DARSHAN
दर्शन शास्त्र : Meemansa दर्शन
 
Language

Darshan

Adhya

Shlok

सूत्र :आगन्तुकत्वाद्वास्वधर्मास्याच्छ्रुतिविशेषादितरस्यच मुख्यत्वात् ४
सूत्र संख्या :4

व्याख्याकार : पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय

अर्थ : पाद ३ सूत्र १ से ३५ तक की व्याख्या : (१) एक अहीन याग होता है ‘अष्टरात्र’। उसके अन्तर्गत दो अग्निष्टोम होते हैं—एक विश्वजित् दूसरा अभिजित्। विश्वजित् याग में बछड़े की खाल पहनने का विधान है—‘अवभृथादुदेत्य वत्सत्वचं परिधत्ते।’ ज्योतिष्टोम यज्ञ में विधान है कि नया कपड़ा (अहतं वास:) पहना जाय। विश्वजित् याग में नये कपड़े और बछड़े की खाल दोनों का समुच्चय होगा न बाध होगा न विकल्प। अर्थात् नया कपड़ा भी पहने और बछड़े की खाल भी। (सू० २) (२) अग्नि के सम्बन्ध में वह श्रुति है—‘अग्नीषोमीयस्य पुरोडाशमनुदेवसुवां हवींषि निर्वपति’ अर्थात् अग्नीषोमीय पशु पुरोडाश की हवियों के पीछे ‘अनुदेवसु’ हवियों की आहुति देता है। इन ‘अनुनिर्वाप्य’ हवियों में पशु पुरोडाश के तंत्र का प्रसङ्ग है। (सू० ८) (३) यदि एक कर्म के सम्बन्ध में कई गुण दिये हों तो सब का समुच्चय होगा (सू० ९)। जैसे ‘आघार’ कर्म के तीन गुण हैं—(१) ऋजुमाघारयति=सीधा आघार करे। (२) सन्ततमाघारयति =लगातार आघार करे। (३) प्राश्चमाघारयति=आगे को बढक़र आघार करे। यहां तीनों बातों का पालन होगा। परन्तु यदि कई गुणों का प्रयोजन एक ही हो तो उनमें समुच्चय न होकर विकल्प होगा। जैसे व्रीहि और जौ दोनेां का विधान है। इनमें से एक को लेना होगा दोनों को नहीं। यूप की लकड़ी खरीद की हो या दूसरी। यहां भी विकल्प होगा। सामगान में रथन्तर साम हो या बृहत् साम। एक ही लेना चाहिये। दोनों नहीं। क्योंकि प्रयोजन एक ही है। वह विकल्प से सिद्ध हो जाता है। जहां श्रुति में समुच्चय स्पष्ट दे दिया वहां तो समुच्चय ही ठीक है जैसे ‘संसव उभे कुर्यात्’ ‘गोसव उभे कुर्यात्’ अर्थात् संसव और गोसव में दोनों कृत्य साथ-साथ होने चाहियें। ‘एकाह’ के सम्बन्ध में कह दिया ‘उभे बृहद्रथन्तरे कुर्यात्’ अर्थात् यहां दोनों सामों का समुच्चय इष्ट है। परन्तु कहीं-कहीं विकल्प के भी उदाहरण है-‘बैल्वो वा खदिरो वा पालाशोऽवाऽन्येषा यज्ञक्रतूनां यूपा भवन्ति’। वाजपेय में कह दिया—‘एतस्य खादिर एव भवति’। (सू० १५) (४) दोषों के निर्घात के लिये जो प्रायश्चित्त किये जाते हैं। उनमें विकल्प होना चाहिये। प्रायश्चित्त दो प्रकार के होते हैं एक तो प्रमाद या भूल के कारण कुछ छूट जाय तो उसको प्रायश्चित्त करके पूरा कर दिया जाता है जैसे यज्ञ में यदि ऋक् सम्बन्धी कोई बात छूट जाय तो गार्हपत्य अग्नि में ‘भू: स्वाहा’ कहकर आहुति देवे, यही प्रायश्चित्त है। यदि यजुसम्बन्धी हो तो आहवनीय में ‘स्व: स्वाहा’ कहकर। यदि यह पता न चले कि कमी कहां रह गई तो आहवनीय में ‘भू: भुव: स्व: स्वाहा’ कहकर। दूसरे दोषों के प्रायश्चित्त यज्ञों का ही अङ्ग होते हैं जैसे प्रधान याग में यदि कोई कमी रह जाय तो एक प्रायश्चित्त करके उस दोष का निवारण हो जाता है। पहले प्रकार के दोषों में यदि कई प्रायश्चित्त दिये हों तो केवल एक से ही काम चल सकता है, समुच्चय नहीं होना चाहिये (सू० १६)। परन्तु जो निमित्त वाले प्रायश्चित्त हैं उनमें समुच्चय होना चाहिये। जैसे ‘यस्याहुतमग्निहोत्रं सूर्योऽभ्युदियान मैत्रं चरुं निर्वपेत् सौय्र्यंहैक-कपालम्। यस्याहुतमग्निहोत्रं सूय्र्योभ्युदियात्, अग्निं समाधाय वाचं यत्वा दम्पती सर्वाहमुपासीयाताम्।’ अर्थात् यदि किसी के अग्निहोत्र करते-करते सूर्य निकल आवे तो मित्र देवता के लिये चरु की आहुति देवे और सूर्य देवता के लिये एक कपाल का पकाया पुरोडाश भी।’ जिसके अग्निहोत्र करते-करते सूर्य निकल आवे तो दम्पती को दिन भर उपवास रखना चाहिये। यहां दोनों प्रायश्चित्तों का समुच्चय होना चाहिये। (सू०१७) (५) कुछ पर्वों के दिन अनाध्याय रहता है। आँधी चले या बिजली गर्जे तो भी अनध्याय रहता है और मन्त्रों का पाठ बन्द रहता है। परन्तु यह नियम पाठशालााओं के हैं, यज्ञ के नहीं। यज्ञ तो पर्वों के दिन होते हैं अत: उनमें मन्त्र पाठ करना दोष नहीं हैं। (सू० १९) (६) मंत्र संहिताओं में वेदमन्त्रों के जो स्वर दिये हैं वे ‘प्रावचन स्वर’ कहलाते हैं। परन्तु ब्राह्मण ग्रन्थों में भाषिक स्वर से पढऩे का विधान है। भाषिक स्वर का लक्षण यह है— छन्दोगा बह्वृचाश्चैव तथा वाजसनेयिन:। उच्चनीच स्वरं प्राहु: स वै भाषिक उच्यते॥ सामवेदी, ऋग्वेदी, यजुर्वेदी ऊंचे, नीचे या उपांशु रीति से जो मंत्र पढ़ते हैं उसको भाषिक स्वर कहते हैं। ब्राह्मण ग्रन्थ में अश्वमेध के सम्बन्ध में एक मंत्र आया है—‘इमामगृभ्णन्’ इत्यादि। इसको भाषिक स्वर में दिया है। इससे कुछ लोगों ने यह धारणा बना ली कि जब ‘जय’ आदि में मन्त्र पढ़ें जायं तो ‘प्रावचन स्वर’ में न पढ़े जायं, भाषिक स्वर में पढऩे चाहियें। आचार्य ने इस धारणा का विरोध किया है। वह कहते हैं कि जय आदि में मंत्र प्रावचन स्वर में ही पढ़े जाने चाहियें। ‘इमामगृभ्णन्’ इत्यादि मंत्र को ब्राह्मण ग्रन्थ में भाषिक स्वर में केवल इसलिये दे दिया कि यह स्वर वहां उस स्थल पर प्रचलित था। ऐसा करना ‘प्रावचन स्वर’ के बाध का सूचक नहीं है (सू० २१)। हां! जो मन्त्र केवल ब्राह्मण ग्रन्थों में ही मिलते हैं और भाषिक स्वर में ही मिलते हैं उनको भाषिक स्वर में ही पढऩा होगा। जैसे ‘तं वै प्रोहद वानस्पत्योऽसि’। (सू० २४) (७) जो मंत्र किसी यज्ञ के कारण हैं उन यज्ञों को तब आरम्भ करना चाहिये जब पूरे मन्त्र का उच्चारण हो सके। (सू० २५) जैसे ‘इषे त्वोर्जे त्वा’ इत्यादि। (८) ‘वसोर्धारा’ यज्ञ में जो ‘वसोर्धारा’ आदि १२ मन्त्र पढ़े जाते हैं उनके पढऩे के उपरान्त ही यज्ञ आरम्भ होना चाहिये (सू० २७)। आघार आदि भी इसी प्रकार। (सू० २८) (९) यदि कई मन्त्र एक ही यज्ञ के कारण हों तो विकल्प से कोई एक मंत्र पढऩा पर्याप्त होगा। समुच्चय का नियम लागू न होगा (सू० २९)। परन्तु जहां संख्या दे दी गई हो जैसे ‘चतुर्भिरादत्ते’=चार मंत्र बोलकर लेता है। ‘द्वाभ्यां खनति’=दो मंत्र पढक़र खोदता है, ‘षड्भिराहरति’ =छ: मन्त्र बोलकर लाता है, वहां सभी मंत्र पढऩे होंगे (सू० ३०)। ब्राह्मण ग्रन्थों में जहां विनियोग में कई मन्त्र दिये हों वहां भी विकल्प ही होना चाहिये। (सू० ३३) (१०) होत्र मंत्रों में समुच्चय होगा क्योंकि ये करण मन्त्र नहीं हैं, अनुवाद मंत्र हैं। जैसे—यूप को खड़ा करने का मन्त्र है ‘उच्छ्रयस्व वनस्पते।’ या यूप को ढकने का मंत्र है ‘युवा सुवासा’ (सू० ३७)। स्पष्ट कहा है—‘त्रि: प्रथमामन्वाह’, ‘त्रिरत्तमामन्वाह’ अर्थात् तीन बार पहला मन्त्र पढ़े, तीन बार पिछलना। यह तो तभी ठीक होगा जब समुच्चय का अभिप्राय हो। (सू० ३८)

A PHP Error was encountered

Severity: Notice

Message: fwrite(): write of 34 bytes failed with errno=122 Disk quota exceeded

Filename: drivers/Session_files_driver.php

Line Number: 263

Backtrace:

A PHP Error was encountered

Severity: Warning

Message: session_write_close(): Failed to write session data using user defined save handler. (session.save_path: /home2/aryamantavya/public_html/darshan/system//cache)

Filename: Unknown

Line Number: 0

Backtrace: