अमर आत्मा पुन: पुन: जन्म लेती है – रामनाथ विद्यालंकार
ऋषिः दीर्घतमा: । देवता जीवात्मा। छन्दः निवृद् आर्षी त्रिष्टुप् ।
अपश्यं गोपामनिपद्यमानमा च परां च पृथिभिश्चरन्तम्। स सध्रीचीः स विषूचीर्वसाऽआवेरीवर्ति भुवनेष्वन्तः ॥
-यजु० ३७.१७
मैंने ( अपश्यं ) देखा है (गोपां’ ) इन्द्रियरूप गौओं के रक्षक जीवात्मा को (अनिपद्यमानं ) न मरनेवाला, ( पथिभिः ) मार्गों से ( आ चरन्तं ) शरीर के अन्दर आनेवाला और ( पराचरन्तं ) शरीर से बाहर जाने वाला । ( सः ) वह ( सध्रीची:३) साथ-साथ चलनेवाली नस-नाड़ियों को और ( सः ) वह (विषूचीः ) विविध दिशाओं में जानेवाली नस– नाड़ियों को ( वसानः ) धारण करता हुआ ( भुवनेषु अन्तः ) भवनों के अन्दर ( आ वरीवर्ति५ ) पूनः-पुनः आता-जाता है।
चारवाक सम्प्रदाय की मान्यता है कि जब तक जियो सुख से जियो, ऋण लेकर घी पियो, ऋण चुकाने की आवश्यकता नहीं है, मरणोपरान्त शरीर भस्म हो चुका, तो पुनर्जन्म किसी का नहीं होता है। वह आत्मा नाम की कोई नित्य वस्तु नहीं मानता, जो पुनर्जन्म ले । किन्तु उसका कथन मिथ्या है, क्योंकि सैंकड़ों उदाहरण ऐसे मिलते हैं कि कइयों को पूर्वजन्म की बातें स्मरण रहता हैं । श्रुति भी आत्मा की अमरता तथा उसके बार-बार जन्म लेने की पुष्टि करती है। प्रस्तुत कण्डिका कह रही है कि शरीर में एक गोपाः’ निवास करता है, जो शरीर के मर जाने पर भी मरता नहीं है। उसका नाम ‘गोपाः’ इस कारण है कि वह इन्द्रियरूप गौओं का रक्षक है। वैसे तो अपने आत्मा का प्रत्यक्ष प्रत्येक को होता है, जिसे वह ‘मैं’ कहता है-मैं कहता हूँ, मैं बोलता हूँ, मैं सुनता हूँ, मैं स्वाध्याय करता हूँ, मैं अध्यापन करता हूँ आदि। यह ‘मैं’ आत्मा ही है। न्यायदर्शनकार ने अनुमान प्रमाण से आत्मा की सिद्धि करते हुए इच्छा, द्वेष, प्रयत्न, सुख, दु:ख और ज्ञान को आत्मा के लिए साधक हेतु बताया है। पहले जैसे पदार्थ से मनुष्य को सुख मिले चुका होता है, वैसे पदार्थ को देखकर उसे पाने की इच्छा करता है। जैसे पदार्थ से दु:ख मिल चुका होता है, वैसे पदार्थ को देखकर उससे द्वेष करता है। जैसे पदार्थ से पहले सुख मिल चुका होता है, वैसे पदार्थ को पाने का प्रयत्न करता है। जैसे पदार्थ से पहले सुख मिल चुका होता है, वैसे पदार्थ के सेवन से अब भी सुखी होता है। जैसे पदार्थ के सेवन से पहले दु:ख मिल चुका होता है, वैसे पदार्थ के सेवन से अब भी दु:खी होता है। जो ज्ञान पहले प्राप्त कर चुका होता है, अब भी वह ज्ञान उसे होता है। इन इच्छा, द्वेष प्रयत्न, सुख, दु:ख, ज्ञान का कर्ता वही है, जो पहले तज्जातीय पदार्थों के प्रयोग से सुख या दुःख प्राप्त कर चुका होता है, अब भी वह ज्ञान उसे होता है। इस प्रकार दोनों का कर्ता एक ही है, इस हेतु से आत्मा का अनुमान होता है। वह आत्मा कर्मानुसार विभिन्न योनियों में जन्म लेता है। पाप कर्मों से पाप योनि में जाता है, पुण्य कर्मों से पुण्य योनि में जाता है और पाप तथा पुण्य दोनों होते हैं, तो मनुष्य योनि में आता है। इस प्रकार विभिन्न शरीरों में आता है तथा देहान्त के समय शरीरों से बाहर निकल जाता है। शरीर में कुछ नस-नाड़ियाँ समानान्तर चलती हैं, कुछ विरुद्ध दिशाओं में चलती हैं। उन्हें धारण करता हुआ वह बार-बार जन्म लेता है।
पाद–टिप्पणियाँ
१. गाः इन्द्रियाणि पाति रक्षतीति गोपाः जीवात्मा ।
२. नि-पद गतौ, दिवादिः । न निपद्यते म्रियते यः सः अनिपद्यमानः ।।
३. सह अञ्चन्ति गच्छन्ति याः ता: सध्रीच्यः । सह को सध्रि आदेश।
विषु विविधं विरुद्धं विषमं वी अञ्चन्ति गच्छन्ति याः ता विषूच्यः ।
५. आ-वृतु वर्तने, यलुगन्त। पुनः पुनः आवर्तते ।।
६. इच्छाद्वेषप्रयत्नसुखदुःखज्ञानान्यात्मनो लिङ्गम्। न्या०२० १.१.१०
७. द्रष्टव्य-छा० उप० ५.१०.७-९
अमर आत्मा पुन: पुन: जन्म लेती है – रामनाथ विद्यालंकार