पृथिवी की हिंसा मत कर -रामनाथ विद्यालंकार

पृथिवी की हिंसा मत कर -रामनाथ विद्यालंकार 

ऋषिः त्रिशिराः । देवता भूमिः । छन्दः पञ्चपादा आर्षी प्रस्तारपङ्कि: ।

भूरसि भूमिरस्यदितिरसि विश्वधया विश्वस्य भुवनस्य धर्मी। पृथिवीं यच्छ पृथिवीं दृह पृथिवीं मा हिंसीः ।

-यजु० १३ । १८

हे पृथिवी ! तू ( भू: असि) भू है, ( भूमिः असि ) भूमि है, ( अदिति:४ असि ) अदिति है, (विश्वधायाः५) विश्वधाया है, विश्व को दूध पिलानेवाली है, (विश्वस्य भुवनस्य धर्ती) सब प्राणियों को धारण करनेवाली है। हे पृथिवी माता के पुत्र मनुष्य! तू (पृथिवींयच्छ) पृथिवी को नियन्त्रित कर, इसकी क्षति को रोक, ( पृथिवीं दूंह) पृथिवी को दृढ़ कर, ( पृथिवीं मा हिंसीः ) पृथिवी की हिंसा मत कर। |

वेद के अनुसार पृथिवी माता है, मैं उसका पुत्र हूँ। हे पृथिवी माता ! तू ‘भू:’ है, विशिष्ट अस्तित्ववाली है। नभोमण्डल में जो अगणित लोकलोकान्तर दिखायी देते हैं, उनके बीच तेरा विशेष अस्तित्व है, क्योंकि तू अनेक प्राणियों को जन्म देकर उनकी माता बनती है। तू केवल ‘भूः’ ही नहीं, अपितु ‘भूमि’ भी है, अर्थात् अपने भूतल पर निवास करनेवाली प्राणियों को अस्तित्व देनेवाली भी है। तुझ पर बसनेवाले सिंह, व्याघ्र, हाथी, हरिण आदि कैसी शान से रहते हैं। तुझ पर रहनेवाले मानव की शान तो निराली ही है, जिसने अपने बुद्धिकौशल से सुखी जीवन के लिए अनेक ज्ञान-विज्ञानों तथा अनेक उपयोगी वस्तुओं का आविष्कार किया है । हे माँ! तू ‘अदिति’ है, अखण्डनीया है, अलग-अलग टुकड़ों में बाँटने योग्य नहीं है। जैसे माँ के कभी टुकड़े नहीं किये जाते, वैसे ही पृथिवी भी टुकड़ों में नहीं बाँटी जा सकती । माँ के अङ्ग प्रत्यङ्ग तो होते हैं, पर उनमें सामञ्जस्य और एकसूत्रत्व रहता है, वैसे ही पृथिवी के भी विभिन्न राष्ट्र तो हो सकते हैं, परन्तु यजुर्वेद ज्योति उनमें परस्पर सौहार्द और एकसूत्रत्व रहना चाहिए। माँ के अङ्ग-प्रत्यङ्ग यदि एक-दूसरे से विद्रोह या विरोध करने लगे, तो उसका जीवन विपत्ति में पड़ जाएगा। ऐसे ही पृथिवी के अलग-अलग राष्ट्र यदि वाणी और क्रिया से एक-दूसरे के विरोध में तत्पर हो जाएँगे, तो पृथिवी भी निर्जीव हो जाएगी।

हे पृथिवी! तू ‘विश्वधायाः’ है, सब सन्तानों को अपना दूध पिलानेवाली है, अपने अन्दर विद्यमान नाना खाद्य एवं पेय पदार्थों से उनका पोषण करनेवाली है। खाद्य पेय से अतिरिक्त तुझमें विद्यमान सोना, चाँदी, हीरे, मोती आदि अन्य पदार्थ भी तेरा दूध ही हैं, जिनसे तू अपने पुत्र-पुत्रियों को उपकृत करती है। हे जननी ! तू सकल भुवन को, सकल प्राणि-समूह को अपनी गोद में धारण करनेवाली है।

हे मानव ! अपनी इस पृथिवी माता पर तू गर्व कर, इसकी क्षति को रोक। देख, प्रतिवर्ष बरसात की उमड़ती नदियों से, समुद्र के तूफान से न जाने कितनी भूमि कट जाती है और उस पर बसे हुए लोगों के घर उजड़ जाते हैं। तू धरती माँ के इस अङ्ग-विच्छेद को रोक, पृथिवी को दृढ़ कर। बाँधों से नदियों की धारा को बाँध । वृक्षारोपण करके पहाड़ों की कटती हुई भूमि को कटने से बचा। तू पृथिवी की हिंसा मत कर, इसकी उपजाऊ शक्ति को नष्ट मत होने दे, अन्यथा सोना उगलनेवाली यह धरती बञ्जर हो जाएगी। हे मनुज ! अपनी धरती माता की सेवा कर, इसके पर्यावरण प्रदूषण को रोक, इसे सजा संवार कर रख। तब यह भी युग युग तक तेरी सेवाकरती रहेगी।

पाद-टिप्पणियाँ

१. प्रस्तारपङ्कि १२+१२-८+८=४० की होती है, यहाँ ११+१३+५+५+६=४० को प्रस्तारपङ्कि कहा गया है।

२. भवतीति भूः ।।

३. भवन्ति पदार्था अस्यामिति भूमिः ‘भुवः कित्’ उ० ४.४६ से मिप्रत्यये तथा उसका किवद्भाव-द० ।।

४. दो अवखण्डने। दीयते अवखण्ड्यते इति दिति:, न दिति: अदितिःअनवखण्डनीया । निरुक्त में– अदितिः अदीना देवमाता, निरु० ४.४९,दाङ क्षये ।।

५. विश्वं धापयति दुग्धं पाययतीति विश्वधायाः, घेट् पाने ।

६. माता भूमिः पुत्रो अहं पृथिव्याः , अ० १२.१.१२|

पृथिवी की हिंसा मत कर -रामनाथ विद्यालंकार 

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *