पहन लो कवच, विजय पाओ -रामनाथ विद्यालंकार
ऋषिः भारद्वाजः । देवता वर्मी । छन्दः निवृद् आर्षी त्रिष्टुप् ।
जीमूतस्येव भवति प्रतीकं यद्वर्मी याति सुमदामुपस्थे । अनाविद्धया तन्वा जय त्वत्स त्वा वर्मणो महिमा पिपत्तुं ॥
-यजु० २९.३८
( जीमूतस्य इव ) बादल के समान ( भवति ) हो जाता है ( प्रतीकं ) रूप, ( यद् ) जब ( वर्मी ) कवचधारी योद्धा ( याति ) जाता है (समदाम् उपस्थे ) युद्धों के मध्य । हे कवचधारी योद्धा! ( अनाविद्धया तन्वा ) न बिंधे हुए शरीर के साथ ( जय) विजय प्राप्त कर ( त्वम् ) तू । ( सः वर्मणः महिमा ) वह कवच की महिमा ( त्वा पिपर्तु) तेरा रक्षण करती रहे।
क्या तुमने किसी योद्धा को लोहे की काली चादर का कवच पहन कर समराङ्गण में जाते देखा है? उस समय उसका रूप ऐसा लगता है, जैसे बरसात का काला बादल हो। कवचधारी योद्धा काले बादल की तरह वर्षा भी करते हैं, किन्तु उनकी वर्षा पानी की नहीं, अपितु संहारक अस्त्रों की होती है। कवच पहनकर योद्धा का शरीर सुरक्षित हो जाता है। शत्रु द्वारा छोड़े हुए तीर या अन्य अस्त्र उसे घायल नहीं कर पाते। कवच लोहे की चादर के स्थान पर चमड़े का भी पहना जाता है। कवच धारण करके योद्धा निर्भय होकर संग्राम में शत्रु के छक्के छुड़ाने की यात्रा पर निकल पड़ता है। उसकी शरीर कवच से आच्छादित होने के कारण अनाविद्ध तथा अक्षत रहता है। वेद उसे उद्बोधन दे रहा है कि अनाविद्ध शरीर से त विजय प्राप्त कर। कवच की महिमा तेरा रक्षण पालन करती रहे।
युद्ध केवल बाह्य ही नहीं होते, आन्तरिक भी होते हैं। आन्तरिक संग्रामों में प्रतिपक्षी होते हैं काम, क्रोध, लोभ, मोह, ईष्र्या, द्वेष, उदासीनता, अनुत्साह आदि। उनके तीर भौतिक शास्त्रास्त्रों से भी पैने होते हैं। उनके आघात से बचने के लिए भी कवच पहनना पड़ता है, किन्तु वह लोहे, चमड़े आदि का नहीं, अपितु ‘ब्रह्म’३ का कवच होता है। ब्रह्म शब्द से ईश्वर-विश्वास, ज्ञान, कर्म, उपासना, उत्साह, योग-समाधि आदि गृहीत होते हैं। ‘ब्रह्म’ का कवच पहन लेने पर आध्यात्मिक योद्धा सुरक्षित हो जाता है, उसका आत्मा अनाविद्ध हो जाता है और आन्तरिक संग्राम में निश्चित रूप से उसकी विजय होती है। ब्रह्म-कवच से ढके रहने के कारण वह चिरकाल तक सुरक्षित बना रहता है।
हम भी बाह्य और आन्तरिक शत्रु योद्धाओं से घिरे हुए हैं। उनके विषबुझे चमचमाते नोकीले बाण हमें घायल करने के लिए व्याकुल हो रहे हैं, हमें पापों के पङ्क में लिप्त करने के लिए संनद्ध हो रहे हैं। आओ, यदि बचना चाहते हो, बाह्य तथा आन्तरिक अस्त्रों की मार से अनाविद्ध रहना चाहते हो, तो बाह्य और आन्तरिक कवच पहन कर समराङ्गण में कूद पड़ो। विजयश्री निश्चितरूप से तुम्हें प्राप्त होगी। कवच-धारण की महिमा ऐसी ही निराली है।
पाद-टिप्पणियाँ
१. जीमूत=मेघ। अमर० १.३.७
२. समत्-युद्ध। निघं० २.१७ ।
३. ब्रह्म वर्म ममान्तरम् । अथर्व० १.१९.४
पहन लो कवच, विजय पाओ -रामनाथ विद्यालंकार