प्रस्तुत सम्पादकीय प्रो. धर्मवीर जी का अन्तिम सम्पादकीय है, यह एक शोधपरक लेख है। इसको पढ़कर आचार्यश्री की विद्वत्ता स्पष्ट दिखाई देती है। अब वे हमारे मध्य में नहीं हैं, पर उनके दार्शनिक जीवनोपयोगी उपदेश परोपकारी के पाठकों को मिलते रहेंगे। -सम्पादकहिन्दू समाज में एक मान्यता है कि वेद पहले एक ही था। महर्षि व्यास ने उसके चार भाग करके चार वेद बनाये। इसलिये बहुत सारे लोग महर्षि वेद व्यास को वेदों का कर्त्ता मानते हैं। वेद के एक होने और चार होने का क्या आधार है? इस पर विचार करने पर इसके अनुसार हर कल्प में व्यास के होने और वेद के विभाजन से वेद-व्याख्यान के रूप में ब्राह्मण एवं शाखा ग्रन्थों का उल्लेख होना संगत है।
वस्तुस्थिति से वेद के विषय और जिन ऋषियों पर वेद का प्रकाश हुआ है, उनका उल्लेख प्रारम्भ से ही देखने में आता है-
१. महीधर अपने यजुर्वेद-भाष्य के आरम्भ में लिखता है-
तत्रादौ ब्रह्मपरम्परया प्राप्तं वेदं वेदव्यासो मन्दमतीन् मनुष्यान् विचिन्त्य तत्कृपया चतुर्धा व्यस्य ऋग्यजुः सामाथर्वाख्यांश्चतुरो वेदान् पैल वैशम्यायनजैमिनिसुमन्तुभ्यः क्रमादुपदिदेश।
अर्थात् ब्रह्मा की परम्परा से प्राप्त वेद को मनुष्यों की सुविधा के लिये व्यास ने चार भागों में बाँट कर अपने चार शिष्य पैल, वैशम्पायन, जैमिनि व सुमन्तु को उपदेश किया।
२. महीधर से पूर्ववर्ती तैत्तिरीय संहिता के भाष्यकार भट्ट भास्कर ने अपने भाष्य के आरम्भ में लिखा है-
पूर्वं भगवता व्यासेन जगदुपकारार्थमेकीभूय स्थिता वेदाः व्यस्ताः शाखाश्च परिछिन्नाः।
अर्थात् पहले जो वेद एक रूप में थे, जगदुपकार के लिये व्यास ने उनका विभाग किया और शाखाओं में बाँटा।
३. भट्ट भास्कर से पूर्व निरुक्त के भाष्यकार आचार्य दुर्ग ने निरुक्त १/२० की वृत्ति में लिखा है-
वेदं तावदेकं सन्तमतिमहत्त्वाद् दुरध्येयमनेकशाखा भेदेन समाम्नासिषुः। सुखग्रहणाय व्यासेन समाम्नातवन्तः।।
अर्थात् वेद एक होने से बड़ा और अध्ययन में कठिन होने के कारण सुविधा के लिये व्यास ने शाखा-भेद से उसके अनेक विभाग किये।
इस कथन का मूल विष्णु पुराण में इस प्रकार मिलता है-
जातुकर्णोऽभवन्मत्तः कृष्णद्वैयापनस्ततः।
अष्टाविंशतिरित्येते वेदव्यासाः पुरातनाः।।
एको वेदश्चतुर्धा तु यैः कृतो द्वापरादिषु।
– विष्णु पुराण ३/३/१९-२०
इसी प्रकार मत्स्य पुराण में उल्लेख मिलता है-
वेदश्चैकश्चतुर्धा तु व्यख्यते द्वापरादिषु।
– मत्स्य पुराण १४४/११
अर्थात् प्रत्येक द्वापर के अन्त में एक ही वेद चतुष्पाद चार भागों में विभक्त किया जाता है। पुराण के अनुसार अब क्यों कि अट्ठाईसवाँ कलियुग चल रहा है, तो यह वेद विभाजन २८ बार हो चुका है। इन सभी विभाग करने वालों का नाम व्यास ही होता है।
श्वेताश्वतर उपनिषद् में-
यो ब्रह्माणं विदधाति पूर्वं यो
वै वेदांश्च प्रहिणोति तस्मै।।
-६/१८
जो प्रथम ब्रह्मा को उत्पन्न करता है और उसके लिये वेदों को दिलवाता है।
वेदान्त दर्शन का भाष्य करते हुए शङ्कराचार्य लिखते हैं-
ईश्वराणां हिरण्यगर्भादीनां वर्तमानकल्पादौ प्रादुर्भवतां परमेश्वरानुगृहीतानां सुप्तप्रबुद्धवत् कल्पान्तर-व्यवहारानुसन्धानोपपत्तिः। तथा च श्रुतिः-यो ब्रह्माणम्।।
– वेदान्त सूत्र भाष्य १/३/३० तथा १/४/१
आचार्य शंकर वेदात्पत्ति हिरण्यगर्भ से कहते हैं, उनके मत में हिरण्यगर्भ ब्रह्मा है। इस ब्रह्मा की बुद्धि में कल्प के आदि में परमेश्वर की कृपा से वेद प्रकाशित होते हैं।
वेदान्त सूत्र के शांकर भाष्य की व्याख्या करते हुए श्री गोविन्द ने इस प्रकार लिखा है-
पूर्वं कल्पादौ सृजति तस्मै ब्रह्मणे प्रहिणोति= गमयति= तस्य बुद्धौ वेदानाविर्भावयति।
– वेदा. १/३/३०
इसी सूत्र की व्याख्या पर आनन्दगिरि ने लिखा है-
वि पूर्वो दधातिः करोत्यर्थः।
पूर्वं कल्पादौ प्रहिणोति ददाति।
इन सभी स्थानों पर वेद का बहुवचन में प्रयोग किया गया। अतः चारों वेद की उत्पत्ति प्रारम्भ से ही है। व्यास द्वारा चार भागों में विभक्त किया गया, यह कथन सत्य नहीं है।
१. सर्वप्रथम वेद में ही चार वेदों का उल्लेख पाया जाता है। ऋग्वेद में-
तस्माद्यज्ञात् सर्वहुतः ऋचः सामानि जज्ञिरे
छन्दांसि जज्ञिरे तस्माद् यजुस्तस्मादजायत।।
– १०/९०
२. इसी प्रकार यजुर्वेद के पुरुषाध्याय में भी सभी वेदों का उल्लेख मिलता है।
३. सामवेद में वेद का उल्लेख मिलता है।
४. अथर्ववेद का मन्त्र ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका के वेदात्पत्ति प्रकरण में ऋषि दयानन्द ने उद्धृत किया है।
अथर्वाङ्गिरसो मुखम्।
५. ब्राह्मण ग्रन्थों में-
अग्नेर्ऋग्वेदोः वायो यजुर्वेदः सूर्यात् सामवेदः।
६. उपनिषदों में चारों वेदों की चर्चा आती है। बृहदारण्यक में याज्ञवल्क्य-मैत्रेयी संवाद में –
तस्य निश्वसितमेतद् ऋग्वेदो यजुर्वेदः सामवेदो अथर्ववेदः।
छान्दोग्य में सनत्कुमार और नारद के संवाद में नारद सनत्कुमार को अपनी विद्या का परिचय देते हुए कहते हैं-
ऋग्वेदं भगवोऽध्योमि,
यजुर्वेदमध्येमि सामवेदमथर्ववेदं।
तैत्तिरीय शिक्षा वल्ली में साम की चर्चा है-
साम्ना शंसन्ति यजुभिर्ययजन्ति।
मुण्डक में अथर्ववेद का विस्तार से उल्लेख मिलता है-
ब्रह्मा देवानां….।
यहाँ पर ब्रह्म विद्या को अथर्व विद्या का विषय बताया है और ऋषियों की लम्बी परम्परा का उल्लेख किया है।
७. रामायण में किष्किन्धा काण्ड में राम-लक्ष्मण के साथ हनुमान् के प्रसंग में लक्ष्मण राम से हनुमान् की योग्यता का वर्णन करते हुए कहते हैं-
नानृग्वेदविनीतस्य नायजुर्वेदधारिणः।
नासामवेदविदुषः शक्यमेवं प्रभाषितुम्।।
नूनं व्याकरणं कत्स्नमनेन बहुधा श्रुतम्।
बहुव्याहरतानेन न किंचिदपशब्दितम्।।
न मुखे नेत्रयोर्वोपि ललाटे च भ्रुवोस्तथा।
अन्येष्वपि च गात्रेषु दोषः संविदितः क्वचित् अस्थिरमसिन्दिरधमविलम्बितमद्रुतम्।
उरःस्थं कण्ठगं वाक्यं वर्तते मध्यगे स्वरे।।
संस्कार क्रम सम्पन्नामद्रुतामविलम्बिताम्।
उच्चारयति कल्याणीं वाचं हृदयहरिणीम्।।
अनया चित्रया वाचा त्रिस्थानव्यञ्जनस्थया कस्य नाराध्यते चित्तमुद्यतासेररेरपि।।
– कि.का. ३/२८-३३
अत्राभ्युदाहरन्तीमां गाथां नित्यं क्षमावहाम्।
गीताः क्षमावतां कृष्णे काश्यपेन महात्मना।।
क्षमा धर्मः क्षमा यज्ञः क्षमा वेदाः क्षमा श्रुतम्।
यस्तमेवं विजानाति स सर्वं क्षन्तुर्महति।।
– महाभारत वन पर्व २९/३८-३९
इन श्लोकों में महाराज युधिष्ठिर द्रौपदी को उपदेश दे रहे हैं, महात्मा कश्यप की गाई गाथा का उल्लेख कर बता रहे हैं, क्षमा ही वेद हैं, यहाँ वेद का बहुवचन में प्रयोग किया गया है।
ऋचो बह्वृच मुख्यैश्च प्रेर्यमाणाः पदक्रमैः।
शुश्राव मनुजव्याघ्रो विततेष्विह कर्मसु।।
अथर्ववेदप्रवराः पूर्वयाज्ञिकसंमताः।
संहितामीरयन्ति स्म पदक्रमयुतां तु ते।।
-महाभारत आदि पर्व अ. ६४/३१, ३३
जब दुष्यन्त कण्व के आश्रम में प्रवेश करते हैं, तब आश्रम के वातावरण में ऋग्वेद के विद्वान् पद और क्रम से ऋचाओं का पाठ कर रहे थे। अथर्ववेद के विद्वान् पद व क्रम युक्त संहिता का पाठ पढ़ रहे थे।
इससे पता लगता है कि दुष्यन्त के काल में अथर्ववेद संहिता का क्रम पाठ व पद पाठ पढ़ा जाता था।
महाभारत के अनेक प्रसंग हैं, जिनमें वेदों के लिये बहुवचन का प्रयोग मिलता है।
पुरा कृतयुगे राजन्नार्ष्टिषेणो द्विजोत्तमः।
वसन् गुरुकुले नित्यं नित्यमध्ययने रतः।।
तस्य राजन् गुरुकुले वसतो नित्यमेव च।
समाप्तिं नागमद्विद्या नापि वेदा विशांपते।।
– महा. शल्य पर्व अध्याय ४१/३-४
अर्थात् प्राचीन काल में कृतयुग में आर्ष्टिषेण गुरुकुल में पढ़ता था, तब वह न विद्या समाप्त कर सका, न ही वेदों को समाप्त कर सका।
वेदैश्चतुर्भिः सुप्रीताः प्राप्नुवन्ति दिवौकसः।
हव्यं कव्यं च विविधं निष्पूर्तं हुतमेव च।।
– महा. द्रोण पर्व अध्याय ५१/२२
अर्थात् राम के राज्य में चारों वेद पढ़े हुये विद्वान् लोग थे।
ब्रह्मचर्येण कृत्स्नो मे वेदः श्रुतिपथं गतः।
– महा. आदि पर्व ७६/१३
इसमें ययाति ने देवयानी से कहा है- मैंने ब्रह्मचर्य पूर्वक सम्पूर्ण वेदों को पढ़ा है।
राज्ञश्चाथर्ववेदेन सर्वकर्माणि कारयेत्।
– महा. शान्ति पर्व ७/५
भीष्म ने उशना का प्राचीन श्लोक उद्धृत कर राजा पुरोहित से अथर्ववेद द्वारा सारे कार्य करावे। यहाँ अथर्ववेद का स्पष्टतः उल्लेख है। – धर्मवीर