगत् यदि प्रलयकाल में परमेश्वर में समा जाता है और सृष्टिकाल में उसमें से बाहर निकल आता है, तो परमेश्वर जगत् का निमित्त कारण नहीं हो सकता, इस शङ्का का उत्तर मकड़ी के दृष्टान्त से ही मिल जाता है। मकड़ी तो आत्मा का नाम है, आत्मा में से जाला नहीं निकलता, अपितु मकड़ी के शरीर में से जाला निकलता है। इसी प्रकार जगत् परमेश्वर में नहीं समाता, न उसमें से निकलता है, अपितु परमेश्वर का जो शरीर प्रकृति है उसमें प्रलयकाल में जगत् समाता है और सृष्टिकाल में प्रकृति में से बाहर आ जाता है। अतः जगत् का उपादान कारण प्रकृति है, न कि ब्रह्म।
पाद-टिप्पणियाँ
१. वेनति=इच्छति, गच्छति, अर्चति, निघं० २.६, २.१४, ३.१४ ।। २. वेन:=मेधावी, निघं० ३.१५ । ३. यथोर्णनाभिः सृजते गृह्यते च । मु० उप० १.२.७
प्रभु-दर्शन -रामनाथ विद्यालंकार