परिवार में शान्ति और सुखपूर्वक कैसे रहा जा सकता है, इसके लिये इस वेद मन्त्र में उपाय बताये गये हैं। पहला है- अपने चित्त को उदार करना, दूसरा- परस्पर द्वेष भाव न रखना, तीसरा- परस्पर मिलकर कार्य करना, चौथा– परिवार को एक केन्द्र के साथ बांधकर रखना, पाँचवाँ- परिवार के सदस्यों और अन्य सभी से प्रेमपूर्वक बोलना। छठा– सध्रीचीनान् वः संमनसस्कृणोमि। इस मन्त्र का शद है सध्रीचीनान्, ऋषि दयानन्द इसका अर्थ करते हैं- समान लाभालाभ से एक दूसरे के सहायक हैं।
परिवार संस्था समाज में कार्य करने का सिद्धान्त है- कार्य के हानि-लाभ के लिए सभी को समान सहायक समझें। मनुष्य जब परिवार में कार्य करते हैं, वहाँ छोटों के प्रति सबका समान स्नेह आवश्यक है। सदस्यों में मेरे-तेरे के भाव नहीं होने चाहिए, सभी सदस्यों को समदृष्टि से देखना चाहिए। पक्षपात और स्वार्थ का भाव मनों में दूरी उत्पन्न करता है। यह भाव बहुत छोटी-छोटी बातों से परिलक्षित होता है। इस भाव को बुद्धि से विचारपूर्वक ही दूर किया जा सकता है। मनुष्य का स्वभाव मोह और लोभ का होता है। अपने स्नेहपात्र को देखकर मनुष्य के मन में पक्षपात का भाव आ जाता है। मन्दिर में प्रसाद बांटते हुए परिचित को देखकर मनुष्य प्रसाद की मात्रा बढ़ा देता है। भोजन की पंक्ति में अपने मित्र-सबन्धी को देखकर अच्छी वस्तु और अधिक मात्रा में देना स्वाभाविक है, जब भी ऐसा अवसर आये, उस समय बुद्धि से थोड़ा भी विचार करें तो बुराई से रुका जा सकता है। दूसरा विवाद का अवसर आता है जब हानि की परिस्थिति में हम दूसरे को दोषी ठहराने का प्रयत्न करते हैं तो परिवार में सामञ्जस्य नहीं रह सकता। लाभ को अपने पक्ष में और हानि को दूसरे के पक्ष में डालने का मनुष्य का स्वभाव है। यह बात घर या समाज सब स्थानों पर घटित होती है। इसलिये वेद कहता है- लाभ-अलाभ में समान सहयोगी बनें, यही सूत्र परिवार में सामञ्जस्य रखने का है।
इस मन्त्र में मनुष्य के मनोविज्ञान की ओर भी इंगित किया गया है, परिवार या समाज में विघटन या विभाजन का प्रमुख कारण है, अपनी भावनाओं पर बुद्धि का नियन्त्रण न होना। पशु भी वही व्यवहार करता है, मनुष्य भी वही व्यवहार करता है, जब वह भावनाओं में बहता है उस समय संवेगों से प्रेरित होकर कार्य करता है। इसी कारण इस आचरण को पाशविक वृत्ति कहा गया है। जब संवेग के वशीभूत होकर मनुष्य का मन स्वार्थ व पक्षपात की ओर झुक जाता है, उस समय उस पर बुद्धि का अंकुश रहना आवश्यक है। पशु तो दण्ड से ठीक मार्ग पर चलता है, मनुष्य पशु नहीं है, उसका सन्मार्ग पर चलना बुद्धि के अंकुश से ही सभव है। मनुष्य को साधु-संगति, सज्जनों का उपदेश, शास्त्र का चिन्तन, ईश्वर-भक्ति, स्वार्थ और पक्षपात छोड़ने में समर्थ बनाती है।
आदमी के मन में थोड़ी सी वस्तु या थोड़े से धन का लोभ विपरीत मार्ग पर चलने के लिए विवश करता है। हानि का भय उसे उल्टा चलने के लिये प्रेरित करता है। यदि मनुष्य इन परिस्थितियों पर भावनाओं में न बहकर बुद्धि से निर्णय करे तो वह अनुचित कार्य करने से बच जाता है। सभावित हानि से परिवार, समाज का हित जब उसे बड़ा लगेगा तब वह स्वार्थ के जाल में फंसने से बच जायेगा। हानि का भय तभी तक होता है, जब तक मनुष्य हानि को बड़ा समझता है। जैसे ही मनुष्य हानि को सहने के लिए अपने को तैयार कर लेता है, वह आत्मविश्वास से भर जाता है। उसे कोई भय नहीं लगता, उसकी उदारता से उसे संगठन या परिवार के सदस्यों का सबल मिल जाता है और बहुत बार मनुष्य पर ईश्वर की ऐसी कृपा होती है कि जिस विपत्ति से या सभावित हानि से वह भयभीत हो रहा था, वह विपत्ति उस पर आती ही नहीं है।
इस शद को समझने से व्यक्ति को दो लाभ होते हैं। यदि पक्षपात या स्वार्थ का अवसर आता है तो विचार से मनुष्य उससे अपने को रोक लेता है। जब हानि के भय से अनुचित करना चाहता है तब विचार उसके अन्दर आत्मविश्वास उत्पन्न कर देता है, वह ईश्वर की कृपा का पात्र बन जाता है। इसलिए मन्त्र में परिवार को सुखी और स्नेहसिक्त बनाने की भावना है- मनुष्य को हानि-लाभ में सबका भागीदार बनना चाहिए।