घर में सदस्यों के मध्य सौमनस्य कैसे बना रहे, इसके उपाय इस मन्त्र में बताये गये हैं, उनमें प्रथम है- सदस्यों का खानपान समान हो। भोजन आच्छादन के पश्चात् व्यवहार में आने वाले साधन और किये जाने वाले कार्य भी समान हों। इस मन्त्र में एक महत्त्वपूर्ण बात कही गई है, हमारे परिवार में सामान्य रूप से जिस प्रकार के कार्य होते हैं, उन्हें सपन्न करने के लिए उसी प्रकार के साधन भी अपनाये जाते हैं। आजकल साधन केवल सपन्नता के प्रतीक बनकर रह गये है। आपके घर में कैसे साधन हैं। वे कितने नये, कितने मूल्यवान हैं, यही बात महत्त्वपूर्ण हो गई है।
साधन आवश्यक तो हैं, साधनों की उपस्थिति मनुष्य को सपन्न बनाती है। साधन साध्य के लिये होते हैं। साध्य को सिद्ध करने के काम आते हैं। यदि ये साधन साध्य को सिद्ध करने में समर्थ नहीं हैं तो साधन व्यर्थ का बोझ बन जाते हैं। साधनों की जहाँ तक आवश्यकता होती है, उनका वहीं तक संग्रह उचित है परन्तु अधिक साधन मनुष्य को अपना सेवक बना लेते हैं। साधनों को संग्रह करने के लिये धन का संग्रह करना पड़ता है। यथाकथंचित् उतना धन संग्रह में लग जाता है। फिर उस संग्रह का उपयोग होने या न होने की दशा में उनके रख रखाव पर धन और समय का अपव्यय करना पड़ता है। हमारे जीवन में साध्य छूट जाता है। साधन ही साध्य का स्थान ले लेते हैं। कभी हमारे इन घर, वाहन, वस्त्र, आभूषण या धन आदि की जीवन को चलाने के लिये आवश्यकता होती है परन्तु जब साधन साध्य का स्थान लेने लगते हैं तो हमारी साधना व्यर्थ हो जाती है। हमारा साधनों के प्रति प्रेम इतना बढ़ जाता है कि हम इन वस्तुओं की सेवा में ही पूरा जीवन और सामर्थ्य समाप्त कर देते हैं, वेद कहता है- साधन आपके लिये हैं, आप साधनों के लिये नहीं। अतः मनुष्य को साधनों के आधीन नहीं होना चाहिए।
हमारे देश में साधन सपन्न दो ही वर्ण होते हैं- प्रथम क्षत्रिय और दूसरा वैश्य तथा आश्रम परपरा में तो केवल एक ही आश्रम साधनों की सपन्नता रखता है, शेष तीन तो इसी एक आश्रम पर नर्िार रहते हैं और इस परिस्थिति को ही आदर्श माना गया है। चार आश्रमों में केवल एक गृहस्थ को ही सपन्नता का अधिकार दिया गया है। शेष ब्रह्मचारी, वानप्रस्थी व संन्यासी तीनों ही गृहस्थ पर सर्वथा निर्भर करते हैं। तो क्या शेष तीन आश्रमों के पास साधन नहीं होने चाहिएं। साधन तो चाहिए परन्तु इनके उपार्जन का सामर्थ्य उनके आश्रमवस्था में सिद्ध करने वाले प्रयोजनों को व्यर्थ कर देंगे। विद्यार्थी के पास न साधन हैं, न आवश्यकता है, उनकी चिन्ता तो माता-पिता को भी नहीं करनी। ब्रह्मचारियों की चिन्ता करना समाज और राज्य का विषय है। वानप्रस्थी और संन्यासी को साधनों की आवश्यकता अत्यन्त न्यून हो जाती है, उनका भार समाज पर है। इस प्रकार साधन सपन्न रहकर सभी आश्रमों की सेवा करना एक गृहाश्रमी का दायित्व है।
इसी प्रकार वर्ण व्यवस्था में ब्राह्मण को साधनों के संग्रह का निर्देश नहीं है, उसे अपना जीवन ज्ञान की खोज, संग्रह और उसके प्रचार-प्रसार में लगाना है, यदि इसमें साधनों की आवश्यकता पड़े तो उसका उत्तरदायित्व समाज और राज्य का है। यहाँ ध्यान रखने की बात है, ये लोग साधन जुटाने का सामर्थ्य नहीं रखते, ऐसा नहीं है। परन्तु साधनों के उपार्जन करने में समय, धन और परिश्रम लगता है, यह सब ज्ञान की तुलना में तुच्छ है, अतः मुय विषय पर समय लगाने की बात शास्त्र करता है। शूद्र के पास सामर्थ्य का अभाव है, अतः उसे किसी प्रकार बाध्य नहीं किया गया।
मन्त्र में साधन को साध्य के लिये लगाने की बात कही है। हमारे पास हमारे जीवन के प्रयोजन को सिद्ध करने योग्य साधन होने चाहिये और साधनों को पूरा उपयोग धर्मार्थ की सिद्धि के लिये किया जाना उचित होगा तभी परिवार में विरोध का भाव उत्पन्न नहीं होगा। मनुष्य के आराम, विलास, आलस्य, प्रमाद की स्थिति में साधन अपव्यय और संघर्ष का कारण बनते हैं। अतः कहा है- समाने योक्त्रे सह वो युनज्मि तुहें समान साधन देकर सत्कर्मो में लगाता हूँ।