आओ, दैवी नौका पर चढ़े -रामनाथ विद्यालंकार

आओ, दैवी नौका पर चढ़े -रामनाथ विद्यालंकार 

ऋषिः गयप्लातः । देवता अदितिः ( दैवी नौः )।। छन्दः भुरिक् आर्षी त्रिष्टुप् ।

सुत्रामाणं पृथिवीं द्यामनेहसंसुशर्मण्मदितिसुप्रणीतम्। दैवीं नार्वस्वरित्रामनागमस्त्रेवन्तीमारुहेमा स्वस्तये॥

 -यजु० २१.६

आओ, (सुत्रामाणं) उत्कृष्ट त्राण करनेवाली, ( पृथिवीं) विस्तीर्ण, ( द्यां ) प्रकाशपूर्ण, (अनेहसं ) पापरहित, ( सुशर्माणं) उत्तम सुख दनेवाली (अदितिं ) खण्डित न होनेवाली, ( सु-प्रणीतिं ) शुभ उत्कृष्ट नीतिवाली, (सु-अरित्रां) उत्कृष्ट चप्पुओंवाली, (अनागसं ) अपराध-रहित, निर्दोष, । ( अस्रवन्तीं) न चूनेवाली, छिद्ररहित (दैवींनावं) दैवी नाव । पर ( आ रुहेम) आ चढ़े ( स्वस्तये ) कल्याण के लिए।

सांसारिक यातनाओं का विकराल समुद्र धाड़े मार रहा है। ज्वार बढ़ता ही जा रहा है। लगता है यह सारी धरती को ही निगल लेगा। ईष्र्या-राग-द्वेष की भयङ्कर लहरों का आघात प्रतिघात हो रहा है। हिंसा-उपद्रवों के मगरमच्छ मुँह फाड़ रहे हैं। दम्भ छल-प्रपञ्च की दीर्घकाय ह्वेल मछलियाँ निगलने को तैयार हैं। काम-क्रोध, आधि-व्याधि की नोकीली चट्टानें छलनी करने को खड़ी हैं। लोभ-मोह के विषैले जलजन्तु ग्रसने की ताक लगाये हैं। कौन कह सकता है क्या होनेवाला है? लगता है सर्वनाश उपस्थित है। यदि अपने को सुरक्षित करना चाहते हो तो नौका पर सवार हो जाओ। पर यह लकड़ी के तख्तों की या लोहे की चादर की नौका क्या लहरों के थपेड़ों को सह सकेगी? और यह छोटी-सी नौका भला  कितनों को अपने अन्दर बैठा पायेगी! इन सांसारिक नौकाओं और जलपोतों से काम नहीं चलेगा। दैवी नौका तुम्हारी प्रतीक्षा कर रही है। यह है प्रभुदेव की शरण-रूप नौका। यह नाव बहुत विस्तीर्ण है, धरती के सब लोग इसमें समा सकते हैं। आओ, इस अभयदायिनी नाव पर सवार हो जाएँ। आओ, समय रहते इस नौका को पकड़ लो, फिर पछताने के सिवा कुछ हाथ न लगेगा। |

यह प्रभु शरण की नाव ‘सुत्रामा’ है, सब विपदाओं से बचा सकनेवाली है। यह ‘पृथिवी’ है, सुविशाल है। यह ‘द्यौ’ है, करोड़ों विद्युत्-प्रदीपों-जैसे दिव्य प्रकाशवाली है। यह दुनियाबी पाप-वासनाओं से शून्य है। इसमें सुख ही सुख है, दुःख का लव-लेश तक नहीं है। यह मत सोचो कि यह टूट जाएगी, तब हमारा क्या होगा? यह ‘अदिति’ है, अखण्डनीय है। यह ‘सु-प्रणीति’ है, सुन्दर उत्तम राह पर चलनेवाली है। यह ‘सु-अरित्रा’ है, इसमें सत्य, अहिंसा, त्याग, तपस्या, शान्ति, धृति, क्षमा, निर्भयता आदि के सुन्दर चप्पू लगे हुए हैं, जिनसे यह बीच में ही न डुबा कर निश्चित रूप से पार पहुँचानेवाली है। यह ‘अनागाः’ हैं, इसमें आकर जो बैठ जाते हैं, उनकी अपराधवृत्ति समाप्त हो जाती है। यह ‘अस्रवन्ती’ है, छेदोंवाली नहीं है, जिससे यह आशङ्का हो कि इसमें विपदाओं का पानी भर जाने पर कहीं यह डूब न जाए। इस दैवी नाव पर चढ़ जाने में स्वस्ति ही स्वस्ति है, कल्याण ही कल्याण है। आओ, इस दैवी नौका पर चढ़कर अपनी हितसाधना कर लें।

आओ, दैवी नौका पर चढ़े -रामनाथ विद्यालंकार 

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