जगदीश से प्रार्थना -रामनाथ विद्यालंकार
ऋषिः विश्वेदेवाः । देवता वायुः । छन्दः भुरिग् अतिजगती।
प्राणम्मे पाह्यपानम्मे पाहि व्यनम्मे पाहि चक्षुर्मऽउर्ध्या विभाहि श्रोत्रम्मे श्लोकय। अपः पिन्वौषधीर्जिन्व द्विपार्दव चतुष्पा त्पाहि दिवो वृष्टिमेरय॥
-यजु० १४/८
हे वायो ! हे जगदीश्वर ! ( मे प्राणं पाहि ) मेरे प्राण की रक्षा कीजिए, ( मे अपानंपाहि) मेरे अपान की रक्षा कीजिए ( मे चक्षुः ) मेरी आँख को ( उर्ध्या ) व्यापकरूप से (विभाहि ) दृष्टिशक्ति से चमकाइये, ( मे श्रोत्रं ) मेरे कान को ( श्लोकय ) श्रवणशक्ति से युक्त कीजिए। ( अप: जिन्व ) पानी सींचिए, ( ओषधीः जिन्व ) ओषधियों को बढ़ाइये, ( द्विपाद् अव ) दो पैरवाले मनुष्य से प्रीति कीजिए, ( चतुष्पात् पाहि) चार पैरवाले गाय आदि पशुओं का पालन कीजिए।
हे जगदीश्वर ! अनेक नामों में से आपका एक नाम ‘वायु भी है, क्योंकि आप चराचर जगत् का धारण, जीवन और प्रलय करते हो तथा बलवानों में बलिष्ठ हो । वायु के समान प्राणदायक होने से भी आप ‘वायु’ कहलाते हो। आप मधुर, मन्द, शीतल पवन के समान शान्तिदायक भी हो और झंझावात के समान काम, क्रोधादि रूप बाधक झंखाड़ों को तोड़ गिरानेवाले भी हो। आप हमारे प्राण, अपान, व्यान, उदान, समान नामक प्राणों की रक्षा कीजिए। चक्षु, श्रोत्र, मुख, नासिका में ‘प्राण’ स्वतः स्थित होता है, अर्थात् शरीर में दर्शन, श्रवण, शब्दोच्चारण एवं श्वास-संस्थान का कार्य प्राण’ से होता है। मलसंस्थान और मूत्रसंस्थान में ‘अपान’ स्थित होता है। इन संस्थानों को स्वस्थ रखना तथा मलमूत्रादि का भलीभाँति निस्सारण करना इसका कार्य है। शरीर के मध्यभाग में ‘समान’ निवास करता है, जिसका कार्य है, जाठराग्नि में होमे हुए अन्न को समावस्था में लाना, अर्थात पचा कर एकरस करना। हृदय की समस्त नाड़ियों में ‘व्यान’ विचरता हुआ रक्तसंस्थान को सञ्चालित करता है। पृष्ठवंश में ‘उदान’ स्थित होता है, जो मनुष्य के उन्नत होकर बैठना, ऊपर उछलना आदि कार्यों में सहायक होता है। इन प्राणों के अरक्षित या विकृत हो जाने से शरीर, मन, बुद्धि, आत्मा सबका स्वास्थ्य बिगड़ जाता है। अतः इनकी रक्षा आवश्यक है।
हे भगवन् ! आप मेरी चक्षु की समीप-दृष्टि और दूर-दृष्टि दोनों को न केवल अक्षुण्ण रखिये, अपितु अधिकाधिक बढ़ाइये, चमकाइये। आप मेरे कानों को भरपूर श्रवण-शक्ति से युक्त कीजिए। इसी प्रकार शरीर के जो अन्य अङ्गोपाङ्ग हैं या सामर्थ्य हैं, उन सबकी भी आप रक्षा कीजिए। प्रकृति में जो आपके द्वारा विविध क्रियाएँ की जा रही हैं, उनकी भी आप सम्यक्तया रक्षा कीजिए, क्योंकि उनका भी प्रभाव हमारे शरीर, मन आदि पर पड़ता है। आप वायु में जल-कणों को भरकर उनके द्वारा हमें सींचते रहिए, क्योंकि सर्वथा शुष्क वायु हमारे शरीराङ्गों को भी शुष्क कर देती है। आप ओषधि-वनस्पतियों को बढ़ाइए, जिससे वे वायुमण्डल को शुद्ध करती रहें, हमें छाया प्रदान करती रहें, वर्षा में सहायक होती रहें और प्रचुर मात्रा में अपने मूल, छाल, पत्र, पुष्प और फल इन पञ्चाङ्गों से हमें लाभ पहुँचाती रहें। हे रक्षक प्रभुवर! आप द्विपाद् मनुष्य से प्रीति कीजिए, उसे ऊँचा उठाइये, उसके अन्दर शक्ति भरिये, क्योंकि एकमात्र वही संसार में ज्ञान-विज्ञान आदि की उन्नति कर सकता है। आप गाय, घोड़े आदि चतुष्पादों की रक्षा कीजिए, क्योंकि वे पर्याप्त अंशों में अपनी रक्षा स्वयं करने में पूर्णतः समर्थ नहीं है। आप हमारी भूमि पर वृष्टि कीजिए, क्योंकि वृष्टि पर ही नदी, सरोवर, कूप, समुद्र आदि की जल-व्यवस्था तथा कृषि-क्षेत्रों की सस्यश्यामलता निर्भर होती है।
हे जगदीश ! आप ही चराचर जगत् के सर्जक, पालक तथा रक्षक हो, अत: हम आपसे ही सबकी सुरक्षा की प्रार्थना करते हैं। हम स्वयं भी यथाशक्ति इनकी रक्षा में प्रवृत्त रहेंगे, हमें आप रक्षा की शक्ति प्रदान करते रहिए।
पाद–टिप्पणियाँ
१. ‘वा गतिगन्धनयोः । गन्धनं हिंसनम् । यो वाति चराचरं जगद् धरतिबलिनां बलिष्ठः स वायुः । जो चराचर जगत् का धारण, जीवन और प्रलय करे और सब बलवानों से बलवान् है, इससे ईश्वर का नामवायु है’-स०प्र०, समु० १ ।
२. प्रश्न उप० ३.४-६ ।
जगदीश से प्रार्थना -रामनाथ विद्यालंकार