अश्वमेध का घोड़ा -रामनाथ विद्यालंकार

अश्वमेध का घोड़ा -रामनाथ विद्यालंकार 

ऋषिः प्रजापतिः । देवता अश्वः । छन्दः भुरिग् विकृतिः ।

विभूर्मात्रा प्रभूः पित्राश्वोऽसिहयोऽस्यत्योऽसि मयोऽस्यवसि सशिरसि वयसि वृषसि नृमणऽअसि।ययुर्नामऽसि शिशुर्ना मास्यादित्यानां पत्वान्विहि देवाऽआशापालाऽएतं देवेभ्योऽश्वं मेधाय प्रोक्षितश्रक्षतेह रन्तिरिह रमतामिह धृतिरह स्वधृतिः स्वाहा ॥

-यजु० २२.१९

हे अश्वमेध के घोड़े! तू (विभूः ) व्यापक बलवाला है। ( मात्रा) माता पृथिवी से, (प्रभूः ) सामर्थ्यवान् है ( पित्रा ) पिता सूर्य से। (अश्वः असि ) तू अश्व है, ( हयः असि ) हय है, (अत्यः असि) अत्य है, (मयः असि ) मय है, (अर्वा असि ) अर्वा है, ( सप्तिः असि ) सप्ति है, (वाजी असि) वाजी है, (वृषा असि) वृषा है, (नृमणाः असि) नृमणाः है, (ययुः नाम असि ) ययु नामवाला है, ( शिशुः नाम असि ) शिशु नामवाला है। (आदित्यानां पत्वा ) सूर्यकिरणों के मार्ग से ( अन्विहि ) चल। ( आशापालाः देवाः ) हे दिशापालक विद्वानो ! ( देवेभ्यः मेधाय प्रोक्षितं ) विद्वानों के लिए यज्ञार्थ प्रोक्षण किये हुए (एनम् अश्वं रक्षत ) इस घोड़े की रक्षा करो। इसकी ( इह रन्तिः) यहाँ क्रीड़ा हो, यह (इह रमताम् ) यहाँ रमे। इसकी (इह धृतिः) यहाँ स्थिरता हो, (इहस्वधृतिः) यहाँ स्वेच्छानुरूप रुकना हो। (स्वाहा) यह कैसा सुवचन है। |

जो सम्राट् दिग्विजयी होना चाहता है, वह अश्वमेध करता है। अश्वमेध में घोड़ा छोड़ा जाता है। ऐसा घोड़ा लाया जाता है, जिसका अगला भाग काला और पिछला भाग सफेद हो, ललाट पर शकटाकार तिलक बना हो। वह बहुत मूल्यवान्, अतिवेगवान् ऐसा अद्वितीय होता है जिसकी जोट । का दूसरा मिलना दुष्कर होता है। उसमें बल-पराक्रम शतपथ ब्राह्मण के अनुसार माता पृथिवी और पिता सूर्य से आता है। इसीलिए मन्त्र के आरम्भ में कहा है कि हे अश्वमेध के घोड़े! तुझे अपनी माता से व्यापक शक्ति मिली है और पिता से विपुल सामर्थ्य मिला है। आगे अश्वमेध के अश्व के गुण-कर्म-स्वभाव बताने के लिए उसके पर्यायवाची शब्दों का उल्लेख किया गया है कि तू ऐसे-ऐसे गुण कर्मोवाला और इन इन नामोंवाला है। तेरा नाम ‘अश्व’ है, क्योंकि तू विशाल मार्ग को तय करता है। तू ‘हय’ है, क्योंकि तू विशिष्ट चाल से चलता है। तू अत्य’ है, क्योंकि तू सतत गति से चलता रहता है, थकता नहीं। तू सुखगामी होने से और सवार को सुख देने के कारण ‘मय’ है। तू सर्वत्र गति और लक्ष्य पर पहुँचाने के कारण ‘अर्वा’ है। तू संग्रामों में समवेत या संलग्न होने के कारण ‘सप्ति’ है। बलवान् और वेगवान् होने से तू ‘वाजी’ कहलाता है। तू वीर्यवान् और वीर्यसेचक होने से ‘वृषा’ तथा नेताओं में मन के समान वेगगामी होने से नृमणाः’ कहलाता है। दुलकी चाल से चलने के कारण तू ‘ययु’ नाम से प्रसिद्ध है। मार्ग की धूलि को अपनी टाप के आघातों से सूक्ष्म करने के कारण तेरा नाम ‘शिशु’ है। जैसे सूर्यकिरणें आकाशमार्ग में चलती हैं, वैसे तू मार्ग पर चल। हे दिक्पालो ! आप लोग अश्वमेध के लिए प्रोक्षित इस अश्व की रक्षा करो। यह स्वतन्त्र रमण करे, इसे कोई पकड़ने का साहस न करे। यह स्वेच्छापूर्वक जहाँ चाहे विहार करे, जहाँ चाहे स्थिर हो। ‘स्वाहा’, हम इस अश्व की रक्षार्थ यज्ञाग्नि में आहुति देते हैं। यह दिग्विजय करके आयेगा, तब हमारे सम्राट् विश्वविजयी चक्रवर्ती राजा के रूप में विख्यात होंगे।

पाद-टिप्पणियाँ

१. विभूर्मात्रा प्रभूः पित्रेति । इयं वै माताऽसौ पिता, आभ्यामेवैनं परिददाति ।श० १३.१.६.१

२. (अश्व:) योऽश्नुते व्याप्नोति मार्गान् स:-द० । (हयः) हय गतौ, शीघ्रगामी। (अत्यः) यः अतति सततं गच्छति सः-द० | अत सातत्यगमने। (मयः) सुखगामी सुखकारी च । ‘मय:=सुख’ निघं० ३.६। (अर्वा) ऋ गतिप्रापणयोः भ्वादिः । ऋच्छति सवेगं गच्छति लक्ष्य प्रापयति वा सोऽर्वा । (सप्तिः) यः सपति संग्रामैः समवैति सः, सप संबन्धे। (वाजी) वाज: बलं वेगो वा अस्यास्तीति वाजी। (वषा) वष सेचने, यो वर्षति सिञ्चति सः । (नमणाः) नष नेतष पदार्थेषु मन इव सद्योगामी-द० | नृणां मनुष्याणां यत्र मनः सः उवट। (ययुः ) यो याति सः-द० । (शिशुः) यः श्यति तनूकरोति स:-द०, शो तनूकरणे। (पत्वा) पतन्ति गच्छन्ति यत्र स पत्वा मार्गः ।।

अश्वमेध का घोड़ा -रामनाथ विद्यालंकार 

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *