जीवात्मा का वैभव -रामनाथ विद्यालंकार
ऋषिः भार्गवो जामदग्निः । देवता अर्वा (आत्मा) ।छन्दः विराट् त्रिष्टुप् ।
तव शरीरं पतयिष्णवर्वन्तर्व चित्तं वार्ताऽइव ध्रजीमान्। तव शृङ्गाणि विष्ठिता पुरुवारण्येषुजर्भुराणा चरन्ति।
-यजु० २९.२२
( तव शरीरं ) तेरा शरीर ( पतयिष्णु ) विनाशशील है। ( अर्वन् ) हे ज्ञानी जीवात्मन् ! (तव चित्तं ) तेरा चित्त (वातः इव) वायु के समान ( ध्रजीमान् ) वेगवान् है। (तवशृङ्गाणि ) तेरे रक्षाबल रूप सींग ( पुरुत्रा ) चारों ओर ( विष्ठिता) विविध रूप में स्थित हैं, जो ( अरण्येषु ) जङ्गलों में भी (जर्भुराणा) देदीप्यमान होते हुए ( चरन्ति ) तेरे साथ विचरते हैं।
जीवात्मा को वेदों में घोड़े-वाची अश्व, अर्वन्, वाजिन् आदि शब्दों से भी उद्बोधन दिया गया है। घोड़े की गति विशिष्ट होती है। चलना आरम्भ करता है, तो लक्ष्य पर पहुँच कर ही दम लेता है। मनुष्य का जीवात्मा भी एक यात्री है। उसे ऊर्ध्वप्रयाण की यात्रा करके मोक्ष के सर्वोन्नत पद पर पहुँचना है। प्रस्तुत मन्त्र में जीवात्मा को अश्ववाचक ‘अर्वन्’ नाम से स्मरण किया गया है।’ अर्वन्’ शब्द ‘ऋ गतिप्रापणयोः’ धातु से औणादिक वनिप् प्रत्यय करके निष्पन्न होता है।
हे अर्वन् ! हे जीवात्मन् ! जो शरीररूप साधन तुझे कार्य करने के लिए मिला है, वह ‘पतयिष्णु’ है, पतनशील है, गिर जानेवाला है, मरणधर्मा है। इसलिए उससे जल्दी से जल्दी जितना कार्य ले सके ले ले, उसके बल पर जितना उत्थान कर सके कर ले । न जाने यह कब तुझसे छिन जाए। तेरा चित्त वायु के समान गतिमान् है। वह अद्भुत ज्ञान-साधन है। चित्त और शरीर की सहायता से तू जितना भी ज्ञान और कर्म का सम्पादन कर सके कर लें।
हे जीवात्मन् ! तेरे पास सींग भी हैं।’ शृङ्गाणि’ में बहुवचन का प्रयोग यह बता रहा है कि तुझे दो से अधिक सींग मिले। हुए हैं। पशुओं के सींग रक्षा के साधन होते हैं। अत: तेरे अन्दर जो आत्मरक्षा और पररक्षा की शक्तियाँ हैं वे ही तेरे सींग हैं। निघण्टु में ‘ शृङ्गाणि’ को ज्वलद्वाची शब्दों में पठित किया गया है। अत: तेरे अन्दर रक्षा करनेवाली जो तेजस्विताएँ हैं, वे ही तेरे सींग हैं। ये सींग सर्वत्र तेरे साथ रहते हैं। सर्वत्र इनसे तू अपनी तथा अन्यों की रक्षा कर सकता है। इनके द्वारा तू काम, क्रोध आदि आन्तरिक शत्रुओं से भी तथा अन्यायी, अत्याचारी, धूर्त, कपटी, दुर्व्यसनी, पापी मनुष्यों से भी आत्मरक्षा तथा पररक्षा कर सकता है। यहाँ तक कि ये तेरे सींग निर्जन जङ्गलों में भी देदीप्यमान और तीक्ष्ण रहते हैं। जहाँ कोई अन्य रक्षक दृष्टिगोचर नहीं होता, उन बीहड़ वनों में भी तेरे ये सींग रक्षा का बीड़ा उठाते हैं।
हे अर्वन् ! हे घोड़े के समान वेग से आगे बढ़नेवाले जीवात्मन् ! तू अपनी शक्ति को पहचान, अपनी स्थिति को पहचान, अपने साधनों को पहचान और उनका उपयोग करके शीघ्रता से लक्ष्य पर पहुँच जा। तुझे साधुवाद मिलेंगे, तेरा अभिनन्दन होगा, तेरा जयजयकार होगा।
पाद-टिप्पणियाँ
१. पतयिष्णु पतनशाले, ताच्छाल्ये इष्णुच्।
२. ध्रजीमान् गतिमत् । ध्रज गतौ, भ्वादिः ।
३. पुरुत्रा, पुरु= बहु, सप्तभ्यर्थ में त्रा प्रत्यय ।
४. विष्ठिता=विष्ठितानि। शि का लोप।
५. जर्भुराणा=जुर्भराणानि, शि-लोप । ‘जर्भुराणा देदीप्यमानानि-उवट’
जीवात्मा का वैभव -रामनाथ विद्यालंकार