“आर्य” शब्द की उत्पत्ति का इतिहास वेदों पर जाकर रूकता है। वेदों में अनेको स्थानों पर अनेकों बार आर्य शब्द का प्रयोग हुआ है। इसका अर्थ है कि आर्यों की उत्पत्ति में वेद की मान्यतायें व सिद्धान्त सर्वमान्य हैं। वेद कोई 500, 1500 या 2000 वर्ष पुराना ज्ञान या ग्रन्थ नहीं है अपितु विश्व का सबसे पुरातन ग्रन्थ है। इसे सृष्टि के प्रथम ज्ञान व ग्रन्थ की संज्ञा दी जा सकती है क्योंकि इससे पूर्व व पुरातन ज्ञान व ग्रन्थ अन्य कोई नहीं है। वेदों के बारे में महर्षि दयानन्द की तर्क व युक्तिसंगत मान्यता है कि वेद वह ज्ञान है जो अमैथुनी सृष्टि में उत्पन्न चार ऋषियों अग्नि, वायु, आदित्य व अंगिरा को सृष्टिकर्ता, सर्वव्यापक, सर्वज्ञ, निराकार व सर्वान्तर्यामी ईश्वर से मिला था। वेदों के आविर्भाव के रहस्य से अपरिचित व्यक्ति यह अवश्य जानना चाहेगा कि निराकार व शरीर रहित ईश्वर, जिसके पास न मुख है, न वाक्-इन्द्रिय, वह सृष्टि के आदि मे ज्ञान कैसे दे सकता है व देता है? इसका उत्तर है कि ईश्वर आत्मा के भीतर सर्वव्यापक व सर्वान्तरयामी स्वरूप से विद्यमान होने के कारण ऋषियों की आत्माओं में प्रेरणा देकर ज्ञान प्रदान करता है। ईश्वर के चेतन तत्व, सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान एवं सर्वान्तरयामी होने के कारण इस प्रकार ज्ञान देना सम्भव कोटि में आता है। भौतिक जगत के उदाहरण से हम जान सकते है कि यदि किसी दूर खड़े व्यक्ति को कोई बात कहनी हो तो जोर देकर बोलते हैं और पास खड़े व्यक्ति को सामान्य व धीरे बोलने से भी वह सुन व समझ जाता है। अब यदि कहने व सुनने वाले आमने-सामने हैं और कोई गुप्त बात कान में कहें तो बहुत धीरे बोलने पर भी सुनने वाला व्यक्ति समझ जाता है। यह स्थिति उन दों व्यक्तियों की है जिनकी आत्मायें अलग-अलग शरीरों में हैं। अब यदि दोनों आत्मायें एक दूसरे से सटे हों या एक आत्मा दूसरी आत्मा में अन्तर्निहित, अन्तर्यामी व भीतर हो तो बोलने की आवश्यकता ही नहीं है। वहां तो अन्तर्यामी आत्मा की प्रेरणा व भावना को व्याप्य आत्मा जान व समझ सकता है। इससे सम्बन्धित एक योग का उदाहरण लेते हैं। योग की सफलता होने पर जीवात्मा के काम, क्रोध, लोभ, मोह रूपी मल, विक्षेप व आवरण हट व कट जाते हैं जैसे कि एक दर्पण पर मल की परत चढ़ी हो, वह साफ हो जाये तो उसके सामने का प्रतिबिम्ब दर्पण में स्पष्ट भाषता वा दिखाई देता है। योग में यही ईश्वर साक्षात्कार है और इस अवस्था में योगी – द्रष्टा के सभी संशय दूर हो जाते हैं और हृदय की ग्रन्थियां खुल जाती हैं। इसका अर्थ है कि उसे परमात्मा का साक्षात्कार, उसका दर्शन अर्थात् निर्भरान्त स्वरूप ज्ञात होकर वह संशय रहित हो जाता है। इस प्रकार जो सिद्ध योगी होता है उसे ईश्वर के बिना बोले वह सभी ज्ञान प्राप्त हो जाता है जिसकी उसे ईश्वर से अपे़क्षा होती है।
यद्यपि ईश्वर की प्रेरणा को समझना, जानना, दूसरों को जनाना व प्रवचन करना आदि एक विज्ञान है जिसे आदि व पश्चातवर्ती ऋषियों, योगदर्शनकार महर्षि पतंजलि, अन्य दर्शनकार, योगेश्वर कृष्ण, महर्षि दयानन्द सरस्वती आदि ने जाना, समझा, प्रत्यक्ष व साक्षात् सिद्ध किया था। सृष्टि की आदि में यदि ऐसा न हुआ होता तो फिर संसार की पहली पीढ़ी से लेकर अद्यावधि कोई भी मनुष्य ज्ञानी नहीं हो सकता था। इसका कारण यह है कि ज्ञान चेतन तत्व का गुण है। चेतन तत्व दो हैं, एक ईश्वर और दूसरी जीवात्मा। ईश्वर सर्वज्ञ एवं त्रिकालदर्शी है, वह जीवों के कर्मो की अपेक्षा से सब कुछ जानता है। ईश्वर के सर्वज्ञ, नित्य तथा जन्म-मृत्यु से रहित होने से इसका अस्तित्व सदा रहेगा। जड़ प्रकृति ज्ञानहीन व संवेदनाशून्य है। जीवात्मा ज्ञान की दृष्टि से अल्पज्ञ कहा जाता है व वस्तुतः है भी। यह साधारण मनुष्य हो या ऋषि, इसका ज्ञान अल्पज्ञ कोटि का होता है और ईश्वर साक्षात्कार हो जाने व समस्त संशयों के पराभूत हो जाने पर भी यह अल्पज्ञ ही रहता है। अल्पज्ञ जीवात्मा में, अन्यों की अपेक्षा से कम या अधिक, जितना भी ज्ञान है वह उसका ईश्वर प्रदत्त स्वाभाविक व नैमित्तिक है। स्वाभाविक व नैमित्तिक ज्ञान का दाता व मूल कारण भी एकमात्र ईश्वर ही है। ईश्वर अपनी सर्वज्ञता से अपने ज्ञान के अनुरूप सृष्टि व मनुष्यों आदि प्राणियों की रचना करता है। ईश्वर की रचना को देखकर मनुष्य अपने स्वाभाविक ज्ञान व ऋषियों-माता-पिता-आचार्यों से प्राप्त ज्ञान से सृष्टि आदि को देख व समझ कर नैमित्तिक ज्ञान प्राप्त करता है व उसमें वृद्धि करता है। यदि ईश्वर अपने ज्ञान से सृष्टि व प्राणियों की रचना न करे व मनुष्य आदि प्राणियों को स्वाभाविक ज्ञान न दे, तो फिर मनुष्य सदा-सदा के लिए अज्ञानी ही रहेगा। अतः सृष्टि की आदि में परमात्मा आदि चार ऋषियों को वेदों का ज्ञान देता है। उसी ज्ञान से ऋषि भाषा का उच्चारण व संवाद आदि करते हैं व ईश्वर का ध्यान करते हुए भाषा व लिपि का चिन्तन कर उसी की सहायता से लिपि व व्यापकरण आदि की रचना करते हैं। इस क्रम में उपदेश, प्रवचन, अध्ययन, अध्यापन व लेखन आदि के द्वारा मनुष्यादि अन्य भाषा व विविध ज्ञान का संवर्धन करते हैं।
इस प्रकार परम्परा से चला आ रहा ज्ञान माता-पिता को मिलता है, वह अपने पुत्र को देते हैं और फिर वह पुत्र गुरूकुल व विद्यालय में आचार्यों से अध्ययन व पुरूषार्थ करके अपने ज्ञान में वृद्धि करते हैं। यह ज्ञान की वृद्धि भी उसकी बुद्धि की ऊहापोह एवं ईश्वर की कृपा व सहयोग का परिणाम होती है। यदि सर्वज्ञ ईश्वर आरम्भ में ज्ञान न दे तो मनुष्य या मनुष्य समूह कदापि स्वयं भाषा व ज्ञान को उत्पन्न करके उसे प्रकाशित नहीं कर सकते। ज्ञान भाषा में निहित होता है। यदि भाषा नहीं है तो मनुष्य विचार ही नहीं कर सकता। बिना विचार व ज्ञान के दो मनुष्य एक दूसरे को संकेत भी नहीं कर सकते। अतः माता-पिता द्वारा सन्तानों को भाषा का ज्ञान कराने की भांति सृष्टि के आरम्भ में आदि मनुष्यों को भाषा की प्राप्ति ईश्वर से ही होती है। वह आदि भाषा वैदिक भाषा थी। ईश्वर ने आदि सृष्टि में चार ऋषियों को चार वेदो का ज्ञान भाषा व मन्त्रों के पदो के अर्थ सहित दिया था। वेदों से सम्बन्धित सभी जानकारियों, वेदों के मर्म व तात्पर्य आदि को जानने के लिए महर्षि दयानन्द कृत सत्यार्थ प्रकाश ग्रन्थ को देखना उपयोगी व अनिवार्य है।
विचार, चिन्तन, यौगिक अनुभव व आप्त प्रमाणों से सिद्ध है कि सृष्टि के आदि में अमैथुनी व उसके बाद अनेक पीढि़यों तक मनुष्यों की स्मरण शक्ति वर्तमान के मनुष्यों की तुलना में अधिक तीव्र थी। उस समय उन्हें स्मरण करने के लिए कागज, पेन, पेंसिल व पुस्तकों की आवश्यकता नहीं थी। वह जो सुनते थे वह उन्हें स्मरण हो जाता था। कालान्तर में स्मृति ह्रास होना आरम्भ हो गया तो ऋषियों ने इसके लिए व्याकरण सहित अनेक विषय के ग्रन्थों की रचना की। वर्तमान में इस कार्य के लिए व्याकरण के ग्रन्थ पाणिनी अष्टाध्यायी, पतंजलि महाभाष्य, यास्क के निरूक्त व निघण्टु आदि ग्रन्थ उपलब्ध हैं। प्राचीन काल में भी समय-समय पर अनेक ऋषियों ने आवश्यकता के अनुरूप व्याकरण व अन्य ग्रन्थों की रचना की जिससे वेदार्थ ज्ञान में कोई बाधा नही आई। इस विषय पर विस्तार से जानने के लिए पं. युधिष्ठिर मीमांसक कृत संस्कृत व्याकरण शास्त्र का इतिहास पठनीय है। मीमांसक जी ने इस ग्रन्थ की रचना कर एक ऐसा कार्य किया है जो सम्भवतः भविष्य में अन्य किसी के द्वारा किया जाना सम्भव नहीं था। इसके लिए सारा संस्कृत जगत उनका चिरऋ़णी रहेगा।
महर्षि दयानन्द ने अपने पुरूषार्थ व लगन से वेद व उसके व्याकरण के ग्रन्थों का अध्ययन करने में अपूर्व पुरूषार्थ किया। उनका यह पुरूषार्थ प्रज्ञाचक्षु स्वामी विरजानन्द के रूप में एक योग्य गुरू के प्राप्त होने से सफलता को प्राप्त हुआ। सत्य की खोज के प्रति दृण इच्छा शक्ति, मृत्यु व ईश्वर के सत्य स्वरूप की खोज, अपने विशद अध्ययन, पुरूषार्थ, योगाभ्यास आदि से वह वेदों में निष्णात अद्वितीय ब्रह्मचारी बने। महर्षि दयानन्द के समय में सारा देश वेदों से दूर जा चुका था। लोग मानते थे कि वेद लुप्त हो गये हैं। वेदों के साथ ब्राह्मण ग्रन्थों को भी वेद माना जाता था जिनमें वेदों से विरूद्ध अनेक मान्यतायें व विधान थे। गीता व रामायण की प्रतिष्ठा वेदों से अधिक थी। सायण व महीधर आदि विद्वानों के पूर्ण व आंशिक जो वेद भाष्य यत्र-तत्र थे, वह भी वेदों के यथार्थ भाष्य न होकर विद्रूप अर्थो ये युक्त थे। विदेशी व हमारा शासक वर्ग वेदों को गड़रियों के गीत, बहुदेवतावाद का पोषक व अस्पष्ट अर्थो का संग्रह बता रहे थे। ऐसे समय में स्वामी दयानन्द ने वेदों को ईश्वरीय ज्ञान, सब सत्य विद्याओं का पुस्तक, धर्म जिज्ञासा में वेद परम प्रमाण एवं इतर संसार के सभी वेदानुकूल हाने पर परतः प्रमाण जैसी सत्य मान्यतायें एवं सिद्धान्त बताकर वेदों को स्वतः प्रमाण की संज्ञा दी। उन्होंने कहा कि ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद व अथर्ववेद ही सृष्टि के आरम्भ में ईश्वर से प्राप्त प्रथम, आदि व नित्य ज्ञान की पुस्तकें हैं। वेद में ज्ञान, विज्ञान, सृष्टिक्रम, युक्ति व प्रमाणों के विरूद्ध कुछ भी नहीं है। महर्षि दयानन्द ने ही उद्घोष किया कि संसार में मनुष्यों की दो ही श्रेणियां है। एक आर्य व दूसरा अनार्य। आर्य भारत के मूल निवासी हैं। आर्यो के आर्यावर्त वा भारत को आदि काल में बसने व बसाने से पहले यहां कोई मनुष्य समुदाय, जाति के लोग निवास नहीं करते थे। सृष्टि के आरम्भ से लेकर आज तक रचित असंख्य ग्रन्थों में कहीं नहीं लिखा कि आर्य किसी अन्य देश व प्रदेश से आकर यहां बसे, यहां के लोगों से युद्ध कर उन्हें पराजित किया। जब सम्पूर्ण आर्यावर्त के लोगों में आर्य व अनार्य का कोई विवाद ही नहीं है तो फिर स्वार्थी व चालाक व आर्य धर्म व संस्कृति विरोधी अन्य पक्षपाती विदेशी मताग्रहियों का आरोप क्यों व कैसे स्वीकार किया जा सकता है? विदेशियों के पास धन व अन्य प्रचुर साधन थे। उन्होंने इस देश के कुछ पठित लोगों को अपने प्रलोभन देकर व उनसे आकर्षित कर छद्म व स्वार्थी मानसिकता से प्रभावित किया। कुछ प्रलोभन में फॅंस गये और उनकी हां में हां मिलाने लगे। ऐसा होना स्वाभाविक होता है। कुछ धर्म को अफीम मानने की विचारधारा से पोषित तथाकथित इतिहासकार आर्य संस्कृति से घृणा रखते रहे हैं। उन्होंने सत्य प्रमाणों पर ध्यान दिये बिना अर्थात् वेद, मनुस्मृति, रामायण, महाभारत व 18 पुराणों का अवगाहन किए बिना, एक षडयन्त्र के अन्तर्गत विदेषियों की मान्यताओं व विचारों को स्वीकार कर लिया। आज भी विदेशियों की आर्यो के अन्य देशों से भारत आने की स्वार्थ व पक्षपातपूर्ण मान्यता को हम विमूढ़ बनकर ढ़ो रहे हैं। हमें लगता है कि इन मान्यताओं के अनुगामी व प्रवर्तक हमारे स्वदेशी तथाकथित बुद्धिजीवी सत्य के आग्रही कम ही हैं जिसका कारण उनका पाश्चात्य विद्वानों का अनुमागी होना, संस्कृत ज्ञान से अनभिज्ञता, संस्कृत भाषा के अध्ययन से विरत होना व आलस्य प्रवृति तथा धन का मोह आदि ऐसे कारण हैं जिससे वह सत्य तक पहुंचने में असमर्थ है। महर्षि दयानन्द ने अनेक दुर्लभ सहस्रों संस्कृत ग्रन्थों का अध्ययन किया था जिससे वह निर्णय कर सके थे कि आर्य भारत के मूल निवासी हैं व इनसे पूर्व आर्यावर्त्त में आर्यो से भिन्न कोई जाति निवास नहीं करती थी।
आर्यो का आदि व मूल देश इस पृथिवीतल पर कौन हो सकता है? इस पर विचार करने पर यह तथ्य सामने आता है कि जहां आर्यो का धर्म ग्रन्थ, साहित्य, संस्कृति व सभ्यता अधिकतम् रूप में व्यवहृत, प्रयोग की जाती हो, जहां उसका चलन हो व वह फल-फूल रही हो। इतिहास में भारत के अतिरिक्त ऐसा अन्य कोई स्थान विदित नहीं है जहां आर्यो के इतिहास से सम्बन्धित इतने अधिक स्थान, साहित्य व अन्य सहयोगी प्रमाण हों। लाखों वा करोड़ों वर्ष पूर्व हुए राम-रावण, द्वापर की समाप्ति पर हुए महाभारत युद्ध व उस समय व उसके पूर्ववर्ती राजवंशों का इतिहास, महाभारत नामक विशाल ग्रन्थ में उपलब्ध व सुरक्षित हैं। पुराणों में भी इतिहास विषयक अनेक उल्लेख व स्मृतियां उल्लिखित हैं। यह महाभारत का युद्ध आज से लगभग 5,200 वर्ष पूर्व हुआ था। हम अनुभव करते हैं कि जिस प्रकार से सूर्य का उदय पूर्व दिशा से होता है उसी प्रकार से ज्ञान के आदि ग्रन्थ ‘वेद’ रूपी सूर्य का उदय भी भारत से ही हुआ है जिसका प्राचीन नाम आर्यावर्त था। यही भूमि वेदों व अमैथुनी सृष्टि के उद्गम की भूमि है। भारत का ही प्राचीन नाम आर्यावर्त्त है और आर्यावर्त्त नाम से पूर्व इस देश का कुछ भी नाम नहीं रहा है और न ही आर्यो से पूर्व कोई मनुष्य या उनका समुदाय निवास करता था। यह भी ध्यान देने योग्य है कि आर्यावर्त के अस्तित्व में आने तक संसार का अन्य कोई देश अस्तित्व में नहीं आया था क्योंकि उन निर्जन देशों को बसाने के लिए आर्यावर्त्त से आर्यो को ही जाना था।
आज संसार की सारी पृथिवी पर लोग बसे हुए हैं। समस्त पृथिवी पर लगभग 194 देश हैं। इन देशों के निवासी पूर्व समयों में पड़ोस के देशों से आकर वहां बसे हैं। जो आरम्भ में, सबसे पूर्व, आये होगें, उससे पूर्व वह स्थान खाली रहा होगा। हो सकता है उसके बाद निकटवर्ती वा पड़ोस की अन्य तीन दिशाओं से भी कुछ लोग वहां आकर बसे हों। उन देशों में वहां क्योंकि प्रायः एक ही मत या धर्म है, अतः कहीं कोई विवाद नहीं है। सृष्टि के आरम्भ से पारसी व बौद्ध-जैन-ईसाई मत के आविर्भाव तक संसार के सभी लोग एक वैदिक मत को मानते रहे। इस मान्यता के पक्ष में भी प्रमाण उपलब्ध हैं कि लगभग 5,200 वर्ष पूर्व भारत की भूमि पर हुए महाभारत युद्ध के बाद आर्यावर्त्त अवनति को प्राप्त हुआ। इससे पूर्व हमारे देश के राजपुरूष देश-देशान्तर के सभी देशों में जाते-आते थे। परस्पर व्यापार भी होता था और वहां की राज व्यवस्था भारत के ऋषियों, विद्वानों व राजपुरूषों के दिशा-निर्देश में चलती थी। वह माण्डलिक राज्य कहलाते थे और भारत के चक्रवर्ती राज्य को कर देते थे। महर्षि दयानन्द (1825-1883) ने अपने काल में हस्तलिखित दुलर्भ हजारों ग्रन्थों का अध्ययन किया था। उन्होंने निष्कर्ष रूप में लिखा है कि सृष्टि के आरम्भ से महाभारत पर्यन्त आर्यो का सारे विश्व में एकमात्र, सार्वभौम चक्रवर्ती राज्य रहा है। अन्य देशों में माण्डलिक राजा होते थे जो भारत को कर देते थे और हमारे देश के राजपुरूष व ऋषि आदि भी इन देशों में सामाजिक व राजनैतिक व्यवस्था को आर्यनीति के अनुसार चलाने, शिक्षा-धर्म प्रचार व व्यापार आदि कार्यो हेतु आया-जाया करते थे। यह प्रमाण अपने आप में महत्वपूर्ण स्थान रखता है। यह वाक्य देश-विदेश में रहने वाले करोड़ों वेदभक्तों के लिए तो मान्य है परन्तु अंग्रेजी परम्परा के लेखक व विद्वानों के लिए यह इसलिए स्वीकार्य नहीं है कि विदेशी विद्वान ऐसा नहीं मानते थे। वह क्यों नहीं मानते थे इसके कारणों में जाने की इन विद्वानों के पास न योग्यता है और न आवश्यकता। उनका अपना मनोरथ सिद्ध हो जाता है, अतः वह गहन व अति श्रम साध्य गम्भीर अनुसंधान नहीं करते। ऐसे कार्य तो स्वामी दयानन्द व उनके अनुयायी पद-वाक्य प्रमाणज्ञ पण्डित बह्मदत्त जिज्ञासु, पं. युधिष्ठिर मीमांसक, पं. भगवद्दत्त व स्वामी विद्यानन्द सरस्वती जैसे खोजी व जुझारू लोग ही कर सकते थे व किया है। हम यहां यह भी निवेदन करना चाहते हैं कि आर्यो को भारत से भिन्न स्थानों का निवासी मानने और आर्यो का अन्य स्थान से भारत में आने के मिथ को सत्य मानने वालों के पास एक भी पुष्ट प्रमाण नहीं है जबकि महर्षि दयानन्द व उनके अनुयायियों मुख्यतः स्वामी विद्यानन्द सरस्वती आदि ने आर्यो का भारत का मूल निवासी होना अनेक तर्कों, प्राचीन ग्रन्थों, युक्ति-प्रमाणों, इतिहास व पुरातत्व के प्रमाणों आदि की सामग्री से सिद्ध किया है।
यहां हम इस सम्भावना पर भी विचार करते है कि यदि महाभारत युद्ध न हुआ होता तो क्या होता? महाभारत युद्ध दुर्योधन की हठधर्मिता का परिणाम था। यदि उसका जन्म ही न होता या वह साधु प्रकृति का होता तो भी महाभारत न हुआ होता। ऐसी स्थिति में श्री कृष्ण, भीष्म, विदुर, अर्जुन व युधिष्ठिर आदि आर्यावर्त-भारत व सारे विश्व को वेदमार्ग पर चलाते। अर्जुन ने तो अमेरिका के राजा की पुत्री उलोपी से विवाह तक किया था। भारतवासियों का अमेरिका आने-जाने का यह एक प्रमाण है। ऐसे अनेक उल्लेख व प्रमाण प्राचीन ग्रन्थों में उपलब्ध हैं। महर्षि वेद व्यास के पुत्र पाराशर के अमेरिका में जाने वहां निवास करने और अध्ययन-अध्यापन कराने के प्रमाण भी मिलते हैं। महाभारत यदि न होता तो इस सम्भावना के आधार पर यह कहा जा सकता है कि फिर सारे संसार मे केवल एक वैदिक धर्म ही होता। अज्ञानता के कारण व भारत से दूर होने के कारण मध्यकाल में भारत से बाहर वैदिक मत से इतर पारसी, ईसाई व इस्लाम आदि जिन मतो का आविर्भाव हुआ, वह न हुआ होता। ऐसी स्थिति में हम व दुनियां के अन्य देश जो गुलाम हुए, वह भी न हुए होते। और इन सब स्थितियों में किसी देशी या विदेशी द्वारा इस विवाद को जन्म ही न दिया जाता कि “आर्य” भारत के ही मूल निवासी हैं या नहीं? अंग्रेजो का विदेशी होना और भारत को पराधीन बना कर यहां के मूल निवासी आर्यों पर शासन करना ही इस विवाद का मुख्य कारण है। अंग्रेजों को यह डर सताता था कि इस देश के नागरिक उन्हें विदेशी कहकर ‘विदेशियों भारत छोड़ों’ या ‘अंग्रेजों भारत छोड़ो’ या फिर ‘अपने देश में अपना राज्य’ या ‘स्वदेशीय राज्य सर्वोपरि उत्तम होता है और स्वदेशी राज्य की तुलना में माता–पिता के समान कृपा, न्याय व दया होने पर भी विदेशियों का राज्य पूर्ण सुखदायक नहीं हो सकता’ आदि सिद्धान्तों व नारों के आधार पर भारत से बाहर न निकाल दें। अंग्रेजों में असुरक्षा की भावना इस कारण थी कि उन्होंने भारतीयों को गुलाम बनाया हुआ है। वह विदेशी थे और भविष्य मे वह दिन आ सकता था कि जब उनके विदेशी होने के आधार पर उन्हें भारत छोड़ने के लिए मजबूर किया जा सकता था। ऐसा ही हुआ। उनकी लूट, अत्याचारों व विदेशी होने के कारण ही उनके विरूद्ध क्रान्तिकारी व अहिंसक आन्दोलन चले। अतः अपनी जड़े जमाने व चिरकाल तक भारत पर शासन करने के लिए उन्होंने भारत के प्रबुद्ध वर्ग ‘‘आर्यो” को विदेशी कहा। महर्षि दयानन्द तो सन् 1875 में सत्यार्थ प्रकाश में खुलकर कह चुके थे कि अपने देश में अपना स्वदेशी राज्य ही सर्वोत्तम होता है एवं माता-पिता के समान न्याय, दया व कृपा होने पर भी विदेशियों का राज्य पूर्ण सुखदायक कभी नहीं हो सकता। महाभारत का युद्ध आर्यो अर्थात् कौरव-पाण्डव राज-परिवारों की परस्पर स्वार्थ वा फूट, उनके आलस्य व प्रमाद आदि कारणों से हुआ जिसके भावी परिणामों से वर्तमान में भारत में अज्ञान, पाखण्ड, कुरीतियां, मूर्तिपूजा, अवतारवाद, फलित ज्योतिष, वर्ण या जातीय व्यवस्था आदि के नाम पर स्त्री व अपठित व असंगठित शूद्रों पर अत्याचार आदि की वृद्धि होना, विदेशों में नाना अवैदिक व अज्ञानपूर्ण मतों का अस्तित्व में आना, सारी दुनियां में धर्मान्तरण का चक्र चलना व इस प्रकार के कारणों से एक दूसरे का घात करना आदि, जिससे समय-समय पर भयंकर युद्ध हुए व सज्जनों को मृत्यु के घाट उतारा गया।
यह संसार ईश्वर ने बनाया है। यह हमारी पृथिवी विश्व ब्रह्माण्ड में एकमात्र नहीं अपितु ऐसी असंख्य पृथिवियां एवं सूर्य व चन्द्र आदि ग्रहों से सारा ब्रह्माण्ड भरा है। यह ईश्वर की विषालता, उसकी सर्वज्ञता, सर्वव्यापकता, सर्वशक्तिमत्ता, निराकारता व सत्य, चित्त व आनन्दस्वरूप होने का प्रमाण है। यहां यह विचार करते हैं कि ईश्वर ने इस विशाल पृथिवी को बनाकर मनुष्यों को किसी एक स्थान पर जन्म दिया या संसार के अनेकानेक भागों में उत्पन्न किया? इसके लिए यह विचार करना उपयोगी होगा कि जब भी हम किसी नई चीज का आविष्कार करते हैं तो पहले कुछ सांचे या प्रोटोटाइप बनायें जाते हैं जिनकी संख्या सीमित होती है। प्रथम उत्पादन एक ही स्थान पर होता है, सर्वत्र नहीं। आवश्यकता पड़ने पर परिस्थिति के अनुसार अनेक स्थानों पर विस्तार किया जाता है। जब एक स्थान पर कुछ सहस्र स्त्री-पुरूषों के जन्म लेकर समय के साथ उनकी संख्या में वृद्धि होने व परस्पर के विवादों आदि के होने पर वह सारे संसार में फैल सकते हैं तो सर्वत्र मनुष्यों की सृष्टि करना ईश्वर के लिए करणीय नहीं था। हम देखते हैं कि परिवार का मुख्य व्यक्ति परिवार की आवश्यकता के अनुरूप निवास बनाता है। आगे चल कर परिवार में नई सन्तानें आती हैं, वह बड़ी होती है, उनमें क्षमता होती है, वह अपने साधनों, क्षमता, अपनी भावना व इच्छानुसार उचित स्थान का चयन कर अपने निवास के लिए अपना पृथक भवन बनवाते हैं। इसी प्रकार से संसार में निवास बनते हैं। सृष्टि के आरम्भ में यही सम्भावना अधिक बलवती लगती है, और इसका आप्त प्रमाण भी है, कि सृष्टि के आरम्भ में केवल एक स्थान ‘त्रिविष्टिप’ या ‘तिब्बत’ में ईश्वर ने मानव सृष्टि की। सहस्रों स्त्री-पुरूषों व अग्नि, वायु, आदित्य, अंगिरा, ब्रह्मा आदि ऋषियों को उत्पन्न किया। ऋषियों को प्रेरणा देकर उन्हें वेदों का ज्ञान दिया। उन्होंने अन्यों को पढ़ाया। उन युवा स्त्री-पुरूषों के विवाह आदि सम्पन्न किये। उन सभी को उनके कर्तव्यों का बोध कराया। उनसे सन्तानोत्पत्ति हुई। समय व्यतीत होने के जनसंख्या बढ़ी। परस्पर विवाद भी हुए। भिन्न मत के लोग समूह में अन्यत्र जाकर रहने लगे। वहां भी जनसंख्या बढ़ी और फिर उनमें से लोग अपनी आवश्यकता, इच्छा, अन्वेषण की रूचि आदि के कारण खाली पड़ी पृथिवी में चारों दिशाओं में स्थान-स्थान पर जाकर बसने लगे। इस प्रकार से 1,96,08,53,115 वर्षों में यह आज का संसार अस्तित्व में आया है। यहां अब पश्चिमी विद्वान मैक्समूलर का वचन उद्धृत करते हैं – ‘यह निश्चित हो चुका कि हम सब पूर्व से ही आये हैं। इतना ही नहीं, हमारे जीवन की जितनी भी प्रमुख और महत्वपूर्ण बातें हैं, सबकी सब हमें पूर्व से ही मिली हैं। ऐसी स्थिति में जब हम पूर्व की ओर जाएँ तब हमें यह सोचना चाहिए कि पुरानी स्मृतियों को संजोये हम अपने पुराने घर की ओर जा रहे हैं।’ अंग्रेजी में अपनी पुस्तक “India : What can it Teach us?” (Page 29) पर उन्होंने लिखा कि ‘We all come from the East—all that we value most has come to us from the East, and by going to the East, every-body ought to feel that he is going to his ‘old home’ full of memories, if only we can read them.’ मैक्समूलर के यह शब्द महर्षि दयानन्द द्वारा सत्यार्थ प्रकाश के अष्टम् समुल्लास मे लिखे शब्दों की स्वीकारोक्ति हैं जहां उन्होंने लिखा है कि ‘‘मनुष्यों की आदि सृष्टि त्रिविष्टप अर्थात् तिब्बत में हुई और आर्य लोग सृष्टि के आदि में कुछ काल पश्चात् तिब्बत से सूधे इसी देष भारत में आकर बसे। इसके पूर्व इस देश का कोई भी नाम नहीं था और न कोई आर्यो के पूर्व इस देश में बसते थे।’’ हम यहां यह भी जोड़ना उपयुक्त समझते है जब आर्य तिब्बत से यहां आकर बसे उस समय इस भूमि भारत व संसार के समस्त भूभाग पर कहीं कोई मनुष्य निवास नहीं करता था। इन्हीं प्रो. मैक्समूलर ने सन् 1866 में प्रकाशित ‘चिप्स फ्राम ए जर्मन वर्कशाप’ के पृष्ठ 27 पर लिखा है कि ‘‘वैदिक सूक्तों की एक बड़ी संख्या बिल्कुल बचकानी, निकृष्ट, जटिल और अत्यन्त साधारण है।” बाद में यही लेखक इसके विपरीत अपने ऋग्वेद संहिता के भाष्य के चैथे खण्ड में लिखता है कि ‘‘एक वैदिक विद्वान अथवा विद्वानों की एक पीढ़ी द्वारा भी ऋग्वेद की ऋचाओं के रहस्यों को खोज निकालना असम्भव है।” वेद, वैदिक धर्म एवं संस्कृति के मर्मज्ञ विद्वान स्वामी विद्यानन्द सरस्वती ने मैक्समूलर के इन शब्दों पर अपनी टिप्पणी करते हुए लिखा है कि ऋग्वेद के सम्बन्ध में इस प्रकार की भावना व्यक्त करने के लिए मैक्समूलर तभी विवश हुए होंगे जब उन्हें वहां इतने ऊंचे विचार दीख पड़े होंगे जिनके मुकाबिले में विकासवाद की दीवारें हिलती जान पड़ी होंगी। हम समझते हैं कि मैक्समूलर का यह लिखना कि ऋग्वेद की ऋचाओं के रहस्यों को खोज निकालना असम्भव है, इससे उनका तात्पर्य यह है कि ऋग्वेद के मन्त्रों के जो यथार्थ अर्थ हैं वह इतने गम्भीर, अर्थ पूर्ण, महत्वपूर्ण व उपादेय हैं कि उनके व उनके समकक्ष विद्वान के लिए वेदों के यथार्थ अर्थ जानना, प्रकट करना व बताना असम्भव है। महर्षि दयानन्द ने अपने वेदाध्ययन में इस तथ्य को साक्षात् किया कि वेद मनुष्य कृत ज्ञान न होकर ईश्वर से प्राप्त ज्ञान है और घोषणा की कि वेद सब सत्य विद्याओं का पुस्तक है। मैक्समूलर भी प्रकारान्तर से इसका समर्थन करते दीखते हैं।
लेख को विराम देने से पूर्व हम 5,200 वर्ष पूर्व रचित महाभारत में उपलब्ध आर्यो का आदि देष विषयक एक पुष्ट प्रमाण प्रस्तुत करते हैं। महाभारत में कहा है – ‘‘हिमालयाभिधानोऽयं ख्यातो लोकेषु पावनः। अर्धयोजनविस्तारः पंचयोजनमायतः।। परिमण्डलयोर्मध्ये मेरूरूत्तमपर्वतः। ततः सर्वाः समुत्पन्ना वृतयो द्विजसत्तम।। ऐरावती वितस्ता च विशाला देविका कुहू। प्रसूतिर्यत्र विप्राणां श्रूयते भरतर्षभ।।” इसका अर्थ व इस पर टिप्पणी करते हुए इस विषय के अधिकारी मर्मज्ञ विद्वान स्वामी विद्यानन्द सरस्वती अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ‘आर्यो का आदि देश और उनकी सभ्यता’ में लिखते हैं कि – ‘संसार में पवित्र हिमालय है। इसमें आधा योजन चौड़ा और पांच योजन घेरे वाला ‘मेरू’ है जहां मनुष्यों की उत्पत्ति हुई। यहीं से ऐरावती, वितस्ता, विशाला, देविका और कुहू आदि नदियां निकलती हैं। इन प्रमाणों में हिमालय के मेरू प्रदेश में प्रथम व आदि सृष्टि होने का वर्णन है।’ वह आगे लिखते हैं कि इससे भी अधिक पुष्ट प्रमाण हमें इस विषय में मिले हैं जिनसे अमैथुनी सृष्टि के हिमालय में होने का निश्चय होता है। जिस मेरू स्थान का महाभारत के उक्त श्लोकों में निर्देष किया गया है, उसी के पास ‘देविका पंचमे पाशर्वे मानसं सिद्धसेवितम्’ अर्थात् देविका के निवास के पश्चिमी किनारे पर ‘मानस’ है। यह मानस अब एक झील है जो तिब्बत के अन्तर्गत है। एक बार पुनः महर्षि दयानन्द द्वारा सत्यार्थ प्रकाश में लिखे उनके शब्दों को देख लेते हैं जिनसे महाभारत के उपर्युक्त वचनों की संगति लगती है – ‘मनुष्यों की आदि सृष्टि त्रिविष्टप अर्थात् तिब्बत में हुई और आर्य लोग सृष्टि के आदि में कुछ काल पश्चात् तिब्बत से सूधे इसी देश भारत में आकर बसे। इससे पूर्व इस देश का कोई भी नाम नहीं था और न कोई आर्यो के पूर्व इस देश में बसते थे।’ हम समझते है कि इससे भारत ही आर्यो का मूल देश सिद्ध हो जाता है। इसके विपरीत विचार या मान्यतायें कल्पित, पूर्वाग्रहों से युक्त होने व प्रमाणों के अभाव में निरस्त हो जाती है।
–मन मोहन कुमार आर्य
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देहरादून-248001
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Great, informative article.
I am really surprised how many scripture Rishi Dayanand read in his life time and how he could get through all these. His wrote about time of Mukti based on Mundaka upnishad, place of first born humans from Mahabharta, Analysis of Quran, Bibal, Purans, jains & Bodhs scripture. Veda, Shastra, Upnishad were his favourite. I do not find anyone in history possessors of such a vast knowledge.