चारों वर्णों में दीप्ति और परस्परिक प्रेम-रामनाथ विद्यालंकार
ऋषिः शुन:शेप। देवता बृहस्पतिः । छन्दः भुरिग् आर्षी अनुष्टुप् ।
रुचे नो धेहि ब्राह्मणेषु रुचराजसु नस्कृधि। रुचं विश्येषु शूद्रेषु मयि धेहि रुचा रुचम् ॥
-यजु० १८।४८ |
हे विशाल ब्रह्माण्ड के अधिपति बृहस्पति परमेश्वर ! आप (नः ब्राह्मणेषु ) हमारे ब्राह्मणों में ( रुचं धेहि ) दीप्ति और प्रेम स्थापित करो। ( रुचं ) दीप्ति और प्रेम (नःराजस ) हमारे क्षत्रियों में ( कृधि ) करो। ( रुचं ) दीप्ति और प्रेम (विश्येषु ) वैश्यों में और (शूद्रेषु ) शूद्रों में [उत्पन्न करो]। ( मयि ) मेरे अन्दर भी (रुचा ) प्रीति के साथ (रुचं ) प्रेम को ( धेहि) स्थापित करो।
हे विशाल ब्रह्माण्ड के अधिपति बृहस्पति परमात्मन् ! हे विशाल वाङ्मय के स्वामी बृहस्पति आचार्य ! हमारा समाज ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र इन चार वर्षों में विभक्त है। आप हमारे ब्राह्मणों में ब्राह्मणत्व की दीप्ति और प्रेम उत्पन्न कीजिए। ब्राह्मणत्व कहलाता है। ब्रह्मविद्या, वेदविद्या, अन्य विविध विद्या तथा आस्तिकता में नैपुण्य । इसकी प्रभा, इसकी चमक हमारे ब्राह्मणों में हो। ‘रुच’ धातु के अर्थ दीप्ति और प्रीति होते हैं, अतः ‘रुच’ का दूसरा अर्थ प्रेम भी ग्राह्य है। ब्राह्मणजन परस्पर प्रीतिभाव रखें और दूसरे वर्षों के साथ भी प्रेम का व्यवहार करें। हमारे राजाओं में, क्षत्रियों में क्षात्र धर्म की दीप्ति और प्रेम उत्पन्न कीजिए। क्षात्रवल की छुति उनमें ऐसी हो कि वे प्रजा की रक्षा में तथा शत्रु के उच्छेद में सदा तत्पर रहें। पारस्परिक प्रीति भी रखें और ब्राह्मण, वैश्य तथा शूद्र के साथ भी प्रेम रखें। हमारे वैश्यों में भी वैश्य धर्म की दीप्ति तथा परस्पर और अन्य वर्गों के साथ प्रेमभाव रहे। वैश्य-धर्म है कृषि, व्यापार और पशुपालन । शूद्रों में भी अपने सेवाधर्म की चमक और पारस्परिक प्रेमभाव उत्पन्न कीजिए। आप मेरे अन्दर भी दीप्ति के साथ प्रेमभाव प्रकट कीजिए। इस प्रकार सम्पूर्ण समाज एक-दूसरे के प्रति प्रेम से आबद्ध और अपने-अपने कर्तव्यपालन के प्रति जागरूक रहे, तो समाज और राष्ट्र समुन्नत और प्रशस्त कहलाने का गौरव प्राप्त कर सकेंगे।
हे परमेश तथा हे आचार्यवर ! आप चारों वर्गों को दूध पानी की तरह परस्पर मैत्री और प्रीतिभाव से समन्वित करके प्रतिष्ठास्पद कीजिए, यही हमारी प्रार्थना है ।।
पाद-टिप्पणी
१. रुच दीप्तौं अभिप्रीतौ च, भ्वादिः । ‘रुचं प्रेम’-द० ।
चारों वर्णों में दीप्ति और परस्परिक प्रेम-रामनाथ विद्यालंकार