आदित्य पुरुष -रामनाथ विद्यालंकार
ऋषिः उत्तरनारायणः । देवता आदित्यपुरुषः । छन्दः निवृद् आर्षी त्रिष्टुप् ।
श्रीश्चंते लक्ष्मीश्च पत्न्यावहोरात्रे पार्वे नक्षत्राणि रूपमश्विनी व्यात्तम्। इष्णन्निषाणामुं मऽइषाण सर्वलोकं मऽइषाण।
– यजु० ३१.२२
हे आदित्य परमेश्वर ! ( श्रीः च लक्ष्मीः च ) श्री और लक्ष्मी ( ते पल्यौ ) मानो तेरी सहचरियाँ हैं, ( अहोरात्रे ) दिन-रात ( पाश्र्वे ) मानो पाश्र्ववर्ती अनुचर हैं, (नक्षत्राणिरूपम् ) नक्षत्र मानो तेरे रूप को सूचित करते हैं। (इष्णन् ) मैं इच्छुक हूँ, अतः (इषाण) तू मुझे दे। ( अमुं मे इषाण ) वह मुक्तिलोक मुझे दे, (सर्वलोकंमेइषाण) सकल लोक, सकल लोक का ऐश्वर्य मुझे प्रदान कर।
ध्यान से देखो, आदित्य तो जड़ वस्तु है, उसके अन्दर एक चेतन पुरुष बैठा दिखायी दे रहा है, जो उसका सञ्चालन करता है। जगदीश्वर ही वह पुरुष है। हे जगदीश्वर! आप ही आदित्य के अन्दर बैठे हुए सब ग्रह उपग्रहों का सञ्चालन कर रहे हैं। आप तेजस्वी हैं, मनस्वी हैं, महान् सम्राट् हैं। सम्राट् के समान आपकी पूजा हो रही है। जैसे किसी मानव सम्राट् की सेवा करनेवाली सहचरियाँ होती हैं, ऐसे ही श्रीऔर लक्ष्मी मानो आपकी सेविकाएँ हैं। श्री से शोभा, कान्ति, तेजस्विता, आभा सूचित होती है और लक्ष्मी से सम्पदा । आप सबसे बड़े श्रीमान् और लक्ष्मीवान् हैं। जैसे किसी मानव सम्राट् के पार्श्ववर्ती अनुचर होते हैं, ऐसे ही दिन-रात मानो आपके पार्श्ववर्ती अनुचर हैं। चमकीले नक्षत्र मानो आपके रूप को सूचित करते हैं। द्यावापृथिवी (अश्विनौ) मानो आपका खुला हुआ मुख है। इस प्रकार सारी ही प्रकृति मानो आपके अङ्गोपाङ्ग बनी हुई है या आपकी अङ्गरक्षिका का कार्य कर रही है। पर्वत आपके पहरेदार हैं, नदियाँ मानो आपके पग धोती हैं, समुद्र मानो आपकी गम्भीरता का प्रतिनिधित्व करते हैं। वृक्ष-वल्लरी मानो आपको छाया प्रदान करते हैं। अन्तरिक्ष वर्ती विद्युत् मानो आपका प्रकाशस्तम्भ है। सूर्य-चन्द्रमा मानो आपके नेत्र हैं। दिशाएँ मानो आपकी ज्ञानवाहिनी नाड़ियाँ हैं। तस्तुत: तो आप ‘अकाय’ हैं, भौतिक शरीर से रहित हैं। न आपकी सहचारियाँ हैं, न अनुचर हैं, न आपका मुख है, न आपके अङ्गरक्षक हैं, न पहरेदार हैं। यह सब आलङ्कारिक वर्णन है और यहाँ व्यङ्ग्योत्प्रेक्षा अलङ्कार का सौन्दर्य है । |
हे महान् सम्राट् ! मैं आपके सम्मुख भिक्षुक के रूप में आया हूँ, आप मुझे भिक्षा दीजिए। मैं सकल लोकों का ऐश्वर्य पाना चाहता हूँ, मुझे सकल लोकों का ऐश्वर्य प्रदान कीजिए। सकल लोकों के ऐश्वर्य से तात्पर्य है विपुल ऐश्वर्य । साथ ही मैं मुक्तिलोक में भी जाना चाहता हूँ, आप मुझे मुक्ति प्रदान कीजिए। वेद सांसारिक सम्पदा और मोक्षसम्पदा दोनों में समन्वय करता है।
पाद–टिप्पणियाँ
१. इष्णन्=इच्छन् अहमस्मि । विकरणव्यत्यय, शप् के स्थान पर श्वा ।
२. इषाण, इष आभीक्ष्ण्ये। आभीक्ष्ण्यं पुनः पुनर्दानम्, देहि।
आदित्य पुरुष -रामनाथ विद्यालंकार