समानी प्रपा सहवोऽन्नभागः
घर में भोजन सब को आवश्यकता और स्वास्थ्य के अनुकूल मिलना चाहिए। घर में सौमनस्य का उपाय है भोजन में समानता। वास्तव में सुविधा व असुविधाओं को सयक् विभाजन तथा सयक् वितरण सुख-शान्ति का आधार है। साथ-साथ भोजन करने का बड़ा महत्त्व है, साथ-साथ भोजन करने से प्रसन्नता बढ़ती है, स्वास्थ्य का लाभ होता है। साथ भोजन करने से सबको समान भोजन मिलता है। जहाँ पर अकेले-अकेले भोजन किया जाता है, वहाँ शंका रहती है, स्वार्थ रहता है। परिवार में ही नहीं, समाज में भी सहभोज का आयोजन किया जाता है, इन आयोजनों को प्रीतिभोज भी कहते हैं। ये समाज में सहयोग और प्रेम बढ़ाने के साधन होते हैं।
घर में जो भी बनाया जाये, उसका कम है तो समान वितरण हो और पर्याप्त है तो यथेच्छ वितरण करना उचित होता है। भोजन में मनु महाराज ने खाने के क्रम में अतिथि, रोगी, बच्चे, गर्भिणी को प्रथम खिलाने का विधान किया गया है। भोजन का विधान करते हुए मनु ने गृहस्थ के लिये दो प्रकार से भोजन करने के लिये कहा है। गृहस्थ भुक्त शेष खा सकता है या हुत शेष खा सकता है। भुक्त शेष का अर्थ है- अतिथि को भोजन कराके भोजन करना तथा हुत शेष का अर्थ है यज्ञ में आहुती देने के पश्चात् गृहस्थ भोजन का अधिकारी होता है। भोजन की यह व्यवस्था बड़ी मनोवैज्ञानिक है। मनुष्य अकेला होता है तो भोजन व्यवस्थित नहीं कर पाता है। विशेष रूप से हम घरों में देखते हैं गृहणियाँ जब पति-बच्चे घर में होते हैं तो भोजन यथावत् बनाती हैं और यदि वे अकेली रह जाती हैं, तो वे भोजन बनाने में आलस्य करके जैसे-तैसे बनाकर खा लेती हैं। इसी कारण शास्त्र ने मनुष्य को उचित भोजन करने के लिये एक व्यवस्था बना दी, गृहस्थ हुत शेष खाये या भुक्त शेष खाये।
हुत शेष या भुक्त शेष खाने में जो रहस्य है, यदि वह समझ में आ जावे तो मनुष्य की कभी अतिथि को खिलाने में संकोच नहीं करेगा। किसी गृहस्थ के घर पर जब अतिथि आता है तो मनुष्य चाहे कितना भी निर्धन या गरीब क्यों न हो, वह यथाशक्ति यथा साव अतिथि को अच्छा भोजन कराना चाहता है, अतः अतिथि घर में आता है तो विशेष भोजन बनाया ही जाता है। इसी प्रकार मनुष्य मन्दिर के लिये कुछ बनाकर ले जाता है तब अच्छा बना कर ले जाना चाहता है। यज्ञ के लिए बनाना चाहता है तो अच्छा ही बनाया जाता है। इसी कारण हमारे ऋषियों ने हमारे लिये अपने लिये पकाने और अकेले अपने आप खाने का निषेध किया है। गीता में श्री कृष्ण ने कहा है जो केवल अपने लिये पकाता है और आप अकेले ही खाता है, वह पाप ही पकाता है और पाप ही खाता है। इसके विपरीत यज्ञ के लिये पकाता है और यज्ञ शेष खाता है, वह पुण्य ही पकाता है और पुण्य ही खाता है। हम हवन के लिये बनाते हैं, बनाते तो बहुत हैं, थोड़ा-सा देर यज्ञ में डालते हैं, शेष सबको वितरित करते हैं, प्रसाद के रूप में बांटते हैं। बनाया यज्ञ के निमित्त है, इसलिये इसे यज्ञ शेष कहते हैं। भगवान के निमित्त बनाते हैं, अतः बांटते समय उसे प्रसाद कहते हैं। मूल रूप से प्रसाद संस्कृत का शब्द है, इसका अर्थ प्रसन्नता है। प्रसन्नता से किया गया कार्य प्रसाद है।
हम समझते हैं अतिथि को भोजन कराने से हमारी हानि होती है। यज्ञ करने से व्यय होता है परन्तु व्यवहार यह बताता है कि इस नियम का पालन करने वाले सदा सुखी और प्रसन्न रहते हैं। जो इसको अन्यथा समझते हैं, उनको तो दुःख भोगना ही पड़ता है। मनुष्य विवशता में बाँटता नहीं है, उस समय उसकी वृत्ति समेटने की रहती है। जब मनुष्य प्रसन्न होता है तभी उदार भी होता है। इसीलिये आम भाषा में कहते हैं- खुले हाथों से बाँटना, अर्थात् खुले हाथों से वही बाँट सकता है जिसका दिल खुला हो, हृदय उदार हो। खिलाने के सुख का अनुभव करना दुनिया से भूख के दुःख को दूर करने का एक मात्र उपाय है और परिवार में साथ बैठकर खाना प्रसन्नता और सुख का आधार है।