पृथिवी और नारी – रामनाथ विद्यालंकार

prithvi aur nari1पृथिवी और नारी – रामनाथ विद्यालंकार

ऋषिः मेधातिथिः । देवता पृथिवी । छन्दः पिपीलिकामध्या निवृद् गायत्री ।

स्योना पृथिवि नो भवानृक्षरा निवेर्शनी यच्छनः शर्मसुप्रथाः

-यजु० ३६.१३

( पृथिवि ) हे राष्ट्रभूमि और नारी! तू ( नः ) हमारे लिए ( स्योना ) सुखदायिनी, (अनृक्षरा) अकण्टक, और ( निवेशनी ) निवास देनेवाली ( भव ) हो। ( सप्रथाः ) विस्तार और कीर्ति से युक्त तू ( नः ) हमें ( शर्म ) शरण या घर ( यच्छ ) प्रदान कर।

पृथिवी हमारे लिए सुखदायिनी भी हो सकती है और दु:खदायिनी भी। हम उसका उपयोग कैसे करते हैं, इस पर निर्भर है। यदि हम उसके पर्यावरण को शुद्ध रखेंगे, उसे सस्यश्यामला और स्वच्छ रखेंगे, उस पर कृषि करके उसे गाय के समान दुधारू और उपजाऊ बना लेंगे, उस पर बाग-बगीचे और ओषधियाँ-वनस्पतियाँ लगा कर उसे फलोत्पादिका कर लेंगे, उस पर कल-कारखाने स्थापित करके उसे तरह तरह के पदार्थ उत्पन्न करनेवाली माँ के रूप में परिणत कर लेंगे, उससे लवण, कोयला, गन्धक, लोहा, चाँदी, सोना, तेल आदि निकालकर उसे खान बना लेंगे, तब वह हमारे लिए सदा सुखदात्री बनी रहेगी। किन्तु यदि अशुद्ध, अस्वच्छ, दूषित पर्यावरणवाली, बंजर बना लेंगे, तब यह हमें दुःख देने का ही कारण बनेगी। हम चाहते हैं कि हमारी राष्ट्रभूमि हमारे लिए सुख की स्रोत ही बनी रहे। वह हमारे लिए ‘अनृक्षरा’ अर्थात् अकण्टक भी हो। यदि उस पर कंटीली झाड़ियाँ उगी रहेंगी, गोखरू बिखरे रहेंगे, चुभनेवाले कंकड़-पत्थर पड़े रहेंगे, उसके बिलों में साँप-बिच्छू घर बनाये रहेंगे, तब हम न उस पर चले पायेंगे, न वह हमारे लिए जीवनदायिनी हो सकेगी। हमारा कर्तव्य है कि हम उसे सजा-संवार कर निवेशनी’ बना लें, निवासोपयोगी कर लें। तब वह विस्तीर्ण और शरणदायिनी हो सकेगी।

हे नारी! तू भी पृथिवी के समान उपजाऊ है। पृथिवी निर्जीव वस्तुएँ, ओषधियाँ, तरह-तरह के अन्न-फल आदि उत्पन्न करती है, तू महान्, उज्ज्वल, सच्चरित्र, भूमि को स्वर्ग बना देनेवाले, मरुस्थलों में भी हरियाली ला देनेवाले, पराधीनता को स्वराज्य में परिणत कर देनेवाले महापुरुषों और महामनस्का विदुषियों की जन्मदात्री बनती है। हे नारी! तू भी समाज के लिए सुखदायिनी हो। जिस देश की नारियाँ अशिक्षित, उत्साहहीन, शरीर और मन से रुग्ण, दुश्चरित्र, महत्त्वाकांक्षाहीन, विलासिनी होती हैं, वहाँ सुख के स्रोत नहीं बहते हैं। हे नारी ! तू अकण्टक भी हो, क्रूरता आदि के कांटों से विहीन, मधुर स्वभाववाली बन। समाज को निवास देनेवाली बन, उजाड़नेवाली नहीं। तू ‘सप्रथाः’ बन, यश से जगमगा, प्रख्यात कीर्तिवाली हो । अशरणों को शरण दे, बे-घरों को घर दे, बिना माँ वालों की माँ बन । याद रख, वेद की नारी उषा के समान प्रकाशवती और प्रकाशदात्री है। पृथिवी के समान विस्तीर्ण और उदार हृदयवाली है।।

पृथिवी और नारी – रामनाथ विद्यालंकार

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