लेखक – स्वामी ओमानंदजी सरस्वती
वेद में मांस भक्षण निषेध
वैसे तो मानने को वेद, धम्मपद, तौरेत, जबूर, इञ्जील, बाईबल और कुरान सभी धार्मिक ग्रन्थ माने जाते हैं । किन्तु वेद को छोड़कर सब अन्य ग्रन्थ भिन्न-भिन्न मत और सम्प्रदायों के हैं । इन सम्प्रदायों के पुराने से पुराने ग्रन्थ महाभारत काल से पीछे के ही हैं । इन की आयु चार हजार वर्ष से अधिक किसी की भी नहीं है । यथार्थ में ये ग्रन्थ धार्मिक ग्रन्थ की कोटि में नहीं आते । इनको किसी सम्प्रदाय विशेष का ग्रन्थ कहा जा सकता है, फिर भी इनके इन सम्प्रदायों में से भी अधिकतर सम्प्रदायों के ग्रन्थों में मांस भक्षण का निषेध किया है । यथार्थ में सच्चे धर्म का आदि स्रोत वेद ही है । इसलिये मनु जी महाराज ने धर्मं जिज्ञासमानानां प्रमाणं परमं श्रुतिः धर्म को जानना चाहें, उनके लिये परम श्रुति अर्थात् वेद ही है, यह माना है ।
जब जब परमात्मा सृष्टि की रचना करता है, तब तब अपने परम पवित्र ज्ञान को प्राणिमात्र के कल्याण के लिये प्रकाशित करता है । वेद के किन्हीं एक दो सिद्धान्तों को पकड़ कर चतुर लोग अपने ग्रन्थों की रचना करके नये नये सम्प्रदायों और मतों को खड़ा कर लेते हैं और उन्हीं को धर्म का नाम दे देते हैं । यथार्थ में धर्म अनेक नहीं होते, धर्म और सत्य एक ही होता है । जैसे दो और दो चार ही होते हैं, न्यून वा अधिक नहीं होते । इसलिये महर्षि दयानन्द ने वेद सब विद्याओं का पुस्तक है, वेद का पढ़ना पढ़ाना और सुनना सुनाना सब आर्यों (श्रेष्ठ पुरुषों) का परम धर्म है यह लिखकर इस सत्यता पर अपनी मोहर लगाई है ।
बाह्य अन्धकार को दूर करने के लिये परम दयालु प्रभु ने जिस प्रकार सूर्य का प्रकाश दिया है इसी प्रकार मानव के आन्तरिक अज्ञान रूपी अंधकार को दूर करने के लिये ज्ञानरूप वेदज्योति का प्रकाश किया है । इस बात को सभी एकमत होकर स्वीकार करते हैं कि वेद सब से प्राचीन है । यहां तक कि विदेशी विद्वानों के मतानुसार भी संसार के पुस्तकालय में सब से प्राचीन धार्मिक ग्रन्थ वेद ही माने जाते हैं । वहां लिखा है –
इममूर्णायुं वरुणस्य नाभिं त्वचं पशूनां द्विपदां चतुष्पदाम् ।
त्वष्टुं प्रजानां प्रथम जनित्रमग्ने मा हिंसीः परमे व्योमन् ॥
(यजुर्वेद अ० १२, मन्त्र ४०)
इन ऊन रूपी बालों वाले भेड़, बकरी, ऊंट आदि चौपाये, पक्षी आदि दो पग वालों को मत मार ।
यदि नो गां हमि यद्यश्वं यदि पूरुषम् ।
तं त्वा सीसेन विध्यामो यथा नोऽसो अवीरहा ॥
(अथर्ववेद १।१६।)
यदि हमारी गौ, घोड़े पुरुष का हनन करेगा तो तुझे शीशे की गोली से बेध देंगे, मार देंगे जिससे तू हननकर्त्ता न रहे । अर्थात् पशु, पक्षी आदि प्राणियों के वध करने वाले कसाई को वेद भगवान् गोली से मारने की आज्ञा देता है ।
वेदों में मांस खाने का निषेध इस रूप में किया है । मांस बिना पशुहिंसा के प्राप्त नहीं होता है । अश्व, गौ, अजा (बकरी), अवि (भेड़) आदि नाम लेकर पशुमात्र की हिंसा का निषेध किया है और द्विपद शब्द से पक्षियों के मारने का भी निषेध है ।
पशुओं को पालने की आज्ञा सर्वत्र मिलती है –
यजमानस्य पशून् पाहि ।१॥१॥ (यजुर्वेद)
यजमान के पशुओं की रक्षा करो ।
मनुस्मृति के प्रमाण पहले दे चुके हैं । मांस न खाने का फल सौ अश्वमेध यज्ञों के समान बताया है ।
वर्षे वर्षेऽश्वमेधेन यो यजेत शतं समाः ।
मांसानि च न खादेद्यस्तयोः पुण्यफलं समम् ॥मनु ५।५३॥
जो सौ वर्ष पर्यन्त प्रतिवर्ष अश्वमेध यज्ञ करता है और जो जीवन भर मांस नहीं खाता है, दोनों को समान फल मिलता है ।
याज्ञवल्क्य स्मृति में लिखा है –
सर्वान् कामानवाप्नोति हयमेधफलं तथा ।
गृहेऽपि निवसन् विप्रो मुनिर्मांसविवर्जनात् ॥
(आचाराध्याय ७।१८०॥)
विद्वान् विप्र सर्वकामनाओं तथा अश्वमेध यज्ञ के फल को प्राप्त होता है । ऐसा गृहस्थी जो मांस नहीं खाता, वह घर पर रहता हुआ भी मुनि कहलाता है ।
इस युग के विधाता महर्षि दयानन्द ने मांस भक्षण का सर्वथा निषेध किया है । वे सत्यार्थप्रकाश में लिखते हैं –
१. : मद्य मांस आदि मादक द्रव्यों का पीना – ये स्त्री को दूषित करने वाले दुर्गुण हैं ।
२. : मद्य मांसादि के सेवन से अलग रहें ।
३. : जो मादक और हिंसा कारक (मांस) द्रव्य को छोड़ के भोजन करने हारे हों, वे हविर्भुज (हवन यज्ञशेष खाने वाले) हैं ।
४. : जब मांस का निषेध है तो सर्वत्र ही निषेध है ।
५. : हां, मुसलमान, ईसाई आदि मद्य माँसाहारियों के हाथ के खाने में आर्यों को भी मद्य मांसादि खाना पीना अपराध पीछे लग पड़ता है ।
६. : इनके मद्य मांस आदि दोषों को छोड़ गुणों को ग्रहण करें ।
७. : हां, इतना अवश्य चाहिये कि मद्य मांस का ग्रहण कदापि भूल कर भी न करें ।
वेदादि शास्त्रों में मांस भक्षण और मद्य सेवन की आज्ञा कहीं नहीं, निषेध सर्वत्र है । जो मांस खाना कहीं टीकाओं में मिलता है, वह वाममार्गी टीकाकारों की लीला है, इसलिये उनको राक्षस कहना उचित है, परन्तु वेदों में मांस खाना नहीं लिखा ।
महाभारत में मांस भक्षण निषेध
सुरां मत्स्यान्मधु मांसमासवकृसरौदनम् ।
धूर्तैः प्रवर्तितं ह्येतन्नैतद् वेदेषु कल्पितम् ॥
(शान्तिपर्व २६५।९॥)
सुरा, मछली, मद्य, मांस, आसव, कृसरा आदि खाना धूर्तों ने प्रचलित किया है, वेद में इन पदार्थों के खाने-पीने का विधान नहीं है ।
अहिंसा परमो धर्मः सर्वप्राणभृतां वरः । (आदिपर्व ११।१३)
किसी भी प्राणी को न मारना ही परमधर्म है ।
प्राणिनामवधस्तात सर्वज्यायान्मतो मम ।
अनृतं वा वदेद्वाचं न हिंस्यात्कथं च न ॥
(कर्णपर्व ६९।२३)
मैं प्राणियों को न मारना ही सबसे उत्तम मानता हूँ । झूठ चाहे बोल दे, पर किसी की हिंसा न करे ।
यहाँ अहिंसा को सत्य से बढ़कर माना है । असत्य की अपेक्षा हिंसा से दूसरों को दुःख अधिक होता है क्योंकि सबको जीवन प्रिय है । इसीलिये यह महान् आश्चर्य है कि –
जीवितुं यः स्वयं चेच्छेत् कथं सोऽन्यं प्रघातयेत् ।
यद्यदात्मनि चेच्छेत् तत्परस्यापि चिन्तयेत् ॥
(शान्तिपर्व २५९।२२॥)
जो स्वयं जीने की इच्छा करता है, वह दूसरों को कैसे मारता है । प्राणी जैसा अपने लिये चाहता है, वैसा दूसरों के लिये भी वह चाहे । कोई मनुष्य यह नहीं चाहता कि कोई हिंसक पशु वा मनुष्य मुझे, मेरे बालबच्चों, इष्टमित्रों वा सगे सम्बन्धियों को किसी प्रकार का कष्ट दे वा हानि पहुंचाये अथवा प्राण ले लेवे, वा इनका मांस खाये । एक कसाई जो प्रतिदिन सैंकड़ों वा सहस्रों प्राणियों के गले पर खञ्जर चलाता है, आप उसको एक बहुत छोटी और बारीक सी सूई चुभोयें तो वह इसे कभी भी सहन नहीं करेगा । फिर अन्य प्राणियों की गर्दन काटने का अधिकार उसे कहां से मिल गया ? प्राणियों का हिंसक कसाई महापापी होता है । महाभारत में कहा है –
घातकः खादको वापि तथा यश्चानुमन्यते ।
यावन्ति तस्य रोमाणि तावदु वर्षाणि मञ्जति ॥
(अनुशासनपर्व ६४।४॥)
मारनेवाला, खानेवाला, सम्मति देनेवाला – ये सब उतने वर्ष दुःख में डूबे रहते हैं जितने कि मरने वाले पशु के रोम होते हैं । अर्थात् मांसाहारी घातकादि लोग बहुत जन्मों तक भयंकर दुःखों को भोगते रहते हैं । मनु महाराज के मतानुसार आठ कसाई इस महापातक के बदले दुःख भोगते हैं ।
हिंसा न करे
धर्मशीलो नरो विदानीहकोऽनहीकोऽपि वा ।
आत्मभूतः सदालोके चरेद् भूतान्यहिंसया ॥
(शान्तिपर्व २६५।८॥)
धार्मिक स्वभाववाला पुरुष इस लोक को चाहता हो वा न चाहता हो, सबको समान समझ कर किसी की हिंसा न करता हुआ संसार यात्रा करे । किसी को सताये नहीं ।
मित्रस्य चक्षुषा सर्वाणि भूतानि समीक्षामहे ।
हम सब प्राणियों को मित्र की दृष्टि से देखें । इस वेदाज्ञानुसार सब प्राणियों को मित्रवत् समझकर सेवा करे, सुख देवे । इसी में जीवन की सफलता है । इसी से वह लोक और परलोक दोनों बनते हैं ।
लेखक – स्वामी ओमानंदजी सरस्वती
Hey i want to know whether ancient indians are pure vegetrians or not.please reply i love my culture much but when i came to know about non veg in ancient india by internet i am depressed.so hurry….please and also about liquior.
Dear
There is no concept of eating meat in ancient India.
there is no reference in Vedas.
Even First Mantra of Yajurveda order not to kill animals” यजमानस्य पशून पाहि”
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