Manu Smriti
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ब्रह्महत्या सुरापानं स्तेयं गुर्वङ्गनागमः ।महान्ति पातकान्याहुः संसर्गश्चापि तैः सह ।।11/54
यह श्लोक प्रक्षिप्त है अतः मूल मनुस्मृति का भाग नहीं है
 
Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
ब्रह्महत्या, सुरापान, ब्राह्मण का दस माशा व अधिक सोना चुराना, माता से रति करना, यह चार महापाप हैं और महापापियों का संसर्ग करना पाँचवाँ महापाप है।
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
टिप्पणी :
ये सभी (11/54 से 190) श्लोक निम्नलिखित कारणों से प्रक्षिप्त है । 1. अन्तर्विरोध- महापातक एवं उपपातकों के वर्गीकरण और प्रायश्चित –निश्चय का यह प्रसंग मौलिक सिद्ध नही होता । इस प्रसंग का पूर्वोक्त मनुस्मृति की व्यवस्थाओं से तालमेल न होकर अनेक प्रकार से विरोध है— (1) यहां चार प्रकार के अपराधियों को विशिष्ट अपराधी मानकर ’महापातको’ की सज्ञां दी है किन्तु हत्या प्रसंग (8/278-300) में ब्रह्महत्या का चोरी प्रसंग में (8/301-343) स्वर्ण की चोरी का, परस्त्री गमन प्रसंग मे (8/352-387) गुरुपत्नीगामी का पृथक् से विशिष्ट अपराधी के रूप में कोई उल्लेख नही है । इससे स्पष्ट होता है कि यह विभाजन मनु का मौलिक नही है । यदि यह विभाजन मौलिक होता तो उक्त प्रसंगो मे इनके लिए विशेष उल्लेख या विशिष्ट दण्ड की व्यवस्था होती । (2) 8/386 में विशिष्ट अपराधियों की गणना करते हुए चोर, परस्त्रीगामी, दुष्टवाक्, लुटेरा और हत्यारा, इन व्यक्तियों को विशिष्ट अपराधी माना है और राजा को इन पर विशेष नियन्त्रण रखने का आदेश है । यहां चार महापातकियों का परिगणन उक्त श्लोक से भिन्न है और अपराध के आधार पर विभाजन न करके व्यक्तिपरक आधार लिया है , जैसे- परस्त्रीगमन में अपराध का आधार न लेकर केवल गुरुपत्नीगामी को ही विशिष्ट अपराधी माना है । हत्यारामात्र होना आधार न मानकर केवल ब्रह्महत्यारे को और प्रत्येक चोर को ही नहीं अपितु केवल स्वर्ण की चोरी करने वालों को ही महापातकी माना है । यह विभाजन पिछले विभाजन से पृथक् है और इसकी आधार-पद्धति भी भिन्न है । (3) यहां स्वर्णचोर को महापातकी और रजत आदि चुराने वाले को उपपातकी मानकर दोनों के लिए भिन्न-भिन्न दण्डों की व्यवस्था दी है जबकि 8/321-322 में इनकी चोरी को समान मानकर समान दण्ड की व्यवस्था है । और यहां दोनों के दण्ड में कोई सन्तुलन न होकर दिन-रात का अन्तर है । स्वर्णचोर के लिए बारह वर्ष तक ब्रह्महत्या का प्रायश्चित करने का आदेश है (11/101) और रजत, मोती आदि चूराने वाले के लिए केवल बारह दिन चावल खाने का विधान है ! (11/167) । एक स्थान पर दोनों को समान स्तर का चोर माना है और दूसरे स्थान पर रजत चोर को अत्यन्त सामान्य चोर मानकर उसके लिए दण्ड भी नाम मात्र है । (4) 210 से 226 श्लोकों में मनु ने प्रायश्चित के व्रत बतलाते हुए कहा है कि इन उपायों से पापियों की शुद्धि करे किन्तु 72 से 104, 108 से 116, 118 से 123, 126 से 138, 140 से 153, 156, 160, 165, 167, 168, 170, 172, 174, 175, 178, 182 से 188 श्लोको मे प्रायश्चित के लिए जिन व्रत या विधियो का कथन है वे उक्त व्रतों से भिन्न है । मनु के अनुसार तो उन्हीं व्रतों मे से प्रायश्चित के लिए व्रत निश्चित किये जाने चाहिये थे । यह भिन्नता मनु के विधान से विरुद्ध है और किसी अन्य व्यक्ति द्वारा विहित है । (5) 226 से 233 श्लोकों से स्पष्ट है कि प्रायश्चित मृत्युकारक नहीं होना चाहिए । वह ऐसा होना चाहिए जिससे शेष जीवन में मनुष्य पुनः उस पाप को न करे । आगे आने वाले समय में अपराधों की ओर से सावधान रहने के लिए और किये हुए अपराध पर पश्चाताप करने के लिए ही प्रायश्चित होता है । यह उक्त श्लोकों से सिद्ध है । 9/235 से 240 श्लोकों के प्रसंग मे 236-237 श्लोकों के इस कथन से कि ’यदि ये महापातकी प्रायश्चित न करें तो राजा इनके मस्तक पर चिह्न अंकित करादे और ये दीन-हीनों की तरह पृथिवी पर विचरण करें’ यही सिद्ध होता है कि कोई भी प्रायश्चित मृत्युकारक नहीं होता । यदि प्रायश्चित मृत्युकारक होते तो नवम अध्याय के उक्त प्रसंग में राजा को महापातकियों को चिह्न अंकित करने का आदेश न होकर मृत्युदण्ड देने का आदेश होता । इस प्रसंग में महापातकियों को मृत्यु के रूप में (73, 79. 89, 90, 91, 100, 103, 104, 146) प्रायश्चित विहित है जो मनु की व्यवस्था से विरुद्ध है । (6) 56 वें श्लोक में झूठी साक्षी को सुरापान के समान महापातक मानकर 88 वें श्लोक में उसका प्रायश्चित कहा है जबकि 8/119 से 122 श्लोकों में झूठी साक्षी के अपराध में कुछ आर्थिक दण्ड ही विहित है । उसमें और इस दण्ड में दिन-रात की असमानता है 8/119-122 श्लोकों मे झूठी साक्षी का महापातक के रूप में कोई विशिष्ट रूप से उल्लेख न होना भी यह सिद्ध करता है कि यहां यह विभाजन मनुकृत नही है । (7) इसी प्रकार धरोहर हड़पने के अपराध के प्रायश्चित में और अष्टम अध्याय में विहित दण्ड में भी पर्याप्त असमानता है और न ही वहां इस अपराध का महापातक के रूप में उल्लेख है (11/57, 88।। 8/179-196) । (8) 62 वें श्लोक में द्रव्य लेकर पढ़ाना उपपातक माना है जब कि 2/141 मे इस प्रकार के अध्यापक की उपाध्याय संज्ञा देकर द्रव्य लेकर पढ़ाने के विधान का संकेत है । 2/109 में तो स्पष्ट शब्दों में द्रव्यदाता को पढ़ाने का कथन है । (9) इस प्रसंग में अनेक स्थानो पर प्रायश्चित में दान देने का विधान है और उनकी दण्ड-व्यवस्था भी समान है । यहाँ ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र हत्या के लिए कम-अधिक प्रायश्चित का विधान उस व्यवस्था-पद्धति से भिन्न है तथा भेदभावपूर्ण है । (10) इस प्रसंग में अनेक स्थानों पर प्रायश्चित में दान देने का विधान है । 76 वें श्लोक में तो स्पष्ट आदेश है कि अपना सर्वस्व ब्राह्मण को दान देने से ब्रह्महत्या के पाप से मुक्त हो जाता है । यह मनु-मत के विपरीत है । मनु ने ब्राह्मणों को केवल सत्प्रतिग्रह लेने का ही विधान किया है (10/76,115) असत्प्रतिग्रह निषिद्ध ही नही अपितु निन्दित माना है और इसी अध्याय में असत्प्रतिग्रह लेने वालों के लिये प्रायश्चित का विधान किया है (193-196) । इससे स्पष्ट है कि अपराधी लोगों से ब्राह्मणों को दान लेने का अधिकार नही है, अतः इस प्रसंग में वर्णित सम्पूर्ण दानविधि अमौलिक है । (11) 9/225 में शराबी के लिए केवल ’देशनिकाला’ दण्ड का विधान है और यहाँ मृत्युकारक प्रायश्चित (90, 91, 146) विहित है । दोनों व्यवस्थाओं में पर्याप्त अन्तर और विरोध है । इस प्रकार ये अन्तर्विरोध इस सम्पूर्ण प्रसंग को अमौलिक और प्रक्षिप्त सिद्ध करते है । 2. अवान्तरविरोध- इस प्रसंग में पातकों के विभाजन तथा उनकी दण्ड-व्यवस्था में पुनरुक्तियां, असन्तुलन, परस्पर विरुद्धता और अत्यधिक विश्रृंखलता है । इससे यह सिद्ध होता है कि यह प्रसंग न तो मौलिक है और न किसी एक व्यक्ति द्वारा रचित है तथा न किसी विद्वान् व्यक्ति द्वारा रचित है । इस प्रसंग में निम्न त्रुटियां हैं— (1) 54 वें श्लोक में मद्यपान को महापातक माना है और 66 वें श्लोक में मद्यप की गणना उपपातकियों में है । (2) दण्डों के विकल्पों में अत्यधिक असमानता है जो बुद्धिसंगत प्रतीत नहीं होती; जैसे- (क) 90, 91, 146 श्लोकों में मदिरा पीने पर मृत्यु द्वारा ही शुद्धि मानी है और 92 वें श्लोक में उसके विकल्प में एक वर्ष तक चावल पर रहना ही विहित है । (ख) 73 वें श्लोक में ब्रह्महत्या का प्रायश्चित मृत्यु विहित है और 82-83 में अश्वमेध यज्ञ में ब्राह्मणों और राजा के समक्ष अपना पाप कहकर स्नान कर लेना मात्र ब्रह्महत्या को दूर करने वाला प्रायश्चित कहा है । (ग) गुरुस्त्रीगामी के लिये 103, 104 श्लोकों में मृत्यु का प्रायश्चित बताया है और 106 में केवल तीन मास तक हविष्य औक नीवाक से चान्द्रायणव्रत करने से उक्त महापातक की शुद्धि मान ली । इस प्रकार इन में कोई सन्तुलन और तालमेल नहीं है । (3) 55 वें श्लोक में असत्यभाषण को महापातक मानकर ब्रह्महत्या के समान माना है और 69 वें श्लोक में असत्यभाषण को साधारण सा अपराध ’अपात्रीकरण’ माना है । (4) 56 वें श्लोक में वेदनिन्दा को महापातक माना है जबकि 66 वें श्लोक में ’नास्तिकता’ को उपपातक माना है । मनु के मत में वेदनिन्दा ही नास्तिकता है (नास्तिको वेदनिन्दकः 2/11) । (5) 55-57 श्लोकों में अनेक अपराधों को महापातको के समान गिना है किन्तु महापातको के प्रायश्चित विधान प्रसंग में (86 से 106) उनका प्रायश्चित वर्णित नही है, वे हैं— अपनी उन्नति के लिए झूठ बोलना, राजा के सामने चुगली करना, वेदत्याग, वेदनिन्दा, निन्दित तथा अभक्ष्य पदार्थों का भक्षण, मनुष्य, घोड़ा, चांदी, भूमि, वज्र और मणियों की चोरी । (6) इसी प्रकार कुछ अपराधों को महापातकों के प्रसंग मे (54-58) नही गिना किन्तु उनके प्रसंग में उनका प्रायश्चित विहित है, वे है-गर्भपात, यज्ञ करते हुए क्षत्रिय और वैश्य की हत्या, रजस्वला स्त्री की हत्या एवं स्त्री की हत्या (87-88) । (7) 66 वें श्लोक में स्त्री हत्या को उपपातक माना है किन्तु 88 वें श्लोक में उसे महापातक मानकर स्त्री हत्यारे के लिए ब्रह्महत्या का प्रायश्चित विहित है । (8) 56 वें श्लोक में मनुष्य, घोड़ा, चांदी आदि की चोरी को महापातक के समान माना है और उनका प्रायश्चित अत्यन्त साधारण कहा है (163, 167) आश्चर्य की बात तो यह है कि स्वर्ण की चोरी करने पर तो ब्रह्महत्या का बारह वर्ष तक प्रायश्चित है और मनुष्यों तथा स्त्रियों की चोरी करने पर केवल चान्द्रायणव्रत ही प्रायश्चित माना है (263) । इसी श्लोक में मनुष्यों और स्त्रियों की चोरी तथा कूयें और बावड़ी के जल की चोरी को भी समान माना है ! (10) एक ही प्रसंग में तीन स्थानों पर (57, 65, 66) चोरी का परिगणन किया गया है जो अनावश्यक है । (11) वेदत्याग, वेदपाठ-त्याग, निन्दा और नास्तिकता जो कि मनु के विचार मे एक नास्तिकता के अन्तर्गत ही आते है (2/16) उनका इस प्रसंग में चार बार उल्लेख है (56, 59, 66) । (12) इसी प्रकार उपपातकों के एक ही प्रसंग में अग्निहोत्र-त्याग के अपराध का दो बार परिगणन है (59, 65) । (13) इसी प्रकार परस्त्रीगमन, कन्यादूषण व्रतलोप, स्त्रीसेवन आदि एक ही प्रकार की बातों का केवल उपपातक प्रसंग में ही चार बार उल्लेख है (59, 61, 66) । (14) कन्यादूषण को 58 में महापातकों के अन्तर्गत गिना है और 61 में उपपातकों के अन्तर्गत । (15) पातकों के परिगणन क्रम में और उनके प्रायश्चित वर्णन-कर्म में तालमेल नही है । गणना के अनुसार महापातकी, उनके संसर्गियों के प्रायश्चित, उपपातकी जातिभ्रंशकर, संकरीकरण, अपात्रीकरण, मलावह, इस क्रम से प्रायश्चित विधान होना चाहिए किन्तु इसमें अत्यधिक विश्रृंखलता है और संसर्गियों के लिये सबसे अन्त में फल-विधान किया है । 126 से 179 श्लोकों का वर्णन परिगणन क्रम के आधार पर 124 से पूर्व होना चाहिए था । फलकथन का प्रसंग इतना विश्रृंखलित है कि परिगणनक्रम के अनुसार उसमें बहुत कम प्रायश्चित क्रमबद्धरूप से मिलते है । 54 वें श्लोक से तो यह संकेत मिलता है कि केवल महापातकियों का संसर्ग ही महापातक है किन्तु संसर्गो का प्रायश्चित सभी अपराधों के बाद देकर सभी अपराधियों के संसर्ग को पातक का रूप दे दिया है । (16) स्त्रीवध को उपपातकों के अन्तर्गत माना है और उसका प्रायश्चित महापातकों के समान महापातकों के प्रसंग में दिया है (66, 88) । (17) असंतुलन का अत्यधिक आश्चर्यपूर्ण उदाहरण 131 वां श्लोक है जिसमें शूद्र के जीवन को बिलाव, नेवला, मेंढ़क, कुत्ता, उल्लू आदि के समानस्तर का मानकर इन सबकी हत्या पर एक ही प्रायश्चित विहित है । (18) एक अपराध का एक स्थान पर ही प्रायश्चित होना चाहिए किन्तु इस प्रसंग में एक ही अपराध का कईं-कईं स्थानों पर प्रायश्चित विहित है और वह भी भिन्न-भिन्न । जैसे- (क) सर्पहत्या को ’संकरीकरण’ पाप मानकर 125 वें में चान्द्रायणाव्रत उसका प्रायश्चित विहित है । पुनः 133 , 139 में उससे भिन्न प्रायश्चित का विधान है । (ख) घोड़ा, हाथी, भेड़, गधा आदि की हत्या का 68, 125 में भी प्रायश्चित है और 136 मे भी । (ग) मद्य के साथ के पदार्थों के भक्षण का प्रायश्चित 70, 125 में भी है और उससे भिन्न 147-149 में भी । (घ) फल आदि की चोरी का प्रायश्चित 70, 125 में भी है और उससे भिन्न 165 में भी । इस सभी की गणना दो-दो बार पृथक-पृथक् अपराधों के नाम से की गई है जो किसी एक रचयिता द्वारा असम्भव है । (19) 190 वें श्लोक मे कहा है कि- कृतघ्न, शरणागत के हत्यारे आदि प्रायश्चित भी कर चुके हों तो भी इनके साथ व्यवहार न करे, जबकि इन दोनों अपराधों का पिछले पातकों में उल्लेख नही है । (20) प्रायश्चितविधान प्रसंग में मनु की शैली में चार प्रसंग प्रारम्भ किये है, वे है-126-145 में हिंसाजन्य पापों का प्रायश्चित, 146-160 में अभक्ष्यभक्षण का, 161-168 में चोरी का, 169-178 में अगम्यागमन का प्रायश्चित कहा है और इन चारों प्रसंगो की समाप्ति का संकेत 179 में है किन्तु अपराध-गणना प्रसंग में इस क्रम या नाम से इन प्रसंगो का परिगणन कहीं नहीं है । 3. प्रसंगविरोध- प्रायश्चित-विषयक प्रसंग का संकेत देने वाला श्लोक 44 वां है । इसमें स्पष्ट शब्दों में तीन बातों का संकेत दिया है- (क) विहित कर्मों को न करने पर, (ख) निन्दित कर्म करने पर, और- (ग) इन्द्रियविषयों में आसक्त होने पर अर्थात् आलस्य, कामवासना आदि में पड़ने से मनुष्य प्रायश्चित का पात्र होता है । उक्त श्लोकों में जो संकेत दिये है, अग्रिम प्रसंग में इसके आधार पर वर्णन नही है; जबकि मनु की शैली के अनुसार संकेत-श्लोक के अनुसार ही अग्रिम वर्णन होना चाहिए । अग्रिम प्रसंग को ध्यान से देखने से वह दो प्रसंगो में विभाजित प्रतीत होता । पहला प्रसंग 54 से 190 श्लोक तक है और दूसरा 191 से 209 श्लोक तक । पहले प्रसंग की समाप्ति का संकेत 179 में दिया है और फिर अपराधियों के संसर्ग करने वालों के लिए विधान है और 189-190 में इस प्रथम प्रसंग का उपसंहार है । अब यहां विचारणीय बात यह है कि जब अपराधों के प्रायश्चित का एक प्रसंग समाप्त हो गया तो पुनः 191 से प्रायश्चित-वर्णन प्रारम्भ करने का क्या तुक था ? इसके उत्तर में यह कहा जा सकता है कि यह द्वितीय प्रसंग ही मौलिक है और प्रथम प्रसंग प्रक्षिप्त है । इसमें निम्न युक्तियां हैं— (1) प्रथम प्रसंग (54-190 तक) अनेक आधारों पर अमौलिक और प्रक्षिप्त सिद्ध हो रहा है और शैली में नहीं है । मनु की शैली के अनुसार पातकों की गणना से पूर्व उसको कहने का संकेत होना चाहिए था । (3) द्वितीय प्रसंग मनु के संकेत-श्लोक 44 वें के अनुसार है । इस प्रसंग में 191 वाँ श्लोक ’अकुर्वन् विहितं कर्म’ का दिग्दर्शन है । 192-196 श्लोक ’निन्दितं च समाचरेत्’ के और 203 श्लोक ’प्रसक्तश्चेन्द्रियार्थेषु’ का दिग्दर्शन है । शेष सभी अपराधों का प्रायश्चित शक्ति और काल के आधार पर करने के लिए संकेत करके (209) इस प्रसंग को संक्षेप में समाप्त कर दिया है । (4) 192 वें श्लोक के शब्द इस बात को सिद्ध करते है कि मनु ने इस प्रसंग का संक्षेप में वर्णित करके समाप्त किया है और 54 से 190 श्लोकों के विस्तृत वर्णन का मौलिकता से कोई सम्बन्ध नही है । इस श्लोक में मनु ने सभी विकर्मस्थ (निन्दित या व्यवस्था विरुद्ध कर्म करने वाले) लोगों के लिए एक ही पद द्वारा-"प्रायश्चितं चिकीर्षन्ति विकर्मस्थास्तु ये द्विजाः" कहकर सामान्य विधान कर दिया है । यदि मनु को एक-एक अपराध की गणना का और उसके विस्तृत प्रायश्चित वर्णन का प्रसंग अभीष्ट होता तो वे एक ही पद में सभी व्यक्तियों को और सभी निन्दित कर्मों को एकत्र समाहृत नहीं करते । इस श्लोक से यही सिद्ध है कि प्रथम अमौलिक है और द्वितीय प्रसंग मौलिक है । इस प्रकार प्रसंगविरोध के आधार पर यह प्रसंग असंगत सिद्ध होता है । प्रसंगानुसार 53 वें श्लोक के पश्चात् 191 वां श्लोक होना चाहिए । बीच के ये सभी श्लोक अप्रासंगिक है । 4. शैलीगत आधार- सम्पूर्ण प्रसंग में महापातक एवं उपपातक तथा अन्य पातकों के विभाजन और उनकी दण्ड-व्यवस्था में अत्यधिक विश्रृंखलता तथा असंतुलन युक्त शैली है । इनका विभाजन भी निराधार है । इसी प्रकार इस प्रसंग की वर्णनशैली अतिशयोक्तिपूर्ण, निराधार और अयुक्तियुक्त है । मनु की शैली में त्रुटियां नहीं है । अतः यह प्रसंग प्रक्षिप्त है । टिप्पणी :
पण्डित चन्द्रमणि विद्यालंकार
Commentary by : पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय
ब्रह्महत्या, शराब पीना, चोरी और गुरु की स्त्री के साथ व्यभिचार महापातक है और ऐसों के साथ रहना भी महापातक है।
 
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