प्राचीन काल में यज्ञ में पशु बलि विचारधारा को पोषित करते स्वामी विवेकानंद और सत्य
ऋष्व आर्य
स्वामी विवेकानंद ने विवेकानंद ने यज्ञ का अर्थ बलिदान से (Sacrifice ) से लिया है . यज्ञ का अर्थ बलिदान कैसे हो गया और वो भी पशु हत्या का ये कहीं स्वामी जी ने स्पस्ट नहीं किया।यज्ञ शब्द यज धातु से निकला है जिसका अर्थ देवपूजा संगतिकरण और दान है। स्वामी विवेकानंद द्वारा यज्ञ का अर्थ बलिदान स्वामी विवेकानंद ने मैक्स मूलर से ही लिया है और ये वाम मार्ग से प्रभावित भी हो सकता है क्यूंकि कहीं कहीं स्वामी विवेकानंद के सन्दर्भ में कहीं कहीं पशु बलि के सन्दर्भ भी मिलते हें।
There was a time in this very India when, without eating beef, no Brahmin could remain a Brahmin; you read in the Vedas how, when a Sannyasin, a king, or a great man came into a house, the best bullock was killed
Swami Vivekanand
इसी भारत में कभी ऐसा भी समय था जब कोई ब्राहमण बिना गौ मांस खाए ब्राहमण नहीं रह पाता था। वेद पड़कर देखो कि किस तरह जब कोई सन्यासी या राजा या बड़ा आदमी मकान में आता था तब सबसे पुष्ट बैल मारा जाता था
– CW , Vol – 3- Pg 174 (check for Hindi – Vol 5 Pg 70)
स्फुट विचार (1892-93 ईस्वी में मद्रास में संग्रहित )
Indra the thunderer, striking the serpent who has withheld the rains from mankind. Then he lets fly his thunderbolt, the serpent is killed, and rain comes down in showers. The people are pleased, and they worship Indra with oblations. They make a sacrificial pyre, kill some animals, roast their flesh upon spits, and offer that meat to Indra.
– CW , Vol – 1- Pg 344 (check for Hindi – Vol 1Pg 240)
वज्र धारी इन्द्र मनुष्य लोक में वर्षा को रोकने वाली सर्प पर वज्र का आघात करते दीखते हैं। वे अपने वज्र को फेकते हें,सर्प मर जाता है और वर्षा की छड़ी लग जाती है। लोगों में प्रसन्नता छा जाती है और वे यज्ञ की पूजा करते हैं वो यज्ञ वेदी बनाते है, पशु की बली देकर उसके पके मांस का नैवेद्य इस्द्र को अर्पन करते हैं।
विवेकानंद साहित्य भाग -1, पृष्ठ 288
Hindi Page – 68 vol -2
वैदिक अश्वमेध यज्ञ अनुष्ठान की ओर ध्यान दो – तदनंतरम महिशीम अश्वसन्निधौ पातयेत – आदि वाक्य देखने को मिलेंगे। होता, ब्रह्मा उद्गाता इत्यादी नशे में चूर होकर कितना घृणित आचरण करते थे। अच्छा हुआ की जानकी के वें गमन के बाद राम ने अकेले ही अश्वमेध यज्ञकिया , इससे चित्त को बड़ी शांती मिली।
1895 में स्वामी ब्रह्मानंद को लिखा पत्र
विवेकानंद साहित्य भाग -4, पृष्ठ 305
शाश्त्र वादियों में महा गोलमाल है। शाश्त्र में एक पर कहा है कि हत्या करो . हिन्दुओं का सिध्धांत है की यज्ञ स्थल को छोड़कर किसी स्थान पर जीव हत्या करना पाप है। यज्ञ करके आनंदपूर्वक मांस भोजन किया जा सकता है।
विवेकानंद साहित्य भाग -10, पृष्ठ 74
At a still later period the meaning of the hymns showed that many of them could not be of divine origin, because they inculcated upon mankind performance of various unholy acts, such as torturing animals, and we can also find many ridiculous stories in the Vedas.
– CW , Vol – 5- Pg 95 (check for Hindi – Vol 4 – 247)
वैदिक मन्त्रों के अर्थों से यह पता चला के वे दैवी रचना हो ही नहीं सकते क्योकि वे मनुष्य को पशुओं को कष्ट देंते के सामान अनेक अपवित्र काम करने को कहते हें। इसके अतिरिक्त हम वेदों में बहुत सी हास्यास्पद कथाएं पाते हें।
We must also remember that in every little village-god and every little superstition custom is that which we are accustomed to call our religious faith. But local customs are infinite and contradictory. Which are we to obey, and which not to obey? The Brâhmin of Southern India, for instance, would shrink in horror at the sight of another Brahmin eating meat; a Brahmin in the North thinks it a most glorious and holy thing to do — he kills goats by the hundred in sacrifice.CW , Vol – 3- Pg 172 – 173 (check for Hindi – Vol 5 Pg 69)
हमें ये भी स्मरण रखना चाहिए की हम प्राय जिन्हें हम अपना धर्म विश्वास कहते हैं वे हमारे छोटे छोटे ग्राम देवताओं पर आधारित या ऐसे ही कुसंकारों से पूर्ण लोकाचार मात्र हें। ऐसे लोकाचार असंक्य हैं और एक दुसरे के विरोधी हैं। इनमें से हम किसे माने और किसे न माने? उदहारण के लिए यदि दक्षिण का ब्राहमण किसी और ब्राहमण को मांस काटे हुए देखे तो भय से आतंकित हो जाता है परन्तु उत्तर भारत के ब्राहमण इसे अत्यंत पवित्र और गौरवशाली कृत्या समझते हैं पूजा के निमित्त वो सैकड़ों बकरों की बली चड़ा देते हैं।
Upanishads condemn all rituals, especially those that involve the killing of animals. They declare those all nonsense
– CW , Vol – 1- Pg 452 (check for Hindi – Vol 7 Pg 288)
उपनिषदों द्वारा सभी अनुष्ठानों की निंदा विशेषकर उनकी जिनमें पशुओं का वध किया जाता है। वे उन सबसे अनर्गल घोषित करते हैं।
प्राचीन देवताओं में चंचल लड़ाकू शराबी गौ मांसहारी देवताओं में जिनको जले हुए मांस की गंध और तीव्र सुरा की आहुती ही से परम आनंद मिलता था – कुछ असंगति देखने लगे। कभी कभी इंद्र इतना मद्य पान कर लेता था की वह बेहोश होकर गिर् पड़ता था और अंड बंड बकने लगता था
The old gods were found to be incongruous — these boisterous, fighting, drinking, beef-eating gods of the ancients — whose delight was in the smell of burning flesh and libations of strong liquor. Sometimes Indra drank so much that he fell upon the ground and talked unintelligibly. These gods could no longer be tolerated.
– CW , Vol – 2- Pg 109- 110 (check for Hindi – Vol 2 Pg 64)
स्वामी दयानंद यज्ञ का अर्थ करते हुए लिखते हैं की यज्ञ उसको कहते हैं कि जिसमें विद्वानों का सत्कार यथायोग्य शिल्प अर्थात रसायन जो की पदार्थ विद्या उससे उपयोग और विद्यादि शुभ गुणों का दान, अग्निहोत्र आदि जिन से वायु वृष्टि जल औषधि की पवित्रता जीवों को उस को उत्तम समझता हूँ
स्वमंत्व्यामंतव्यप्रकाशः पृष्ट 733
वेदों में हिंसा ना होने का प्रत्यक्ष प्रणाम तो रामायण में देखने को मिलता है। यज्ञ में का तो यज्ञ को नष्ट करने के लिए होता था और राक्षस ऋषियों को प्रताड़ित करने के लिए यह कार्य किया करते थे। यही वह कारण था जिसकी वजह से विश्वामित्र को राजा दशरथ के पास राम और लक्ष्मण को मांगने के लिए जाना पड़ा
महाभारत काल में भी यदि दृष्टी डालें तो भी यज्ञ में मांस का प्रयोग दिखाई नहीं देता है। बल्कि परोपकार धर्म के लक्षण ही जगह जगह दिखाई देते हैं। युदिष्ठिर को धर्म के लक्षण बताते हुए व्यासदेव कहते हें कि मनुष्य जिसे अपने प्रतिकूल समझे वैसा आचरण किसी के प्रति न करे।
श्रुयातम धर्म सर्वस्वं श्रुत्वा चैवावधार्यताम
आत्मनः प्रतिकुलानी परेशां न समाचरेत
सर्वत्र प्रतिष्ठित इस इस तत्व की व्याख्या करते हुए व्यास जी कहते हैं की ” मनुष्य ऐसा व्यवहार औरों के साथ न करे जो स्वयं अपने को प्रतिकूल या दुखद जान पड़े। यही सब धर्म और नीतियों का सार है।
न तत्परस्य सन्द्ध्यात प्रतिकुलम यदात्मनह
अश संक्षेपतो धर्मः कामदन्य: प्रवर्तते। . महाभारत अनुशाशन पर्व
जब परोपकार को ही धर्म माना गया है तो फिर किसी के प्राण लेना कैसे धर्म हो सकता है और यज्ञ तो धर्म का ही अभिन्न अङ्ग है उसे तो फिर ऐसे घृणित कर्म से जोड़कर देखा ही नहीं जा सकता। जब तात्कालिक हमें दूसरों के साथ वैसा ही व्यवहार करने का देते हैं जो हमें खुद अपने लिए प्रिय हो तो फिर किसी की जान लेने की तो कल्पना भी नहीं की जा सकती
मानवमात्र के लिए कानून के रचियता महर्षि मनु ने मासाहार के सम्बन्ध में एक नहीं आठ प्रकार के पाप एवं दोशारोपियो का वर्णन किया है –
अनुमन्ता विशसिता निहन्ता क्रय विक्रयी
संस्कर्ता चोपहर्ता च खादकश्चेति घटका मनुस्मृति 5/51
अर्थात मांसाहार की अनुमति देने वाला खरीदने व बेचने वाला मांस काटने वाला पशु मारने वाला पकाने परोसने वा खाने वाला ये आठ घोर पापी हैं। ऐसा प्रतीत होता है की स्वामी विवेकानंद ने महर्षि मनु के ये श्लोक पड़े नहीं थे। जो मांसाहार के बारे में इतनी विस्तृत व्याख्या करने वाले महर्षी मनु पर मांसाहार का आरोप लगना महर्षी की छवि पर कुठाराघात का एक असफल प्रयास ही है।
महर्षि मनु ने मांस को वर्जित किया है –
वर्जयेन्मधु मासं। मनु 6/14
ना कृत्वा प्राणिनां हिंसा मान्स्मुत्पध्यते क्वचित
न च प्रानिवध: स्वर्ग्यस्तस्मान्मांसम विवर्जयेत मनु 5/48
प्राणियों की हिंसा किये बिना कभी मांस प्राप्त नहीं होता और जीवों की हत्या करना सुखदायक नहीं है इस कारण मांस नहीं खाना चाहिए
यो बंधन वध्क्लेशान प्राणिनाम न चिकीर्षति
स सर्वस्य हित्प्रेप्शु: सुख मत्यंत मंश्रुते मनु 5/46
जो व्यक्ति प्राणियों को बंधन में डालने वध करने उनको पीड़ा पहुंचाने की इच्छा नहीं करता वह सब प्राणियों का हितैषी बहुत अधिक सुख को प्राप्त करता है
समुत्पत्ति च मांसस्य वध्बन्धौ च देहिनात
प्रसमीक्ष्य निवर्तेत सर्व मांसस्य भक्षणात मनु 4/49
मांस की उत्पत्ति जैसे होती है असको प्राणियों की हत्या और बंधन के कष्टों को देखकर सब प्रकार के मांस भक्षण से दूर रहे
यो हिन्सकानि भूतानि हिन्सत्यात्म्सुखेच्या
स जीवंश्च मृतश्चैव न क्वाचित्मेधते मनु 5/45
जो मनुष्य अपने सुख के लिए अहिंसक प्राणियों की ह्त्या करता है वह न इस जीवन में सुख पाता है न जीवांतर में
वैदिक शरीर विज्ञान आयुर्वैदिक से कम पूर्ण न था . अवयवों के विविध भागों के बहुत से नाम थे, क्योंकि उन्हें यज्ञ के पशुओं को काटना पड़ता था .
यजुर्वेद को कर्मकांड का वेद माना जाता है उसके प्रथम मंत्र में ही पशुओं अहिंसा की कामना है – यजमानस्य पशुन पाहि ( यजुर्वेद 1/1) अर्थात यज्ञ करने वाले के पशुओं की रक्षा कीजिये।
मांसाहारियों को यज्ञ करने का अधिकार नहीं
यज्ञ में मांस की बली तो दूर की बात है वेद तो मांसाहारी को यज्ञ करने के अधिकार से भी वंचित कर देते हैं। यज्ञ करने का अधिकार केवल शाकाहारी जीवों के लिए ही है।
उर्जाद: उत यज्ञियास: पांचजना : मम होत्रम जुषध्वम। ऋग्वेद 10/53/4
अर्थात केवल अन्नाहारी (मांसाहारी नहीं ) और यज्ञीय प्रवृती के व्यक्ती यज्ञ का संपादन करें
वेदों में स्पष्ट उल्लेख हिया की मांस जलाने वाली अग्नि यज्ञों में प्रयुक्त न होने पावे। मांस जलाने वाली अग्नि बहुत करके चिताग्नि ही होती है . जब वेदों में चिता की अग्नि तक को यज्ञों में लाने का निषेध है तब मनुष्य मांस अथवा पशु मांस से यज्ञ करने की आज्ञा कैसे हो सकती है:-
क्रव्यादमग्निम पर हिनोमि दुरम यमराग्यो गच्छतु रिप्रवाह
इहैवायमितरो जातवेदा देवेभ्यो हव्यं वहतु प्रजानन। ऋग्वेद 10/16/9
यो अग्नि: क्रव्यात प्रविवेश नो गृहमिमं पश्यन्नितरम जातवेदसम
तम हरामी पित्रय्ग्याय दूरं स धर्म मिन्धाम परमे सधस्थे। अथर्ववेद 12/2/7
अर्थात में मास खाने वाली अग्नि को दूर करता हूँ। वह पाप धोने वाली है, इसलिए वह यमराज के घर जावे। यहाँ दुसरी ही अग्नि को सबकी जानी हुयी और डिवॉन के लिए हावी धोने वाली है उसे रखता हूँ। जो मांस भक्षक अग्नि तुम लोगों के घरों मिएन प्रवेश करती है उसको पितृ यज्ञ के लिए दूर करता हूँ। तुम्हारे घरों में दूसरी ही अग्नी को देखना चाहता हूँ वही उत्तम स्थानों में धर्म को प्राप्त हो (वैदिक संपत्ति पृष्ठ 517)
वेदों में कहीं पर बहे पशुओं को मारने की आज्ञा नहीं है अपितु पशुओं के संरक्षण का ही उपदेश मिलता है
यज्ञ में प्रयुक्त सामग्री
महर्षी दयानंद सरस्वती वेद मंत्र ( समिधाग्नि दुवस्यत घ्रितैबोर्धयथातिथिम आस्मिन हव्या जुहोतन। यजुर्वेद 3 अध्याय मंडल 1) का प्रमाण देते हुए लिखते हें की हे मनुष्यों तुम लोग वायु औषधी और वर्षा जल की शुद्धी से सबके उपकार के अर्थ घ्रितादि शुध्द वस्तुओं और समिधा अर्थात आम्र व ढाक आदि काष्ठों से अतिथिरूप अग्नि को नित्य प्रकाशमान करो। फिर उस अग्नि में होम करने के योग्य पुष्ट मधुर सुगन्धित अर्थात दुग्ध घृत शर्करा गुड केशर कस्तुरी आदि और रोगनाशक जो सोमलता आदि सब प्रकार से शुद्ध द्रव्य हैं उनका अच्छी प्रकार नित्य अग्निहोत्र करके सबका उपकार करो ( रिग्वेदादिभाष्य भूमिका पृष्ठ – 193)
सुस्मिध्द्हाय शोचिसे घृतं तीव्रं जुहोतन अग्नये जातवेदसे
खूब अच्छी प्रकार प्रदीप्त प्रकाशमान ज्वालामय अन्यों के दोष निवारण में समर्थ पत्येक पदार्थ में व्यापक प्रज्ञावान ऐस्वर्यवान अग्नि परमेश्वर विद्वान् एवं राजा में अतितीव्र दोष निवारक ( घृतं ) आज्य जल और उपायन एवं बल दायक या जयप्रद पदार्थ सब प्रकार से प्रदान करो – यजुर्वेद 3/2
तंत्वा समिदिभिरंगिनो ग्रितें वर्धयामसि
ब्रिहच्चोया यविष्ठ्य
हे अग्ने अंगिरह व्यापक ज्ञानवान प्रकाशक तुझे उस परम प्रसिध्ध परम उच्च परमेश्वर को उत्तम प्रदीप्त प्रकाशित होने के साधन योग आदि द्वारा और आत्मा के प्रकाशक तेज और ताप द्वारा बढ़ाते हें। हे युवतम सदा सर्वशक्तिमान संसार के समस्त पदार्थों के संयोग विभाग करने में अनुपम बतलावे महान होकर खूब प्रकाशित हो। अग्नि पक्ष में – हे प्रकाशक अग्ने तुझे समिधा और घृत से बढ़ावें और तू पदार्थों के विभाजक बल से खूब प्रकाशित हो
यजुर्वेद 3/3
ॐ सुसमिद्धाय अग्नि दुवस्त्य घ्रितैबोर्थ्द्याथातिथिम आस्मिन हवय जुहोतन: यजुर्वेद 3/1
प्रतीप्त करने के साधन काष्ठ से जिस प्रकार अग्नि को तृप्त किया जाता है उसी प्रकार अच्छी प्रकार तेजस्वी बनाने के साधन से अग्नि आत्मा गुरु परमेश्वर की उपासना करो और सर्वव्यापक अतिथि के समान पूजनीय उसको अग्नि को जिस प्रकार क्षरणशील पुष्टिकारक घृत आदि पदार्थों से जगाया जाता है उसी प्रकार उद्वॆपन करने वाले तेज प्रद साधनों के अनुष्ठानो से उसको जगाओ और कर्मों को और कर्मफलों को आहुति के रूप में निरंतर त्याग करो
भौतिक अग्नि में – हे पुरुषो काष्ठ से उसकी सेवा करो घृत आहुतियों से उसको चेतन करो और उस्मिएन चरु पुरौडाश आदि आहुतिरूप में दो। इसी प्रकार यन्त्र कला आदि में भी अग्नी के उद्द्वीपक पदार्थों से अग्नि को जलाकर जालों द्वारा उसकी शक्ती को और भी चैतन्य करके उसे यंत्रादी में आधान करे
यज्ञ में पशु रक्षा का उपदेश
यदि नो गां हन्सि यद्यश्वम यदि पुरुषम
तं त्वा सीसेन विध्यामो यथा नो सो अवीरहा
अथर्वेद प्रथमं काण्डम अध्याय 16 मंत्र 4 पृष्ठ – 109 SC (i)
यदि हे राक्षस शत्रु पुरुष तू हमारी गौ को मारे और यदि अश्व को मारे और यदि पुरुष आदमी को मारे उस हत्यारे को सीसे की गोली से ही वेध डालें जिससे तू हमारे वीर पुरुषों को न मर सकें
यथा मांसं यथा सुरा यथाक्षा अधिदेवने
यथा पुंसो वृपंयत स्त्रियाम नि हन्यते मनः
एवा ते अघन्ये मनोधि वत्से न हन्यताम
अथर्वेद षष्ठम काण्डम अध्याय 70 मंत्र 1 पृष्ठ – 169 SC (ii)
वेद मंत्र गौ को अघन्ये अर्थात कभी ना मरने योग्य की संज्ञा देता है
व्रीहिमत्तम यवमत्तम्थो मापमथो तिलम
ऐश वो भागो निहितो रत्नधेयाय दांतों मा हिसिश्ठं पितरे मातरे च
बालक को अन्नप्राशन कराने का उपदेश – हे बालक के प्रथम उत्त्पन्न दांतों तुम भात खाओ जौ खाओ और माप उड़द की दाल और तिल खाओ
अथर्वेद षष्ठम काण्डम अध्याय 140 मंत्र 2 पृष्ठ – 306 SC (ii)
स्वस्ति मात्र उत पित्रे नो अस्तु स्वस्ति गोभ्यो जगते पुरुषेभ्य:
विश्व सुभूत सुविदत्रं नो अस्तु ज्योगेव द्रिशेम सूर्यम
हमारी माता को सुख हो और पिता को सुख हो गौओं और जगत के हितकारी पुरुषों सम जीवों के लिये सुख और शांती प्राप्त हो। समस्त संसार सब मिलकर हमारे लिए सुखयुक्त उत्तम पदर्थों से सम्पन्न उत्तम ज्ञानों से सम्पक्ष हों और हम चिर काल तक अपनी चक्षुओं से सूर्य और ज्ञान के प्रकाशक परमेश्वर का दर्शन करें
अथर्वेद प्रथमं काण्डम अध्याय 31 मंत्र 4 पृष्ठ – 149 SC (i)
यस्तु सर्वाणि भूतानि आत्मनि एव अनुपश्यति
सर्वभूतेषु चात्मानं ततो ना विचिकित्सति
जो विद्वान जन सब प्राणियों को अपने आत्मा में और अपने आत्मा को सब प्राणियों में देखता है वह किसी से घृणा व किसी की निंदा नहीं करता है। – check for the mantra no in yajurveda
इन्द्रो विश्वस्य राजति शन्नो अस्तु द्विपदे शं चतुष्पदे
ऐश्वर्यवान परमेश्वर समस्त संसार के बीच प्रकाशमान है इसी प्रकार राजा समस्त राष्ट्र में तेजस्वी होकर विराजे। वह हमारे दौपाये मनुष्य भृत्य आदि और चौपाये पशुओं के लिए भी सुखदाई और कल्याणकारी हो
यजुर्वेद अद्याय 36 श्लोक 8
इते अहम् मा मित्रस्य मा चक्षुषा सर्वानी भूतानि समीक्षन्ताम मित्रस्याह्म चक्षुपा सर्वाणि भूतानि समीक्षे। मित्रस्य चक्षुपा समीक्षामहे।
हे समस्त दुखोँ और अज्ञानों के विदारक परमेश्वर मुझे दृद कर मुझको समस्त प्राणी गण मित्र की आँख से देखें और में भी समस्त प्राणियों को मित्र की आँख से देखूं। हम सब एक दुसरे को मित्र की आँख से एक दुसरे को भली प्रकार देखा करें
अथर्वेद अध्याय 36 मंत्र 18 पृष्ठ – 701 SC (ii)
अजस्त्रमिन्दुमरुषम भुरंद्युमाग्निमीदे पुर्वचित्तम नमोभि
स पर्वमि रितुशः कल्प्मानो गाम मा हि सीरदिति विराजिम
यजुर्वेद अध्याय 13 मंत्र 43 पृष्ठ 606 SC S SC (i)
अहिंसक और अविनाषी ऐश्वर्यवान जल के सामान शीतल और शुध्ध रोष रहित सब के पोषक पूर्ण ज्ञानवान शानवान परमेश्वर या राजा को में नमस्कारों द्वारा में स्तुति करता हूँ अन्नों द्वारा पूर्व ही संग्रह करने वाले धनाड्य पुरुष को में प्राप्त करूँ। वह तू पालनकारी सामर्थ्यों से सुर्य जिस प्रकार अपने ऋतु से सबको चलाता है उसी प्रकार राज अपने राज सभा के सदस्यों से सामर्थ्यवान होता है। वह तू विविध पदार्थों गुणों से प्रकाशित गौ और पृथ्वी को मत विनष्ट कर
इमं मा हिंसीद्विर्पाद पशुं सहस्त्राक्षओ मेधाय चीयमान
मयम पशुम मेधमग्ने जुशस्व तेन चिन्वानस्तंवो निषीद
मयुम ते शुग्रिच्चतु यम द्विश्मतम ते शुग्रिच्चतु
यजुर्वेद अध्याय 13 मंत्र 47 पृष्ठ 608
हे राजन हे पुरुष सुख प्राप्त करने के लिए निरंतर बढता हुआइस दोपाये पुरुष और उसके सहयोगी चौपाये पशु को भी मत नाश कर मत मार। हे ज्ञानवान नेतः तू पवित्र अन्न उत्पन्न करने वाले जंगली पशु को भी प्रेम कर उसकी वृध्धी चाह और उससे भी अपनी सम्पत्ती को बढ़ाता हुआ अपने शरीर के बीच में हष्ट रह .तेरा संताप्कारी क्रोध वा तेरी पीड़ा भी हिंसक जंगली पशु को प्राप्त हो और जिससे हम प्रेम नहीं करते उसको तेरी संताप्कारी क्रोध और पीड़ा प्राप्त हो
इमं माहिन्सीरेकशफ़म पशम कनिक्रदम वाजिनम वाजिनेशु
गौरमारन्यमनु ते दिशाशी तेन चिन्वान्स्तान्यो निषीद
यजुर्वेद अध्याय 13 मंत्र 48 पृष्ठ 609
हे पुरुष इस हर्ष से ध्वनि करने या हिनहिनाने वाले या सब प्रकार के कष्ट सहने में समर्थ एक खुर के वेगवान वा संग्रामपयोगी पशुओं के बीच सबसे अधिक वेगवान अश्व गधे खच्चर आदि पशु को मत को मत मार जंगल के गौर नामक बारह सिंघे को लक्ष्य करके में तुम्हें ये उपदेश करता हूँ की उसकी वृध्धी से भी तू अपनी वृध्धी करता हुआ अपने शरीर की रक्षा कर
यः पौरुश्पयेन क्रविपा समंगते यो अश्वेन पशुना यातुधाना:
यो अघन्याया भारती क्षीर्मगने तेषाम शीर्शानी हरसापी वृश्च
ऋग्वेद मण्डल 10 अध्याय 87 मंत्र 16 पृष्ठ 348 SC Vol -7
जो अन्य को पीड़ा देने वाला होकर अर्थात अन्य को पीड़ा देकर अपने को मनुष्य उपयोगी अन्न आदि साधनों से सजाता हिया और जो अन्य को पीड़ा देकर स्वयं घोड़े के समान वेग से जाने वाले पशु से अपने को चमकाता है जो दुसरे को पीड़ा देकर गौ का दुःख लेता है हे ज्ञान और तेज के प्रकाशक तू ऐसे ऐसे दुष्टों के सिरों को तेज शंस्त्रों से काट डाल
एततवै विश्व रूपं गोरुपम
यह ही विश्व रूप परमात्मा का विराट रूप है वह ही सर्वरूप गौ का रूप है जिसका इस प्रकार वर्नन किया जाता है
नवम कांड सूक्त 9 मंत्र 26 SC (ii)
यज्ञ में पशु हत्या का दंड विधान
यम ते चकु: क्रिक्वाकावजे वा या कुरीरिणी
अव्याम ते कृत्यं या – अथर्वेद 5/31/2
जिस घटक प्रयोग को वे नीच पुरुष तीतर बकरे और चील पर और जिस करतूत को वे भेद पर करते हैं उस करतूत से फिर उनको दण्डित करूँ।
याम ते चकरेकशफ़े पशुनमुभयादति
गर्दभे क्रितायाम याम – अथर्वेद 5/31/3
जिस हिंसा कार्य को वे एक खुर वाले पशु पर या गधे की जाती के पशु पर जिस हिंसा को दोनों जबाडों में दांत वाले गाय व भेंस आदि पशुओं पर करते हैं वही हत्या का दंड उन्हें में पुनः दूँ
उपाव्सृज त्मन्या समंजन देवानां पाथ रितुथा हवीषि
वनस्पति: शमिता देवो अग्नि: स्वदन्तु हव्यं मधुना घ्रितेन – अथर्वेद 5/12/10 SC -(1) page 609
हे होतः आत्मन तू प्रति ऋतू के अनुसार देवों इन्द्रियों के निमित्त अन्न भोग्य विषय और ज्ञानों को स्वयं प्रगट करता हुआ उनको प्रदान कर। वन इन्द्रियों का स्वामी जितेन्द्रिय शाम दामादी से युक्त विद्वान् योदी और ज्ञानी पुरुष ये तीनों तेजोमय प्रदीप्त ज्योति और मधुर आनंद रस के साथ ज्ञान का आस्वाद ग्रहण करें। यज्ञ पक्ष में – होता ऋतुओं के अनुसार सामग्री चारू आदि हवी तैयार करे और उसको अग्नि में वनस्पति में जीवो में भे वितरित करे
उपर्युक्त विवेचन जो प्रदर्शित करता है कि यज्ञ एक सामाजिक कल्याण की विषय वस्तु है न कि किसी जीव के प्राण हरण के लिए प्रयोग में लाया जाने वाला साधन। प्राचीन ऐतिहासिक तथ्य चाहे वो रामायण काल के हों या महाभारत के समय के इस विचार धारा को ही पोषित करते हैं कि यज्ञ जीवों के कल्याण के लिए ही किये जाते रहे हैं न कि जीवों की हत्या के लिए. यदि कुछ व्यक्ति विशेष या सम्प्रदाय यज्ञ में इस दुष्कर्म को करने लगें तो उसके दोषी वह व्यक्ति या संप्रदाय विशेष हैं न कि इसके लिए यज्ञ जैसी कल्याणकारी कार्य को ही दोषी घोषित करके उसे तिलांजलि दे दी जाये। स्वामी विवेकानंद जी का यह कथन कि प्राचीन काल में यज्ञों में मांस का प्रयोग होता है निराधार ही है।