सूत्र :वाविरोधात् ३७
सूत्र संख्या :37
व्याख्याकार : पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय
अर्थ : पाद २ से सूत्र ३८ तक की व्याख्या
(१) गार्हपत्य, दक्षिणाग्नि और आहवनीय अग्नियां विहार अग्नियां कहलाती हैं, इन अग्नियों में केवल यज्ञ सम्बन्धी कर्म ही करने चाहियें। लौकिक कर्म जैसे किसी चीज को पकाना, जलाना आदि कर्म नहीं होने चाहियें। आरम्भ में ही इसको स्पष्टतया घोषित कर दिया जाता है कि ये अग्नियां केवल यज्ञ के उद्देश्य से उत्पन्न की जाती हैं। (सू० ३)
(२) सवनीय पशु के सम्बन्ध में पशुपुरोडाश होना चाहिये। (सू० ९)। परन्तु इसमें हविष्कृत् का आह्वान न होगा (सू० ११)। क्योंकि वह तो वहां रहेंगी ही। बिना आह्वान के वह पशु पुरोडाश का काम भी कर देगी। या पत्नी भी इस काम को कर सकती है। क्योंकि घी निकालना, शाक आदि पकाना, सान्नाय तैयार करना यह सब पत्नी का काम है। तृतीय सवन के पुरोडाश में भी हविष्कृत् का आह्वान नहीं होता। क्योंकि हविष्कृत् तो यज्ञ की समाप्ति तक वहां रहती ही है (सू० १३)।
(३) दर्श के पहले दिन रात्रि को निशियज्ञ होता है। उसमें दर्श-इष्टि के सभी कृत्य प्रसङ्ग रूप में लागू होते हैं। केवल दो चीजें अलग से करनी होंगी, एक तो ईंधन और दूसरी बर्हि। क्योंकि ये दोनों काम दे सकेंगे। दर्श-इष्टि होगी प्रतिपदा को। निशि याग होगा अमावस्या की रात को। अग्नि-अन्वाधान भी अलग करना होगा यदि उसका उद्देश्य देवता का वरण हो, क्योंकि निशियाग का देवता अलग है अर्थात् रक्षोहा। (सू० १८)
(४) प्रकृति यागों के मध्य में विकृति याग आ जाते हैं। प्रकृति यागों के आरम्भ में एक आरम्भणीया इष्टि होती है। यह इष्टि चोदक नियम से विकृति याग में भी प्राप्त है और होनी चाहिये, क्योंकि इसमें प्रसंग नियम लागू नहीं होता। (सू० २१)
(५) जिन प्रधान यागों का अनुष्ठान साथ होता है यदि उनके धर्मों में विरोध हो तो उन्हीं धर्मों का अनुष्ठान होगा जिनका अधिक यागों में सादृश्य होगा। असमान धर्मों को छोड़ देना चाहिये। जैसे, ‘पंच दशरात्र’ याग में ‘अग्निष्टुत्’ नाम का एकाह याग पहला याग है। इसके पीछे एक ‘त्र्यह’ पड़ता है जिसका नाम है ‘ज्योतिर्गौरायु:’। इसके पीछे एकादशाह (११ दिन का) है। यह द्वादशाह नामक प्रकृति याग के विकृति याग हैं। ‘अग्निष्टुत्’ का प्रकृति याग दूसरा है। अत: उसके धर्म भी दूसरे हैं यहां विरोध होने से अनुष्ठान एकादशाह के अनुसार होगा क्योंकि उनकी संख्या बहुत है। अग्निष्टुत् का सुब्रह्मण्य गान आग्नेयी होना चाहिये था परन्तु एकादशाह के अनुसार सुब्रह्मण्य गान ऐन्द्री होगा (सू० २२)। परन्तु यदि विरोधी धर्म वाले प्रधान कर्मों की संख्या बराबर हो तो अनुष्ठान पूर्व-कथित प्रधान धर्मों के अनुसार होगा। जैसे पहले कहा—‘आग्नावैष्णवमेकादशकपालं निर्वपेत्’ फिर कहा—‘अपराह्ने सारस्वतीमथाऽऽज्यस्य यजते’। यहां मुख्य याग आग्नावैष्णव है अत: उसी के अनुसार कार्य होना चाहिये। अर्थात् वेद में उसका पहले वर्णन है (सू० २३)। जब प्रधान के धर्म और अङ्ग के धर्मविरुद्ध हों तो अनुष्ठान प्रधान के अनुकूल होगा (सू० २५)। जैसे ज्योतिष्टोम में एक दक्षिणीय इष्टि होती है और एक सुप्त्या। इन दोनों के धर्म भिन्न है। परन्तु सुत्या प्रधान कर्म है और दीक्षणीय अङ्ग कर्म। अत: यद्यपि दीक्षणीय का कथन पहले हुआ फिर भी सुत्या पहले होनी चाहिये।
(६) चातुर्मास्य पशु याग के प्रकरण में लिखा है ‘परिधौ पशु नियुञ्जीत’ अर्थात् पशु को परिधि में बांधे, परिधि में दोनों धर्म शामिल हैं, परिधि के भी और यूप के भी। क्योंकि परिधि दो काम करती है एक तो अग्नि की रक्षा, दूसरे पशु को भागने नहीं देती। यूप के धर्म थे जौ के पानी से धोना, चुपडऩा और ढकना। परिधि के धर्म हैं ईंधन का ग_र बांधना, जल छिडक़ना ‘जुह्वा वसुरसि’ इत्यादि मंत्र पढक़र चुपडऩा और अभ्याश्रवण (घी डालना) इन दोनों में विरोध नहीं। अत: दोनों ही होने चाहियें (सू० २६)। परन्तु जो धर्म परिधि और यूप के भिन्न-भिन्न हैं, उनमें परिधि के धर्मों का अनुष्ठान होगा यूप के धर्मों का नहीं। जैसे यूप को छीलते हैं। परिधि को छीलना नहीं होगा। क्योंकि यूप का काम तो परिधि को करना है। यूप के धर्मों का बाध हो गया। जैसे अगर कोट पहनने के स्थान में कोई चादर ओढक़र काम निकाल ले तो चादर में कोट के बटन लगाने की आवश्यकता नहीं। (सू० २९)
(७) सवनीय पशु और सवनीय पुरोडाश में मुख्य हैं पशु। अत: उसी के धर्म प्रसंग नियम से पुरोडाश में भी लागू होंगे। (सू० ३२)
(८) जहां प्रकृति और विकृति के तंत्र समान हों वहां विकृति के तन्त्र मानने होंगे। क्योंकि नैमित्तिक इच्छा नित्य की कर्म की इच्छा को बाध लेती है। नित्य चिकीर्षा के होते हुये भी अनित्य चिकीर्षा पीछे से आ जाती है। इसलिये जब तक उस अनित्य चिकीर्षा को पूरा करके हटाया न जाय नित्य चिकीर्षा काम नहीं कर सकती।१
(९) ‘आग्रयण’ याग में केवल प्रसूनमय बर्हि का ही ग्रहण करना चाहिये (सू० ३४)। परन्तु अन्य बातों में तीनों तन्त्रों में से कोई एक तन्त्र लिया जा सकता है ऐन्द्राग्न, वैश्वदेव अथवा द्यावापृथिवी। यद्यपि फूल वाला बर्हि द्यावापृथिवी तन्त्र से सम्बन्ध रखता है। परन्तु यह आवश्यक नहीं कि द्यावापृथिवी के ही तन्त्र का अनुसरण हो, क्योंकि विधि में कोई ऐसा वचन नहीं जो ऐसा नियम करने के लिये बाधित कर सके। (सू० ३७)