सूत्र :अपिवाक्रमसंयो-गाद्विधिपृथक्त्वमेकस्यांव्यवतिष्ठेत ३२
सूत्र संख्या :32
व्याख्याकार : पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय
अर्थ : पाद ४ सूत्र ३३ तक की व्याख्या :
अध्याय २, पाद ४
इस पाद में दो अधिकरण हैं। बह्वृचब्राह्मण में यह आदेश है- ‘यावज्जीवं अग्निहोत्रं जुहोति।’ ‘यावज्जीवं दर्शपूर्णमासाभ्यां यजेत।’ अर्थात् अग्निहोत्र और दर्शपूर्णमास इष्टियों को ‘यावज्जीवं’ (जीवन-पर्यन्त) करे। यहां ‘यावज्जीवं’ शब्द के अर्थों पर शंका हो गई। ‘यावज्जीवं’ शब्द ‘कर्ता’ के लिये आया है या कर्म के लिये। यदि कर्म के लिए आया होता तो इसका अर्थ होता कि जीवनभर अग्निहोत्र ही करता रहे और कुछ काम न करे। ऐसा मानना तो महान् अनर्थ होता। इसलिए आचार्य ने यह बताया कि ‘यावज्जीवं’ ‘कर्ता’ के लिए आया है, कर्म के लिए नहीं। अर्थात् जीवनपर्यन्त अपना कर्तव्य समझकर इन कर्मों को विधि के अनुसार यथाकाल करे। यह एक व्याकरण सम्बन्धी उलझन थी जो ऊपर दिये ब्राह्मण वाक्य को ठीक-ठीक न समझने से हो गई थी। आचार्य ने इसको विस्पष्ट कर दिया (देखो सू० १-७)।१
दूसरे अधिकरण (सू० ८-३२) तक यह बताया है कि काठक, कालापक आदि भिन्न-भिन्न शाखाओं में जो यज्ञ एक ही नाम से दिये हैं। वह एक ही यज्ञ हैं। भिन्न-भिन्न नहीं। अर्थात् शाखा भेद यज्ञ-भेद का द्योतक नहीं हैं। कहीं-कहीं भिन्नतायें हैं। परन्तु वह ऊपरी हैं वास्तविक नहीं। उनकी एकता में भेद नहीं आता।२