पथरीली नदी के उस पार – रामनाथ विद्यालंकार
ऋषिः सुचीकः । देवता विश्वेदेवाः । छन्दः निवृद् आर्षी त्रिष्टुप् ।
अश्म॑न्वती रीयते सर्भध्वमुत्तिष्ठत प्र तरता सखायः ।।
अत्रा जहीमोऽशिव येऽअसञ्छिवान्वयमुत्तरेमभि वाजान्॥
-यजु० ३५.१० |
( अश्मन्वती ) पथरीली नदी ( रीयते’ ) वेग से बह रही है। ( सखायः ) हे साथियो ! (सं रमध्वम् ) मिलकर उद्यम करो, ( उत्तिष्ठत ) उठो ( प्र तरत) पार हो जाओ। (अत्रजहीमः४) यहीं छोड़ दें ( ये अशिवाः असन् ) जो अशिव हैं उन्हें । उस पार के (वाजान् अभि) ऐश्वर्यों को पाने के लिए ( वयं ) हम ( उत्तरेम ) नदी के पार उतर जाएँ।
पथरीली नदी वेग से बह रही है। इस पार बंजर भूमि है, कंकड़-पत्थर हैं, भुखमरी है, नग्नता है, बेबसी है। उस पार की भूमि सोना उगलती है। हरे भरे खेत हैं, फलों से लदे बाग-बगीचे हैं, अन्य विविध ऐश्वर्य हैं। किसी साधु की वाणी सुनायी देती है-अरे, इस पार के लोगो ! नदी के उस पार जाकर क्यों नहीं बस जाते ? उसका परामर्श सुनकर सब नदी पार करने के लिए तैयार हो जाते हैं। किन्तु, जिसके पास जो कुछ है, वह उसे साथ ले जाने के लिए सिर पर लाद लेता है। कोई चूल्हे का बोझ, कोई फटे-पुराने कपड़ों का बोझ, कोई टूटे-फूटे बर्तनों का बोझ सिर-कन्धे पर रख लेता है। चल पड़ते हैं सब अकेले-अकेले । साधु की कर्कश वाणी सुनायी देती है, अरे यह क्या कर रहे हो ? नदी में काई-जमे फिसलने पत्थर हैं, उस पर तुमने व्यर्थ का बोझ लाद लिया है। आओ, मैं तुम्हारा पथप्रदर्शन करता हूँ। उठो, मित्रो, मिल कर उद्योग करो, यह बोझ तुम्हें ले डूबेगा, इसे यहीं फेंक दो । हल्के-फुल्के होकर एक-दूसरे का हाथ पकड़कर, नदी के पत्थरों पर पैर जमाते हुए पार उतर जाओ। उस पार के ऐश्वर्यों का भोग करो।
यह तो एक दृष्टान्त है। इस पार सांसारिकता है, उस पार दिव्यता-आध्यात्मिकता है। बीच में विघ्न-बाधाओं की वैतरणी नदी है, जिसमें बड़े-बड़े प्रलोभन-रूपी चिकने पत्थर हैं। हम अधिकतर लोग सांसारिकता में ही पड़े रहते हैं, दिव्यता का जो भागवत आनन्द है, उसे पाने के लिए हमारी अभीप्सा होती ही नहीं। मन्त्र हमें प्रेरणा कर रहा है कि हम दिव्यता की ओर जाने का प्रयत्न करें, योगमार्ग का अवलम्बन करें। प्रलोभनों से पूर्ण व्याधि, स्त्यान, संशय, प्रमोद, आलस्य, अविरति, भ्रान्तिदर्शन, अलब्धभूमिकत्व, अनवस्थितत्व आदि चित्तविक्षेप रूप अन्तरायों को पार करके आध्यात्मिक वातावरण में पहुँचें, जहाँ चित्तवृत्तिनिरोधपूर्वक चेतना जागती है, धारणा-ध्यान समाधि लगती है और ईश्वर साक्षात्कार का आनन्दपीयूष पाने करने को मिलता है।
आओ, छोड़े सांसारिक भोग-विलास, चलें उस पार और योगैश्वर्य अर्जित करें।
पाद-टिप्पणियाँ
१. री स्रवणे, दिवादिः ।
२. सं–रभ राभस्ये, भ्वादिः ।
३. प्रतरता=प्रतरत, छान्दस दीर्घ ।
४. ओहाक् त्यागे, जुहोत्यादिः ।
पथरीली नदी के उस पार – रामनाथ विद्यालंकार