एक के अनेक नाम-रामनाथ विद्यालंकार
ऋषिः स्वयंभु ब्रह्म। देवता परमात्मा। छन्दः आर्षी अनुष्टुप् ।
तदेवाग्निस्तदादित्यस्तद्वायुस्तदु चन्द्रमाः ।। तदेव शुक्रं तद् ब्रह्म ताऽआपः स प्रजापतिः ।।
-यजु० ३२.१
( तद् एव ) वही परमात्मा ( अग्निः ) अग्नि कहाता है, ( तद् आदित्यः ) वही आदित्य कहाता है, ( तद् वायुः ) वही वायु कहाता है, ( तद् उ ) वही ( चन्द्रमाः) चन्द्रमा कहाता है। ( तद् एव शुक्रं ) वही शुक्र, ( तद् ब्रह्म ) वही ब्रह्म, ( ता: आपः ) वही आपः, ( स प्रजापतिः ) और वही प्रजापति कहाता है। |
वेद में अनेक देवों का वर्णन देख कर बहुदेवतावाद की शङ्का होती है। अग्नि, इन्द्र, वरुण, मित्र, पूषा, त्वष्टा आदि नानी देवों की चर्चा तथा उनकी स्तुति-प्रार्थना-उपासना वेद करता है। उसका समाधान ऋग्वेद में किया गया है और प्रस्तुत मन्त्र में भी है। ऋग्वेद कहता है कि इन्द्र, मित्र, वरुण, अग्नि, सुपर्ण, गरुत्मान्, यम, मातरिश्वा सब एक ही सत्स्वरूप परमेश्वर के नाम हैं, ये पृथक्-पृथक् देव नहीं हैं।” यजुर्वेद का प्रस्तुत मन्त्र कह रहा है कि ”वही एक परमेश्वर अग्नि, आदित्य, वायु, चन्द्रमा नामों से वर्णित होता है, वही शुक्र है, वही ब्रह्म है, वही आपः है, वही प्रजापति है।” परमेश्वर के विभिन्न नाम उसके विभिन्न गुण-कर्म-स्वभावों को सूचित करते हैं। ‘अग्नि’ नाम गत्यर्थक अगि धातु से नि प्रत्यय करने पर बनता है। गति के ज्ञान, गमन और प्राप्ति अर्थ होते हैं। ज्ञानस्वरूप, सर्वगत और प्राप्तियोग्य होने से परमेश्वर ‘अग्नि’ कहलाता है। उसका नाम ‘आदित्य’ इस कारण है कि वह प्रलयकाल में ब्रह्माण्ड की सब वस्तुओं का आदान कर लेता है। वह ‘वायु’ इस कारण कहलाता है, क्योंकि वायु के समान अनन्तबलशाली और सर्वधर्ता है। आह्लादार्थक चदि धातु से ‘चन्द्रमाः’ नाम सिद्ध होता है। परब्रह्म आनन्दस्वरूप और आह्लाददायक होने से चन्द्रमाः’ नाम से वर्णित होता है। उसे आशुकारी और शुद्ध होने से ‘शुक्र’ कहते हैं। सबसे अधिक महान् होने के कारण वह ब्रह्म’ कहाता है। उसकी महिमा अपार है, प्रकृति में, मानव शरीर में, अध्यात्म में सर्वत्र वह महामहिम लोकाधिपति के रूप में प्रख्यात है। सर्वव्यापक होने से वह ‘आप:’ नाम से प्रसिद्ध है। (आप्लू व्याप्तौ)। ‘आप:’ का अर्थ जल भी होता है। जलों के समान शान्तिदायक, रसमय और संतरण करानेवाला होने से भी वह ‘आप:’ है। समस्त प्रजाओं का अधिपति होने के कारण वह प्रजापति-पदवाच्य है। मानव सम्राट् की प्रजाएँ तो अपने राष्ट्र तक सीमित होती हैं, परब्रह्म ही प्रजाएँ सकल ब्रह्माण्ड में व्याप्त हैं, जिनका वह चक्रवर्ती सम्राट्, स्वराट् और विराट् कहलाता है।
वेदों में नाना देवों का वर्णन देख कर हम भ्रान्ति में न पड़े। अनेक देव एक ही देवाधिदेव परब्रह्म के विभिन्न गुण कर्म-स्वभावों को सूचित करनेवाले नाम हैं। आओ, नाना नामों से हम उस प्रभु की उपासना करें, उसके साम्राज्य और वैभव का वर्णन करें।
पाद-टिप्पणी
१. (तत्) सर्वज्ञं सर्वव्यापि सनातनमनादि सच्चिदानन्दस्वरूपं नित्यशुद्धबुद्धमुक्तस्वभावं न्यायकारि दयालु जगत्स्रष्ट्र जगद्ध सर्वान्तर्यामि, (अग्निः) ज्ञानस्वरूपत्वात् स्वप्रकाशत्वाच्च, (आदित्य:) प्रलये सर्वस्वादातृत्वात्, (वायुः) अनन्तबलत्वसर्वधर्तृभ्याम्, (चन्द्रमा:) आनन्दस्वरूपत्वाद् आह्लादकत्वाच्च, (शुक्रम्) आशुकारित्वात् शुद्ध भावाच्च, (ब्रह्म) सर्वेभ्यो बृहत्त्वात्, (आपः) सर्वत्र व्यापकत्वात्, (प्रजापतिः) सर्वस्याः प्रजायाः स्वामित्वात्-द० ।
एक के अनेक नाम-रामनाथ विद्यालंकार