जीवनदायक तत्व-रामनाथ विद्यालंकार

जीवनदायक तत्व-रामनाथ विद्यालंकार 

ऋषिः स्वस्त्यात्रेयः । देवता अग्न्यादयः छन्दः विराड् आर्षी अनुष्टुप् ।

समिद्धोऽअग्निः समिधा सुसमिद्धो वरेण्यः। गायत्री छन्दऽइन्द्रियं त्र्यविनॊर्वयों दधुः ॥

-यजु० २१.१२ |

( समिधा समिद्धः अग्निः ) ईंधन से संदीप्त अग्नि, ( सुसमिद्धः१ वरेण्यः’) अत्यन्त संदीप्त वरणीय सूर्य, ( गायत्रीछन्दः) गायत्री छन्द, (इन्द्रियं ) अन्तरिन्द्रिय मन, (त्र्यविः। गौः२) शरीर, मन, आत्मा तीनों का रक्षक वेदगायक परमेश्वर, ये सब (वयःदधुः ) जीवन को धारते हैं।

मानव माता के गर्भ से उत्पन्न होने के पश्चात् यथासमय माता-पिता से, गुरुजनों से, मित्रों से, सन्तों से, महात्माओं से शिक्षासूत्र, जीवन, जागृति, सन्देश प्राप्त करता हुआ सुयोग्य बनता है। यदि उसे अकेला छोड़ दिया जाए तो वह भेड़िये से पाले गये मानव-शिशु के समान पशुतुल्य ही रहता है। शिक्षा, जीवन, जागृति देने वाले तत्त्व संसार में बिखरे पड़े हैं। मनुष्य चाहे तो उनसे सन्देश ले सकता है। भूमि से क्षमा की, सागर से गम्भीरता की, फूलों से सुगन्ध फैलाने की, वृक्षों से परोपकार की, सूर्य से तमस् को विच्छिन्न कर प्रकाश प्रदान की शिक्षा ली जा सकती है। प्रस्तुत मन्त्र में भी कुछ जीवनदायक तत्त्व परिगणित किये गये हैं।

प्रथम तत्त्व है ‘अग्नि’। राख से ढके अङ्गारों या कोयलों पर समिधाएँ रख दी जाएँ, तो थोड़ा धुआँ छोड़कर अग्नि प्रज्वलित हो जाती है। अधिक ईंधन रखे जाने पर ऊँची-ऊँची ज्वालाएँ उठने लगती हैं। वे लाल-पीली-नीली ज्वालाएँ मानो  उत्थान का सन्देश देती हैं, ऊध्र्वारोहण का पाठ पढ़ाती हैं। इसके लिए भी सचेत करती हैं कि उत्थान तभी हो सकता है, जब मन-आत्मा में ज्वाला जले। उदासीन व्यक्ति, जिसके अन्दर कोई महत्त्वाकांक्षा नहीं, कभी शिखर पर नहीं पहुँच सकता। दूसरा तत्त्व है ‘सूर्य’, जो सुसमिद्ध है, अग्नि की अपेक्षा भी अधिक प्रकाशमय और प्रकाशक है। सूर्य न केवल हमारी भूमि को, अपितु मंगल, बुध, बृहस्पति, चन्द्र आदि अन्य ग्रहों तथा उपग्रहों को भी प्रकाशित करता है, उन्हें जीवन-दान देता है, उन पर अपनी रश्मियों से प्राण बरसाता है। पार्थिव अग्नि भी सूर्य से ही जीवन पाती है, ज्वलन-शक्ति के लिए उसी पर निर्भर रहती है। वह सूर्य ‘वरेण्य’ है, सबके द्वारा वरणीय है। उसके प्रकाश की सबको अभीप्सा रहती है, ‘तमस्’ में पड़े रहना कोई नहीं चाहता। सूर्य अध्यात्म की तामसिकता को मिटा कर अन्त:प्रकाश पाने का भी संकेत करता है।

तीसरा जीवनदायक तत्त्व मन्त्र में ‘गायत्री’ कहा गया है। गायत्री छन्द त्रिपाद् है, तीनों चरण आठ-आठ अक्षर के होते हैं। ये तीन चरण पृथिवी, अन्तरिक्ष और द्यौ की सीढ़ी की सूचना देते हैं। हमें अष्टांग योग करते हुए पृथिवी से ऊपर उठकर अन्तरिक्ष के स्तर पर पहुँचना है, फिर अन्तरिक्ष के स्तर से भी ऊपर उठकर द्युलोक में पहुँचना है। गायत्री छन्द भौतिक और आध्यात्मिक दोनों प्रकार के उत्थान के जीवन का सन्देश देता है। चौथा तत्त्व है ‘अन्तः इन्द्रिय’ अर्थात् मन । मन के बिना कोई भी ज्ञानेन्द्रिय ज्ञान का प्याला नहीं पिला सकती। मन सजग न हो, तो मनुष्य आँख से देखते हुए भी वस्तुत: नहीं देखता, कान से सुनते हुए भी नहीं सुनता। मन से ही मनुष्य सङ्कल्प-विकल्प करता है। मन के बिना ज्ञान विज्ञान की प्राप्ति आकाश-कुसुम होती है। पाँचवाँ तत्त्व है। ‘गौ’, पुंलिङ्ग गौ का एक अर्थ निघण्टु कोष में ‘स्तोता’ भी है। अतः यह ‘गौ’ है, वेदगायक परमेश्वर, जो ‘त्र्यवि’ अर्थात्  शरीर, मन और आत्मा तीनों का रक्षक है। उसकी रक्षा की । डोर कट जाने पर तीनों निष्कर्म हो जाते हैं। शरीर को लकवा लग जाता है, मन कुण्ठित हो जाता है, अशिव सङ्कल्प करने लगता है, आत्मा म्लान हो जाता है। यह ‘गौ’ परमेश्वर समस्त उन्नतियों का, समस्त जीवनों का, समस्त जागृतियों का स्रोत है।

आओ, मन्त्रोक्त जीवनदायक सब तत्त्वों से हमें जीवन और जागृति पाकर भौतिक और आध्यात्मिक ऊध्र्वारोहण करते हुए अपने लक्ष्य पर पहुँचें।

पाद-टिप्पणियाँ

१सुसमिद्ध: सुष्ठु प्रकाशितः सूर्यः-द० ।

२. त्र्यविः त्रयाणां शरीरेन्द्रियात्मनाम् अवि: रक्षणं यस्मात् सः गौः स्तोताद० । गौ: =स्तोता, निघं० ३.१६ ।

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