निर्वाचित राजा की यज्ञाहुतियाँ -रामनाथ विद्यालंकार
ऋषिः देवरातः । देवता अग्न्यादयो मन्त्रोक्ताः । छन्दः आर्षी जगती ।
अग्नये गृहपतये स्वाहा सोमय् वनस्पतये स्वाहा मुरुतमोजसे स्वाहेन्द्रस्येन्द्रियाय स्वाहा । पृथिवि मातुर्मा मा हिसीर्मोऽअहं त्वाम् ॥
-यजु० १० । २३
राज्याभिषेक के समय नवनिर्वाचित राजा आहुतियाँ दे रहा है—(अग्नयेगृहपतयेस्वाहा) गृहपति अग्नि के लिए आहुति हो। ( सोमाय वनस्पतयेस्वाहा) सोम वनस्पति के लिए आहुति हो। ( मरुताम् ओजसे स्वाहा ) सैनिकों के ओज के लिए आहुति हो। ( इन्द्रस्य इन्द्रियाय स्वाहा ) इन्द्र के इन्द्रत्व के लिए आहुति हो। ( पृथिवी मातः ) हे पृथिवी माता ! ( मा मा हिंसीः ) तू मेरी हिंसा न करना, ( मो अहं त्वाम् ) न मैं तेरी हिंसा करूंगा।
मुझे आप प्रजाजनों ने राजा के पद पर निर्वाचित और अभिषिक्त किया है। मैं यह जानता हूँ कि यह पद बड़े ही उत्तरदायित्व का है। जिन बड़ी-बड़ी आशाओं को लेकर आपने मेरा राजतिलक किया है, वे सब मुझे स्मरण हैं और मैं यह दृढ़ सङ्कल्प के साथ निवेदन करता हूँ कि उन सबको मैं भरसक पूर्ण करने के लिए उद्यत रहूँगा। आज अपने कार्यालय में जाने से पूर्व प्रथम दिन मैं यज्ञ रचा कर अपने कर्तव्य की कुछ बातें अपने और आपके सम्मुख रखने के लिए आहुतियाँ दे रहा हूँ। प्रथम आहुति ‘अग्नि’ के नाम पर देता हूँ। अग्नि गृहपति है, गृहों का रक्षक है। प्रत्येक गृह में अग्नि अनेक रूपों में आकर गृहों की कार्यसिद्धि करता है। अग्निहोत्र में हम अग्नि को प्रज्वलित करते हैं। भोजन बनाने के लिए हम अग्नि का प्रयोग करते हैं। अन्धकार में प्रकाश करने के लिए भी हम विद्युदग्नि को ही चमकाते हैं। सूर्य भी एक अग्नि ही है, जो सारे दिन आकाश में विद्यमान रहकर हमें प्राण प्रदान करता है। इस भौतिक अग्नि के अतिरिक्त श्रद्धा की अग्नि, ईशस्तुति, ईशप्रार्थना, ईशोपासना की अग्नि, महत्त्वाकांक्षा की अग्नि, दृढ़ता की अग्नि, राष्ट्रप्रेम की अग्नि, शत्रुसंहार की अग्नि, राष्ट्रहित बलिदान की अग्नि आदि अग्नियों की भी हमारे राष्ट्रगृह के रक्षार्थ आवश्यकता पड़ती है। यह अग्नि राष्ट्र के प्रत्येक गृह में और प्रत्येक राष्ट्रवासी के हृदय में प्रज्वलित रहे इसके लिए मैं सदा प्रयत्नशील रहूँगा।
दूसरी आहुति मैं सोम वनस्पति’ के नाम से देता हूँ। सोम को वेद में ओषधियों का राजा कहा गया है, अत: सोम के अन्तर्गत सभी ओषधियाँ आ जाती हैं। मैं राष्ट्रवासियों की पुष्टि और रोगनिवृत्ति के लिए सभी उपयोगी ओषधियों के संग्रहार्थ और पर्यावरणशुद्धि, वृष्टि आदि के लिए वनस्पतियों के आरोपणार्थ एवं संवर्धनार्थ भी उद्यत रहूंगा। तीसरी आहुति मैं ‘मरुतों के ओज’ के नाम से देता हूँ। मरुत राष्ट के वे वीर क्षत्रियजन हैं, जो सदा राष्ट्ररक्षार्थ कमर कसे रहते हैं। अतः राष्ट्र की सैन्यशक्ति के विकास द्वारा क्षात्रबल के संवर्धन का भी मैं व्रत लेता हूँ। चतुर्थ आहुति मैं इन्द्र के इन्द्रत्व के लिए देता हूँ। इन्द्र वेद में जिनका प्रतिनिधित्व करता है, उनमें ऐश्वर्य भी एक है। अतः इन्द्र के इन्द्रत्व का अभिप्राय है राष्ट्र की ऐश्वर्यशालिता। मेरा राष्ट्र ऐश्वर्य में किसी राष्ट्र से कम न। रहे, इसके लिए भी मैं सजग रहूँगा।
इसके अतिरिक्त पृथिवी हम सबकी माता है। वह प्रदूषित और विकृत होने पर हमारे विनाश का कारण भी बन सकती है, और पर्यावरणशुद्धि द्वारा तथा अपने धरातल पर और गर्भ में विद्यमान समस्त वस्तुओं के प्रदान द्वारा वह सच्चे अर्थों में हमारी माता भी बन सकती है। अतः पृथिवी की पर्यावरणशुद्धि के लिए भी मैं सदा सचेत रहुँगा, जिससे हम उसकी हिंसा न करें और वह भी हमारी हिंसा का कारण न बने ।
ईश्वर को साक्षी रख कर आप सब प्रजाजनों के सम्मुख इन व्रतों को ग्रहण करता हूँ। प्रभु मुझे इन व्रतों के पालन की शक्ति दें और प्रजाजनों को अधिकार है कि यदि मैं इन व्रतों को पालन करने में असफल रहूँ, तो मुझे राजगद्दी से उतार दें।
निर्वाचित राजा की यज्ञाहुतियाँ -रामनाथ विद्यालंकार