योग रहस्य

                       योग रहस्य

– स्वामी वेदानन्द सरस्वती

यस्मिन् सर्वाणि भूतान्यात्मैवाभूत् विजानतः।

तत्र कः मोह कः शोकः एकत्वमनुपश्यतः।।

– यजु. 40.7।।

शदार्थः (यस्मिन्) जिस (विजानतः) ज्ञानी के ज्ञान में (सर्वाणि भूतानि)सभी प्राणी (आत्मा) परमात्मा (एवं) ही (अभूत्) हो गए, ऐसे (एकत्वमनुपश्यतः) एकत्व दर्शी व्यक्ति को (तत्र) वहाँ (कः मोह) किस का मोह और (कः शोकः) किस का शोक रहेगा, अर्थात् वहाँ न मोह रहता है, न ही शोक रहता है |

यह असमप्रज्ञात समाधि अवस्था का चित्रण खींचा गया है, जहाँ योग युक्त आत्मा को सर्वत्र एक ब्रह्म ही नजर आता है। असमप्रज्ञात समाधि में आत्मा रूप को भी विस्मृत कर सर्वत्र एक विभु आत्मा का ही दर्शन करता है। इस अवस्था को पाने के लिये जिज्ञासु जनों के लिये हम एक क्रम का दिग्दर्शन कराते हैं।

  1. योग परिभाषा- ‘योगश्चित्त वृत्ति निरोधः। योगः समाधि।’अर्थात् चित्तवृत्तियों का निरोध कहें या समाधि कहें, वह योग ही है।
  2. समाधि प्राप्ति का फल- (क) इससे साधक का मन पूर्णतया निर्मल और स्थितप्रज्ञता को प्राप्त होता है। (ख) सब कषायों का क्षय हो जाता है। (ग) व्यक्तित्व का पूर्ण विकास होता है। (घ) व्यक्ति को अपार आनंद की अनुभूति होती है। (ङ) मन और इन्द्रियों पर पूर्ण संयम हो जाता है। (च) सुन्दर स्वास्थ्य और कुशाग्र बुद्धि प्राप्त होती है। (छ) प्रसुप्त शक्तियाँ जाग्रत होती हैं। (ज) आत्म साक्षात्कार और प्रभु दर्शन होता है। (झ) मृत्यु विजय की उपलबधि होती है।

समाधि प्राप्ति के लिये प्रक्रियाः

  1. 1. वर्तमान में जीना सीखें। अतीत की स्मृतियों में और भविष्य की कल्पनाओं में समय न खोवें।
  2. 2. जो भी कर्म करें, पूरे मनोयोग से करें। सब काम धर्मानुसार ही करें।
  3. 3. सत्य के ग्रहण करने और असत्य के छोड़ने के लिये सदैव तैयार रहें। प्रमादी न बनें।
  4. 4. शुद्ध सात्विक आहार और मित भाषण करें।
  5. 5. सज्जनों से मैत्री और दुर्जनों से उपेक्षा का भाव रखें।
  6. 6. यम-नियमों का नियमित पालन करें। उससे मन स्वच्छ और स्वस्थ होगा।
  7. 7. योगासनों का नित्य अभयास करें। इससे शरीर स्वस्थ निरोग बनेगा। ध्यान के समय किसी स्थिर आसन पर बैठें जिस आसन पर दो घंटे तक स्थिरता पूर्वक बैठ सकें।
  8. प्राणायाम- स्थिर आसन पर बैठ कर प्राणायाम का अभयास करें। लमबे और गहरे श्वास-प्रश्वास का अभयास करें। प्राणायाम से मन को एकाग्रता मिलती है। शरीर को आरोग्यता प्राप्त होती है।
  9. प्रणव ध्वनि- लमबा गहराश्वास अन्दर लेकर ऊँचे स्वर से ओङ्कार का नाद करें। इस क्रिया को 9 से 11 बार दोहराएँ।

प्रणव ध्वनि के लाभ– 1. आस्तिक भावना की दृढ़ता होती है। 2. इष्ट की स्मृति होती है। 3. तनावों से मुक्ति मिलती है। 4. रोगों का शमन होता है। 5. आनन्द की अनुभूति होती है। 6. मन की एकाग्रता बढ़ती है। 7. बुद्धि की शुद्धि होती है। 8. प्राणशक्ति प्राप्त होती है। 9. स्मरण शक्ति की वृद्धि होती है। 10. नाद से उत्पन्न प्रकपनों से भीतरी अवयवों की मालिश होकर वे स्वास्थ्य लाभ करते हैं। 11. सूक्ष्म उत्तकों तक भी रक्त का संचार सहज गति से होने लगता है।

प्रणव ध्वनि करते समय अपने अन्दर-बाहर शुक्ल वर्ण के परिचक्र की भावना करें।

  1. 10. मन की एकाग्रता को पाने के उपाय-
  2. 1. मन की स्थिरता या एकाग्रता के लिये शरीर की स्थिरता अनिवार्य है। शरीर से जैसे वस्त्र को निकाल अलग कर देते हैं, वैसे ही मन से शरीर को पृथक्देखें। शरीर के थकान रहित, शान्त, स्वस्थ होने की भावना करें।
  3. 2. फिर शरीर के नाड़ीतन्त्र पर ध्यान लगायें। सुषुम्ना के निचले छोर से लेकर ऊर्ध्वगमन करते हुए सहस्रसारचक्र तक ध्यान करें। इससे शरीर की प्राण ऊर्जा ऊर्ध्वगमन करने लगती है, जिसे कुछ लोग कुण्डलिनी जागरण का नाम देते हैं।
  4. 3. प्राणायाम मन की एकाग्रता का एक प्रधान साधन है। विधिवत् रूप से नियमित प्राणायाम का अभयास करें। इस विषय पर विस्तार से जानने के लिये हमारी ‘संध्या से समाधि’ पुस्तक पढ़ें।
  5. 4. शरीर की कोशिकाओं में होने वाले सूक्ष्म प्रकमपनों की भी अनुभूति करें। पैर से लेकर सिर तक ध्यानपूर्वकदेखेंगे तो यह प्रत्यक्ष अनुभव होने लगता है। फिर ब्रह्मरन्ध्र में ध्यान लगाने पर सारे शरीर का स्पंदन एक साथ देखा जा सकता है। इस प्रकार के अभयास से शरीर की रोग प्रतिरोधक शक्ति बढ़ती है।
  6. 5. इससे अगले क्रम में शरीर के अन्दर अन्तःस्रावी और बहिस्रावी ग्रंथियों का भी अवलोकन करें। इन ग्रंथियों में रसायनों का निर्माण होता है। नाड़ीतन्त्र में उन रसायनों का प्रभाव देखा जाता है। इन रसायनों के बदलने से व्यक्ति का स्वभावभी बदल जाता है। हृदयदेश में तथा आज्ञाचक्र में ध्यान केन्द्रित करने से रसायनों के स्राव बदल जाते हैं।
  7. 6. रंगों का ध्यान-मानसिक विचारों के भी अपने रंग होते हैं। जैसे सूरज की रष्मियों के सात रंग इन्द्रधनुष में देखे जाते हैं, वैसे ही मानसिक भावों के कृष्ण, नील, जामुनी, लाल, गुलाबी, शुक्ल और हरा रंग भेद होते हैं। शुभ भावों के रंग पृथक् होते हैं। अशुभ भावों के रंग पृथक्होते हैं। अपने-अपने रंगों के साथ मन के भाव व्यक्ति के समग्र व्यक्तित्व को प्रभावित करते हैं। उज्जवल व्यक्तित्व के निर्माण के अभिलाषी व्यक्ति को शुभ विचारों के शुक्ल रंग का ध्यान करना चाहिए। ओङ्कार के जाप के साथ भी शुक्ल रंग का ध्यान करें।
  8. 7. क्लेशों से मुक्ति-मानसिक भावों के साथ जब राग-द्वेष पैदा हो जाते हैं तो वे ही क्लेशों को जन्म देते हैं। राग-द्वेष पैदा ही न हो इसके लिये आत्मा-परमात्मा का ध्यान करें। चेतन की भावना से राग-द्वेष पैदा नहीं होते।
  9. 8. श्रद्धा- व्यक्ति को अपनी श्रद्धा के अनुसार ही फल मिलता है। ईश्वर की भक्ति श्रद्धापूर्वक ही करें। वेद शास्त्रों, ऋषिमुनियों और गुरुजनों के प्रति की गयी श्रद्धा व्यक्ति को उसके लक्ष्य तक पहुँचा देती है।
  10. आत्म-संयम- आत्मा में परमेश्वर ने अद्भुत शक्तियाँ रखी हैं, किन्तु जनसामान्य उनसे अनभिज्ञ बना रहता है। शक्तियों का जागरण योगाङ्गों के अनुष्ठान से हो जाता है। शक्ति प्राप्त करके भी साधक व्यक्ति मन की धाराओं में नहीं बहता। आत्म-संयम के द्वारा शक्तियों का सदुपयोग ही करता है। शक्तियों का सदुपयोग लक्ष्य-प्राप्ति के लिये ही होना चाहिए।
  11. आत्म-दर्शन- आत्मा ही द्रष्टा, श्रोता, वक्ता, मन्ता और सभी भावों का साक्षी होता है। जब आत्मा स्वयं को भावों से अलग देखने लगता है तो वह उस अभयास से अपने आत्म-स्वरूप में अवस्थित हो जाता है। ‘द्रष्टा शुद्धोऽपि प्रत्ययानुपश्यः।’आत्मा अपने स्वरूप में शुद्ध होते हुए भी बुद्धि के ज्ञान का साक्षी मात्र होता है।
  12. असमप्रज्ञात समाधि- योगाङ्गों के अनुष्ठान से जब बुद्धि में सत्त्व गुण की प्रबलता हो जाती है तो वह राग-द्वेष से ऊपर उठ कर आनन्द की अनुभूति करने लगती है। उसमें स्थैर्य उत्पन्न होता है, जो आत्मा की कैवल्य प्राप्ति में सहायक बनता है। समप्रज्ञात समाधि की अवस्था में आत्मा अपने को मन, बुद्धि, आदि से पृथक् देखने लगता है, किन्तु असमप्रज्ञात् समाधि में अपने स्वरूप को पृथक् नहीं देखता, उसे सर्वत्र एक विभु परमपिता परमेश्वर के ही दर्शन होते हैं। उस अवस्था में द्रष्टा और दृश्य का भेद भी समाप्त हो जाता है। इसी अवस्था का उल्लेख यजु. 40.7 मन्त्र कर रहा है। उस अवस्था में द्वैत कुछ देखने या सुनने के लिये शेष नहीं रह जाता। जिस स्थिति में एकमात्र ब्रह्म रह जाये वहाँ भय, शोक, मोह कैसा?
  13. मुक्तावस्था- जब मन में कोई कामना शेष नहीं रहती, तब सभी राग-द्वेष, मोह, आदि क्लेश समाप्त हो जाते हैं। अन्तःकरण में ज्ञान का प्रकाश हो जाता है। सभी विषयों से पूर्णतया वैराग्य हो जाता है, उस अवस्था में योगी पुरुष जीवन मुक्त होकर जीने लगता है। प्रारबध अभी शेष हैं, उसके अनुसार जीवन की गाड़ी चल रही होती है, किन्तु अपने जीवन से दूसरों को कोई कष्ट न हो तथा दूसरे भी अपनी साधना में बाधक न बन सकें, इसलिये योगी पुरुष घर परिवार से दूर एकान्त स्थान में जाकर रहने लगता है। प्रारबध समाप्ति पर वह आत्मा मुक्त अवस्था को प्राप्त होकर मुक्ति का आनन्द लेती है। यही योग मार्ग की अंतिम मंजिल है। – उत्तरकाशी

5 thoughts on “योग रहस्य”

  1. @Arya

    I am very happy since last two days as I watched Baba Ramdev program on Astha & Sanskar chennel between 8.00 pm to 10.00 in which Baba Ramdev introduced with the Brahmcharies & Brahmcharanis studying in Pantajali Yogpeeth who have memorized in Sanskrit all Yoga Darshna & Sankhya Darshna Sutra with the understanding of meaning. He is preparing the students in large number in Patanjali Yogpeeth who will be scholar of Veda & Darshna. Many Brahmchari among these were MBA, B.Tech. I think this Ramdev Ji greatest job for revival of Vedic culture.

      1. नमस्ते जी

        यदि कोई व्यक्ति बंधन मुक्त होकर कार्य करना चाहता हो जिसका उद्देश्य केवल समाज की सेवा मात्र ही हो वह गृह त्याग आदि करे जिसकी कुछ पारिवारिक जिम्मेदारियां है वह उन्हें निभाता हुआ योग शिक्षक बन सकता है

        बस अंतर यह है की साधक और एक योग अध्यापक का अपना अलग स्तर होता है अब यह सामने वाले पर निर्भर करता है की वह अपना कैसा स्तर चाहता है

        धन्यवाद

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