बीसवीं शताज़्दी के पहले दशक की बात है। अद्वितीय
शास्त्रार्थमहारथी पण्डित श्री गणपतिजी शर्मा की पत्नी का निधन
हो गया। तब वे आर्य प्रतिनिधि सभा पंजाब के उपदेशक थे।
आपकी पत्नी के निधन को अभी एक ही सप्ताह बीता था कि आप
कुरुक्षेत्र के मेला सूर्याग्रहण पर वैदिक धर्म के प्रचारार्थ पहुँच गये।
सभी को यह देखकर बड़ा अचज़्भा हुआ कि यह विद्वान् भी
कितना मनोबल व धर्मबल रखता है। इसकी कैसी अनूठी लगन
है। उस मेले पर ईसाई मिशन व अन्य भी कई मिशनों के प्रचारशिविर
लगे थे, परन्तु तत्कालीन पत्रों में मेले का जो वृज़ान्त छपा
उसमें आर्यसमाज के प्रचार-शिविर की बड़ी प्रशंसा थी। प्रयाग के
अंग्रेजी पत्र पायनीयर में एक विदेशी ने लिखा था कि
आर्यसमाज का प्रचार-शिविर लोगों के लिए विशेष आकर्षण
रखता था और आर्यों को वहाँ विशेष सफलता प्राप्त हुई।
आर्यसमाज के प्रभाव व सफलता का मुज़्य कारण ऐसे गुणी
विद्वानों का धर्मानुराग व वेद के ऊँचे सिद्धान्त ही तो थे।
यह घटना पहले भी पढ़ी थी। पंडित गणपति शर्मा जी पर एक लेख भी लिखा था। पंडित जी का पूरा जीवन आदर्शों से भरा हुआ है। वह महर्षि दयानंद जी के प्रमुख अनुयायियों में से एक थे। हो सकता है मैं भी एक दो दिन में उन पर एक लेख लिखूं। प्राध्यापक श्री जिज्ञासु जी को इस संछिप्त लेख के लिए धन्यवाद।