दाक्षायण हिरण्य – रामनाथ विद्यालंकार
ऋषिः दक्षः । देवता हिरण्यं तेजः । छन्दः भुरिक् शक्वरी ।
न तद्रक्षछिसि न पिशाचास्तरन्ति देवानामोजः प्रथमज ह्येतत्।। यो बिभर्ति दाक्षायण हिरण्यः स देवेषु कृणुते दीर्घमायुः । स मनुष्येषु कृणुते दीर्घमायुः
-यजु० ३४.५१
( न तद् ) न उसे ( रक्षांसि ) राक्षस’, ( न पिशाचाः ) न पिशाच ( तरन्ति ) लांघ सकते हैं। ( एतद् ) यह ( देवानां ) विद्वानों का ( प्रथमजम् ओजः ) प्रथम आयु ब्रह्मचर्याश्रम में उत्पन्न ओज है। ( यः ) जो ( दाक्षायणं हिरण्यं ) बलवर्धक ब्रह्मचर्य को ( बिभर्ति ) धारण करता है (सः ) वह ( देवेषु ) विद्वानों में ( आयुः ) अपनी आयु ( दीर्घ कृणुते ) दीर्घ कर लेता है, ( सः ) वह (मनुष्येषु ) मनुष्यों में ( आयुः ) अपनी आयु (दीर्घकृणुते) दीर्घ कर लेता है।
जो दाक्षायण हिरण्य को धारण करता है, वह विद्वानों में दीर्घायु होता है, वह मनुष्यों में दीर्घायु होता है। अभिप्राय यह है कि चाहे वह विद्वान् हो, चाहे साधारण मनुष्य दीर्घायु अवश्य होता है। क्या है यह दाक्षायण हिरण्य? यह विद्वानों का प्रथम आयु में उत्पन्न ओज है। प्रथम आयु होती है, ब्रह्मचर्याश्रम, उसमें संचित ब्रह्मचर्य का बल या वीर्य ही हिरण्य है। दक्ष शब्द वेद में बल का वाचक है, दाक्ष का अर्थ है बलसमूह, उसका अयन, अर्थात् प्राप्तिस्थान दाक्षायण कहलाता है। इस प्रकार दाक्षायण हिरण्य’ का अर्थ होता है बलवर्धक वीर्य । इसके संचय का माहात्म्य अधिकतर वे लोग बताते हैं, जो वीर्यरक्षा न करके अब्रह्मचर्य का जीवन व्यतीत कर चुके होते हैं, क्योंकि अब्रह्मचर्य से उन्हें हानि हुई होती है। वे सोचते हैं कि हमने जो हानि उठायी, वह दूसरों को न भुगतनी पड़े। अतः वे दूसरों को सावधान करते हैं। योगी दयानन्द सदृश कोई विरले ऐसे भी होते हैं, जो न केवल प्रथम आयु में, अपितु आगे भी ब्रह्मचारी रहे होते हैं। वे भी अपने अनुभव के आधार पर ब्रह्मचर्य की महिमा दूसरों को बताते हैं । यह हिरण्य प्रथम आयु में उत्पन्न ओज है, इसका तात्पर्य यह नहीं है कि ब्रह्मचर्य के पश्चात् के आश्रमों में अब्रह्मचारी रहना है। गृहस्थाश्रम में भी राष्ट्र को श्रेष्ठ सन्तान देने के पश्चात् ब्रह्मचर्य का जीवन बिताना ही अभीष्ट है। वानप्रस्थ और संन्यास आश्रम तो पूर्णत: ब्रह्मचर्य के आश्रम हैं ही। इस रीति से यदि चलें, तो अल्पाय होने का कोई प्रश्न ही नहीं है। इसीलिए अथर्ववेद के ब्रह्मचर्यसूक्त में ब्रह्मचर्य का माहात्म्य बताते हुए कहा गया है कि विद्वान लोग ब्रह्मचर्य के तप से मत्य को मार भगाते हैं ।६ प्रथम आयु में उत्पन्न यह विद्वानों का ओज ब्रह्मचर्यबल ऐसा होता है कि न इसे राक्षस, न पिशाच पराजित कर सकते हैं । ब्रह्मचर्य के ओज से अनुप्राणित अकेला ब्रह्मचारी शत और सहस्र नरपिशाचों से लोहा ले सकता है। पिशाच का अर्थ दयानन्दभाष्य में किया गया है रुधिर-मांस आदि खानेवाले हिंसक म्लेच्छाचारी दुष्ट लोग।
आओ, हम सब ‘दाक्षायण हिरण्य’ को धारण करें, तब हमारे अन्दर शरीर-बल के साथ मनोबल और आत्मबल भी अधिकाधिक जागृत होगा और मनुष्य-कोटि से उठकर हम देव-कोटि में पहुँच जायेंगे। सचमुच दाक्षायण हिरण्य’ का ऐसा ही माहात्म्य है।
पाद-टिप्पणियाँ
१. (रक्षांसि) अन्यान् प्रपीड्य स्वात्मानमेव ये रक्षन्ति ते-द० ।
रक्षो रक्षितव्यम् अस्मात्, रहसि क्षणोतीति वा, रात्रौ नक्षते इति वा
निरु० ४.३४।।
२. (पिशाचा: ) ये प्राणिनां पिशितं रुधिरादिकम् आचामन्ति भक्षयन्ति ते | हिंसका म्लेच्छाचारिणी दुष्टा:-द०।।
३. (प्रथमजम्) प्रथमे वयसि ब्रह्मचर्याश्रमे वा जातम्-द० ।
४. दक्षस्य बलस्य समूहो दाक्ष:, दाक्षस्य अयनं प्राप्ति: येन से दाक्षायणः ।
५. रेतो वै हिरण्यम् तै० ३.८.२.४, मैं ३.७.५।।
६. ब्रह्मचर्येण तपसा देवा मृत्युमपाघ्त । अ० ११.५.१९
दाक्षायण हिरण्य – रामनाथ विद्यालंकार