तुझे विश्वकर्मा इन्द्र की शरण में देता हूँ -रामनाथ विद्यालंकार
ऋषिः शासः । देवता विश्वकर्मा ईश्वरः । छन्दः क. भुरिग् आर्षीत्रिष्टुप्, र. विराड् आर्षी अनुष्टुप् ।।
के वाचस्पतिं विश्वकर्माणमूतये मनोजुवं वाजेऽअद्या हुवेम। स नो विश्वानि हव॑नानि जोषद्विश्वशम्भूरवसे साधुर्कर्मा। ‘उपयामगृहीतोऽसीन्द्राय त्वा विश्वकर्मणऽएष ते योनिरिन्द्राय त्वा विश्वकर्मणे
-यजु० ८ । ४५
हम ( वाचस्पतिं ) वाणी के स्वामी, (मनोजुवं) मन को गति देनेवाले, (विश्वकर्माणं ) विश्व के कर्मों के कर्ता परमेश्वर को ( अद्य ) आज ( वाजे ) संग्राम में ( हुवेम ) पुकारें । ( स विश्वशम्भूः साधुकर्मा ) वह विश्वकल्याणकारी, साधु कर्मोवाला परमेश्वर (अवसे) रक्षा के लिए (नः विश्वानि हवनानि ) हमारी सब पुकारों को ( जोषत् ) प्रीतिपूर्वक सुने । हे मानव ! तू ( उपयामगृहीतः असि ) यम-नियमों से जकड़ा हुआ है, ( इन्द्राय त्वा विश्वकर्मणे ) तुझे विश्व के कर्ता परमैश्वर्यवान् जगदीश्वर की शरण में देता हूँ। (एष ते योनिः ) यह तेरा शरणस्थान है । ( इन्द्राय त्वा विश्वकर्मणे ) तुझे सब उत्कृष्ट कर्मों के कर्ता विघ्नोच्छेदक जगदीश्वर की शरण में देता हूँ।
क्या तुम जानते हो कि प्रकृति में जो अद्भुत क्रियाएँ हो रही हैं, उनका करनेवाला कौन है ? सम्भवतः तुम कहोगे कि प्रकृति स्वयं अपने खेल रचाती है। स्वयं उषा छिटकती है, सूर्योदय होता है, सूर्यास्त होता है, काली निशा आती है, चाँदनी चमकती है, ग्रीष्म ऋतु आती है, बरसात आती है, शीत ऋतु का आगमन होता है, पर्वतों पर बर्फ गिरता है, नदियाँ बहती हैं, समुद्र में गिरती है, वनस्पतियाँ उगती हैं, लताएँ वृक्षों की गलबहियाँ लेती हैं, रङ्गबिरङ्गे पुष्प खिलते हैं, फल आते हैं। प्रकृति का कम्प्यूटर स्वयं काम करता है, उसे चलानेवाला कोई नहीं है। परन्तु ऐसा कम्प्यूटर आज तक कोई नहीं बना जिसे कभी निरीक्षणकर्ता की, टूटा तार जोडनेवाले की आवश्यकता न हो। कोई विश्वकर्मा परमेश्वर है, जो विश्व के कार्यों को करने में प्रकृति की सहायता करता है। वह केवल प्रकृति की बाह्य करामातों को ही नहीं, शरीर के अन्दर होनेवाले आश्चर्यजनक कार्यों को भी करता-करवाता है। जीभ जो वाणी बोलती है, उसमें उसी का कर्तृत्व है, मन जो चिन्तन करता है या चक्षु-श्रोत्र आदि के देखने-सुनने आदि में माध्यम बनता है, उसमें उसी की कला है। वह ‘साधुकर्मा’ है, सत्य-शिव-सुन्दर कर्मों को ही करता है। आओ, हम उसे पुकारें, उच्च ज्ञान और कर्म की प्राप्ति के लिए उसके द्वार खटखटायें, मानव से देव बनने के लिए उसकी शरण में जाएँ।
हे मानव! जो उपयाम’ है, जो समीप होकर प्रकृति के कम्प्यूटर को नियन्त्रित करता है, उसी को तुम पकड़ो, उसी की शरण में जाओ। उसी से यम-नियमों की डोर पकड़ो। उसी ‘विश्वकर्मा इन्द्र’ से कर्तृत्व की कला सीखो, उसी से बाह्य और आध्यात्मिक उड़ान की शिक्षा लो। उसी से अपरा और परा विद्या का सूत्र पकड़ो। उसी से सूत्रों का भाष्य करने की विद्या प्राप्त करो। वह तुम्हारा ‘योनिरूप’ है, तुम्हारा निवासगृह है, तुम्हारा शरणालय है। उसी विश्व-रचयिता, विश्व की प्रत्येक क्रिया का सञ्चालन करनेवाले परमैश्वर्यवान् प्रभु की शरण में तुम्हें भेजता हूँ। उसी की स्तुति करो, उसी से प्रार्थना करो, उसी की उपासना करो। वह तुम्हारा कल्याण करेगा, वह तुम्हें साधु मार्ग द्वारा लक्ष्य पर पहुँचायेगा। देवासुरसंग्राम में वही तुम्हें विजय दिलायेगा।
पाद-टिप्पणियाँ
१. वाज=संग्राम। निघं० २.१७
२. योनि=गृह। निघं० ३.४
तुझे विश्वकर्मा इन्द्र की शरण में देता हूँ -रामनाथ विद्यालंकार