आत्मा की अमरता और मुक्ति का मार्ग -रामनाथ विद्यालंकार
ऋषिः प्रजापतिः । देवता सविता । छन्दः विराड् आर्षी जगती ।
न वाऽऽएतन्प्रिंयसेन रिष्यसि देवाँर ॥ऽइदेषि पृथिभिः सुगेभिः। यत्रासते सुकृतो यत्र ते ययुस्तत्र त्वा देवः सविता दधातु ॥
-यजु० २३.१६
हे आत्मन् ! ( न वै उ एतत् ) न ही निश्चय से यह तू ( म्रियसे ) मरता है, (न रिष्यसि ) न तेरी हिंसा होती है। | ( सुगेभिः पथिभिः) सुगम योगमार्गों से (देवान्इत्एषि) दिव्यताओं को ही प्राप्त करता है। ( यत्र आसते ) जहाँ स्थित । हैं ( सुकृतः ) सुकर्मा जन, ( यत्र ते ययुः ) जहाँ वे गये हैं। ( तत्र ) उस मुक्तिलोक में (त्वा) तुझे (देवःसविता) प्रकाशक जगदुत्पादक परमेश्वर ( दधातु ) रखे।
हे मेरे आत्मा ! तू अमर है। न तुझे शस्त्र काट सकते हैं, न तुझे आग जला सकती है, न तुझे जल गला सकते हैं, न तुझे आँधी सुखा सकती है। तेरा शरीर मृत्यु को प्राप्त होता है, तू नहीं। तू कर्मानुसार मनुष्य, पशु, पक्षी आदि की योनि में जन्म ग्रहण करता है। जब पाप बढ़ जाता, पुण्य न्यून होता है, तब मनुष्य का जीव पश्वादि नीच शरीर में जाता है और जब धर्म अधिक तथा अधर्म न्यून होता है, तब देव अर्थात् विद्वानों का शरीर मिलता है। और जब पुण्य-पाप बराबर होता है, तब साधारण मनुष्यजन्म होता है। इसमें भी पुण्य-पाप के उत्तम, मध्यम और निकृष्ट होने से मनुष्यादि में भी उत्तम, मध्यम, निकृष्ट शरीरादि होते हैं। नाना प्रकार जन्म मरण में तब तक जीव पड़ा रहता है, जब तक उत्तम कर्मोपासना-ज्ञान को करके मुक्ति को नहीं पाता।।। ।
परमेश्वर की आज्ञा पालने, अधर्म-अविद्या-कुसङ्ग कुसंस्कार, बुरे व्यक्तियों से अलग रहने और सत्यभाषण, परोपकार, विद्या, पक्षपातरहित न्याय धर्म की वृद्धि करने, परमेश्वर की स्तुति, प्रार्थना, उपासना अर्थात् योगाभ्यास करने, विद्या पढ़ने-पढ़ाने और धर्म से पुरुषार्थ कर ज्ञान की उन्नति करने, सबसे उत्तम साधनों को करने इत्यादि साधनों से मुक्ति और इनसे विपरीत ईश्वराज्ञा भङ्ग करने आदि काम से बन्ध होता है।”
मुक्ति के विशेष साधन हैं विवेक, वैराग्य, षट्क सम्पत्ति (शम, दम, उपरति, तितिक्षा, श्रद्धा, समाधान) और मुमुक्षत्व। ** जैसे सांसारिक सुख शरीर के आधार से भोगता है, वैसे परमेश्वर के आधार से मुक्ति के आनन्द को जीवात्मा भोगता है। वह मुक्त जीव अनन्त व्यापक ब्रह्म में स्वच्छन्द घूमता, शुद्ध ज्ञान से सब सृष्टि को देखता, मुक्तों के साथ मिलता, सृष्टिविद्या को क्रम से देखता हुआ सब लोकलोकान्तरों में अर्थात् जितने ये लोक दीखते हैं और नहीं दीखते उन सब में घूमता है। जितना ज्ञान अधिक होता है, उसको उतना ही आनन्द अधिक होता है। मुक्ति में जीवात्मा निर्मल होने से पूर्ण ज्ञानी होकर उसको सब सन्निहित पदार्थों का भान यथावत् होता है। यही सुखविशेष ‘स्वर्ग’ और विषय-तृष्णा में फँसकर दु:खविशेष भोग करना ‘नरक’ कहाता है।’५
हे मेरे आत्मन् ! तू सुगम योगमार्गों पर चल, योगाभ्यास से तुझे दिव्य शक्तियाँ प्राप्त होंगी और तू मुक्त होकर उस ब्रह्म में स्थित हो सकेगा, जिसमें पूर्व सुकर्मा मुक्तात्माएँ स्थित हैं। जहाँ पूर्व सुकर्मा जन जा चुके हैं, उस मुक्तिलोक में तुझे प्रकाशमान सविता प्रभु ले जाये। तेरा प्रयास और प्रभुकृपा दोनों मिलकर तुझे अवश्य सफलता प्राप्त करायेंगे।
पाद-टिप्पणियाँ
१. रिष हिंसार्थः, दिवादिः ।
२. (देवः) स्वप्रकाश: (सविता) सकलजगदुत्पादकः परमेश्वर:-२० ।
३-५. स० प्र०, समु० ९
आत्मा की अमरता और मुक्ति का मार्ग -रामनाथ विद्यालंकार