उठ,जाग-रामनाथ विद्यालंकार

उठ,जाग-रामनाथ विद्यालंकार 

ऋषिः परमेष्ठी । देवता अग्निः । छन्दः आर्षी त्रिष्टुप् ।

उद्बुध्यस्वाग्ने प्रति जागृहि त्वमिष्टापूर्ते ससृजेथामयं च।अस्मिन्त्सधस्थेऽअध्युत्तरस्मिन् विश्वे देवा यजमानश्च सीदत ॥

 -यजु० १५ । ५४

हे (अग्ने ) अग्रासन पर स्थित यजमान! तू (उद् बुध्यस्व ) उद्बुद्ध हो, ( प्रति जागृहि ) जाग जा । ( त्वम् अयं च ) तू और यह यज्ञाग्नि मिलकर (इष्टापूर्ते ) इष्ट और पूर्त को (संसृजेथाम् ) करो। ( अस्मिन् उत्तरस्मिन् सधस्थे अधि) इस उत्कृष्ट सहमण्डप में ( देवाः ) हे विद्वानो! तुम ( यजमानः च) और यजमान (सीदत ) बैठो।।

हे विद्वन् ! हे अग्रासन पर स्थित यजमान ! तू यज्ञ करने बैठा है, यज्ञकुण्ड में अग्नि प्रज्वलित कर रहा है। जैसे अप्रकाशित दीपशलाकाओं की रगड़ से या उत्तरारणि और अधरारणि के संघर्षण से प्रकाशमान अग्नि प्रज्वलित हो जाती है, वैसे ही तू भी अपने अन्दर विद्याज्योति को जगा। अपने आत्मा से प्रणव-जप का संघर्षण करके दिव्य प्रकाश को उत्पन्न कर । अविद्या की निद्रा को त्याग दे, जाग उठ। तू और यह यज्ञाग्नि मिलकर इष्ट तथा पूर्त का सम्पादन करें। इष्ट’ शब्द इच्छार्थक इषु धातु से बनता है और देवपूजा, सङ्गतिकरण तथा दान अर्थवाली यज धातु से भी निष्पन्न होता है। अतः * इष्ट’ का अर्थ होता है अभीष्ट सुख, विद्वानों का सत्कार, ईश्वर की आराधना, सन्तों का संग, सत्य विद्यादि का दान। अतः इष्ट सम्पादन करने का आशय होता है कि यजमान को उचित है कि वह यज्ञवेदि में यज्ञाग्नि को प्रदीप्त करके अभीष्ट सुख प्राप्त करने का यत्न करे, अपने से बड़े विद्वानों का यजुर्वेद ज्योति सत्कार करे, ईश्वर की आराधना करे, सत्सङ्गति करे और परोपकार के लिए तन-मन-धन का दान करे। ‘पूर्त’ शब्द पालन-पूरणार्थक पृ धातु का रूप है। इसका अर्थ होता है, पूर्ण विद्याध्ययन, पूर्ण ब्रह्मचर्य, पूर्ण यौवन, पूर्ण साधन उपसाधन आदि। अतः पूर्त सम्पन्न करने का आशय है कि यजमान पूर्ण ब्रह्मचर्य का पालन करे, शक्ति से परिपूर्ण खरा यौवन प्राप्त करे, उन्नति के सब साधन-उपसाधनों को संगीत करके भौतिक तथा आत्मिक उत्थान का प्रयास करे। यज्ञ करने के लिए यजमान अकेला ही यज्ञमण्डप में नहीं बैठता है, उसके साथ उसका परिवार, साथी संग तथा अन्य यज्ञप्रेमी जन भी बैठते हैं। ‘सधस्थ’ का अर्थ है यज्ञमण्डप, जिसमें एक साथ बहुत से लोग सुविधापूर्वक बैठ सकें। सधस्थ का विशेषण मन्त्र में उत्तरस्मिन’ दिया है, जिससे सूचित होता है। कि यज्ञ मण्डप सुसज्जित, सज-धज से युक्त तथा सामूहिक यज्ञ के वातावरण से परिपूर्ण होना चाहिए। उस यज्ञमण्डप में विद्वज्जन, यजमान, यजमान-पत्नी, होता, उद्गाता, अध्वर्यु, ब्रह्मा एवं मन्त्रपाठी आदि सब लोग श्वेत वस्त्र धारण करके पवित्र भावना के साथ बैठे। सबके सुनियन्त्रित रूप में बैठ जाने के पश्चात् यज्ञ प्रारम्भ होता है। मन्त्रोच्चारण तथा सब विधि-विधान सम्पन्न होते हैं, पूर्णाहुति प्रदान की जाती है, यजमानों को आशीर्वाद दिया जाता है, ब्रह्मा का उपदेश होता है और यज्ञशेष रूप में यज्ञ का प्रसाद लेकर यज्ञभावना से भावित और संस्कृत होकर यज्ञप्रेमी जन अपने-अपने घरों को जाते हैं। अन्यत्र जाकर भी वे यज्ञ के वातावरण से चिरकाल तक प्रभावित रहते हैं। आइये, हम भी यज्ञ रचा कर उसका लाभ प्राप्त करें।

पाद-टिप्पणियाँ 

१. (प्रतिजागृहि) अविद्यानिद्रां त्यक्त्वा विद्यया चेत-द० ।

२. (इष्टापूर्ते) इष्टं सुखं विद्वत्सत्करणम् ईश्वराराधनं सत्सङ्गतिकरणं | सत्यविद्यादिदानं पूर्ण बलं ब्रह्मचर्यं विद्यालङ्करणं पूर्ण यौवनं पूर्णसाधनोपसाधनं च-द० ।।

३. सह तिष्ठन्ति जना यत्र स सधस्थ: । सह-स्था, सह को सध आदेश ।

उठ,जाग-रामनाथ विद्यालंकार 

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *