ऋषिः दीर्घतमाः । देवतां आत्मा । छन्दः अनुष्टुप् । असुर्या, नाम ते लो॒काऽअ॒न्धेन॒ तम॒सावृ॑ताः । ताँस्ते प्रेत्यापि॑िगच्छन्ति ये के चा॑त्म॒हना॒ जना॑ः ॥
I
– यजु० ४० । ३
( असुर्या : १ ) असुरों से प्राप्तव्य ( नाम ) निश्चय ही ( ते लोकाः ) वे लोक हैं, जो ( अन्धेन तमसा ) घोर अन्धकार से ( आवृताः ) आच्छादित हैं । ( तान् ) उन लोकों को (ते ) वे लोग (प्रेत्य ) मर कर ( अपि गच्छन्ति ) प्राप्त होते हैं, ( ये के च ) जो कोई भी ( आत्महन: २ जनाः ) आत्मघाती जन होते हैं ।
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सबसे पूर्व ‘आत्महनः का अर्थ समझ लेना चाहिए । आत्मन्’ शब्द परमेश्वर और जीवात्मा दोनों के लिए प्रयुक्त होता है। परमेश्वर – हन्ता और जीवात्म-हन्ता दोनों ही
आत्महनः’ कहलाते हैं । हत्या तो परमेश्वर और जीवात्मा किसी की भी नहीं होती है, ये दोनों ही अजर-अमर हैं । परमेश्वर – हन्ता वह है, जो परमेश्वर की सत्ता को स्वीकार नहीं करता और यह प्रचार करता है कि परमेश्वर नाम की कोई वस्तु नहीं है, जो मनुष्यों को उनके अच्छे-बुरे कर्मों के फल प्रदान करे; अतः जैसा चाहो आचरण रखो, मारो – काटो, लूटो, दूसरों का धन छीनो, चोरी करो, डाके डालो, ईश्वर है ही नहीं तो बुरा फल क्या देगा । इसी प्रकार जो जीवात्मा की सत्ता से इन्कार करते हैं, वे जीवात्म-हन्ता हैं । वे कहते हैं जब तक जियो, सुख से जियो, कर्ज ले-लेकर घी पियो, मेवे खाओ, शरीर के मरने के बाद जीवात्मा नाम की कोई वस्तु नहीं है, जो कर्मफल प्राप्त करे। ये परमेश्वर – हन्ता और जीवात्म- हन्ता दोनों ही समाज में अनाचार, कदाचार, व्यभिचार फैला कर समाज को दूषित करते हैं, परिणामतः उन लोकों या योनियों में जाते हैं, जिनमें असुर लोग पहुँचते हैं और जो घोर अन्धकार से घिरी होती हैं । ‘सु-र’ का अर्थ होता है शुभ कर्म करनेवाले। उससे विपरीत ‘असुर’ होते हैं, अर्थात् अशुभ कर्म करनेवाले । वे पशु-पक्षी – कीट-पतङ्ग – सरीसृप आदि की योनियों में जन्म लेते हैं । वे योनियाँ अन्धकार से आवृत होती हैं, इसका तात्पर्य यह है कि उन योनियों मन, बुद्धि आदि कार्य नहीं करते। उन योनियों में जिनका जन्म होता है, वे खाने-पीने आदि की साधारण क्रियाएँ ही करते हैं, जैसे मनुष्य सोच-विचार कर, बुद्धि का प्रयोग करके नवीन नवीन ज्ञान प्राप्त करता है, नये-नये आविष्कार करता है, वैसा वे कुछ नहीं कर सकते ।
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अतः हमें चाहिए कि हम ‘आत्मघाती’ न बनें, परमेश्वर और जीवात्मा दोनों की सत्ता स्वीकार करते हुए शुभ कर्म ही करें, जिससे हमें उन्नति करने के लिए पुनः मनुष्य- योनि प्राप्त हो और उसमें निष्काम कर्म करते हुए हम दुःखों से मुक्ति भी प्राप्त कर सकें ।
पाद-टिप्पणियाँ
१. सुराः शुभकर्मरता:, तद्विपरीता असुराः । असुराणाम् इमे असुर्याः असुरैः
प्राप्तव्या: ।
२. आत्मानं परमेश्वरं जीवात्मानं वा ध्वन्तीति आत्महनः ।