देश में अनेक त्रुटियाँ हैं, गवेषणा नहीं कही जाती । शतपथादि ब्राह्मण ग्रन्थों में तथा महाभारत, रामायण, पुराणों में बहुत सी ऐसी आख्यायिकाएँ उक्त हैं जिनसे बड़े-बड़े मानव हितकारी सिद्धांत निकलते हैं, क्योंकि वेदों से वे सब आए हुए हैं, किन्तु कथा के स्वरूप में वे वैदिक सिद्धान्त लिखे गये हैं, अतः उनका आशय आज सर्वथा अस्त-व्यस्त हो गया है । उदाहरण के लिये, मैं वेदों के सुप्रसिद्ध वसिष्ठ और अगस्त दो ऋषियों को प्रस्तुत करता हूँ। क्या यह सम्भव है कि दो पुरुषों के बीज मिलकर बालकों को उत्पन्न करें, वह भी साक्षात मातृगर्भ में नहीं किन्तु स्थल और घट में उत्पत्ति हो ? उर्वशी के दर्शन मात्र से मित्र और वरुण दो देवों का चित्त चञ्चल हो जाए ? उनसे तत्काल ही एक या दो सुभग बालक उत्पन्न हों और तत्काल ही देवगण उन्हें कमल के पत्रों पर बिठला उनकी स्तुति पूजा करें ? उनमें से एक बालक सम्पूर्ण सूर्यवंशी राजाओं का पुरोहित बन सृष्टि की आदि से प्रलय तक अजर-अमर हो एक रूप में सदा स्थिर रहे ? क्या यह सम्भव है कि वसिष्ठ की एक गौ जो चाहे सो करे ? हजारों प्रकार की सेनाओं को वह स्वयं रच ले, पृथिवी के समस्त पदार्थ उसकी आज्ञा में हाथ जोड़कर खड़े रहें, इस शबला गौ के लिए वसिष्ठ और विश्वामित्र में तुमुल संग्राम हो ? वसिष्ठ के शतपुत्रों को विश्वामित्र मरवा दे, इस शोक में वसिष्ठ सुमेरु पर्वत के सबसे ऊपर के शिखर पर से गिरें तो भी न मरें । अग्नि उन्हें न जलावे, समुद्र इनसे डर जाए । हाथ, पैर और सब अंगों को बाँध नदियों में डूबने को जाएँ, किन्तु
नदियाँ भाग जाएँ इनके बँधन को तोड़ डालें इत्यादि शतशः कथाएँ वशिष्ठ के विषय में जो कही जाती हैं उनका क्या आशय है ? क्या सचमुच ये वसिष्ठ और अगस्त्य दो महान् ऋषि वेश्या पुत्र हैं । उर्वशी कोई वेश्या है ? क्या मित्र और वरुण कोई ऐसे तुच्छ देव हैं, जो झट स्त्री पर मोहित हो जाते ? इत्यादि । क्या इनकी सत्यता के अन्वेषण के लिए कभी हम प्रयत्न करते हैं ? निःसन्देह यह अद्भुत कथा है । इससे अति गूढ़ बातें निकलती हैं। मित्र और वरुण के पुत्र वसिष्ठ एवं अगस्त्य की आख्यायिका से राज्य व्यवस्था सम्बन्धी एक परम उपयोगी वैदिक सिद्धान्त विनिःसृत होता है, अतः मैं इस भाग में इसको प्रथम दर्शा पश्चात् वसिष्ठ सम्बन्धी अन्यान्य कथाओं का आशय प्रकट करूँगा । इसको ध्यान से आप लोग पढ़ें ।
इसके लिए प्रथम यह जानना आवश्यक है कि स्वतन्त्र और अज्ञानी राजा से देश की कितनी हानि हुई है और हो रही है । अतएव पृथिवी पर के सभ्य देशों में आजकल दो प्रकार के राज्य हैं। एक प्रजाधीन, दूसरा सभाधीन अर्थात् जिसमें राजा को सभा की आज्ञा का वशवर्ती होना पड़ता है । सर्व विद्वानों की प्रायः इसमें एक सम्मति है कि प्रजाधीन ही राज्य चाहिए और यही मनुष्यता है। ज्यों-ज्यों मनुष्यता की वृद्धि होगी त्यों-त्यों स्वयं राज्य व्यवस्था शिथिल होती जाएगी, क्योंकि प्रत्येक मानव निज कर्तव्य को अच्छी प्रकार निबाहेगा । इतिहास से विदित होता है कि जब-जब राजा उच्छृंखल हुआ है तब-तब महती आपत्ति प्रजाओं में आई हैं । अतः वेद में ऐसा वर्णन आता है
यत्र ब्रह्म च क्षत्रञ्च सम्यञ्चौ चरतः सह ।
तं लोकं पुण्यं प्रज्ञेषं यत्र देवाः सहाग्निना ॥
– यजु० २० । २५
ब्रह्म = ज्ञान, विज्ञान, परमज्ञानी जन, धर्मतत्वज्ञ, धर्माध्यक्ष पुरुषों की महती सभा इत्यादि । क्षत्रबल, प्रजाशासक वर्ग, धार्मिक बली, प्रजा शासकों की महती सभा इत्यादि । प्रज्ञेषम् = प्रजानामि जानता हूँ । देव – प्रजावर्ग, शास्य प्रजाएँ । अग्नि-परमात्मा, ब्राह्मण, अग्निहोत्रादि कर्म यद्यपि वैदिक शब्द लोक में भी प्रयुक्त हुए हैं, परन्तु लोक में उन वैदिक शब्दों के अर्थ में बहुत कुछ परिवर्तन हो गया है। वेदों के अर्थों के विचार से वे वे अर्थ अच्छी प्रकार भासित होने लगते हैं । अथ मन्त्रार्थ – (तम्+लोकम्+ पुण्यम्+प्रज्ञेषम् ) उस लोक को मैं पुण्य समझता हूँ । (यत्र+ब्रह्म+च+क्षत्रन्+च ) जहाँ ज्ञान और बल अथवा ज्ञानी और बली अथवा धर्मव्यवस्थापक विद्वद्वर्ग और उस व्यवस्था के अनुसार शासन करने वाले राजगण (सम्यञ्चौ) अच्छी प्रकार मिलकर परस्पर सत्कार करते हुए (सह + चरतः ) साथ विचरण करते हैं, साथ ही सर्व व्यवहार करते हैं । (यत्र+देवा:) और जहाँ प्रजावर्ग (अग्निना + सह) ईश्वर, ज्ञानी और अग्निहोत्रादि शुभ कर्म के साथ विचरण करते हैं अर्थात् जहाँ सर्व प्रजाएँ आस्तिक हो शुभ कर्मों को यथा विधि करते हैं और ज्ञानियों के पक्ष में रहते हैं । वही देश-वही लोक पवित्र है ।
इदं मे ब्रह्म च क्षत्रं चोभे श्रियमश्नुताम् ।
मयि देवा दधतु श्रियमुत्तमां तस्यैते स्वाहा ॥
यजु० ३२ । १६
यह भी एक प्रार्थना है । (इदम+च+क्षत्रम्+च ) यह ज्ञानी और शासक वर्ग (उभे+मे+श्रियन् + अश्नुताम् ) दोनों ही मिलकर मेरी सम्पत्ति को भोग में लावें। (मयि+देवाः +उत्तमाम्+ श्रियम् + दधतु) मुझमें समस्त शुभाभिलाषी प्रजावर्ग उत्तम श्री सम्पत्ति स्थापित करे । (तस्यै+ते+स्वाहा ) हे सम्पत्ति ! तुम्हारे लिये मेरा सर्वस्व त्याग है । स्वाहा = स्व + आहा । स्व- धन । आहा सब प्रकार से त्याग । अपने स्वत्त्व को सर्व प्रकार से त्याग करने का नाम स्वाहा है। उन पूर्वोक्त दो मन्त्रों में ही नहीं किन्तु यजुर्वेद के बहुत स्थलों में ब्रह्म और क्षत्र दोनों को मिलकर व्यवहार करने का वर्णन आता है। दो-चार उदाहरण ये हैं-
स न इदं ब्रह्म क्षत्रं पातु । – यजु० १८ । ३८
वह ब्रह्म और क्षत्र हमको पाले । यही वाक्य इस अध्याय की ३९, ४०, ४१, ४२, ४३ वीं कण्डिकाओं में आया है ।
सोमः पवतेऽस्मै ब्रह्मणेऽस्मै क्षत्राय ॥ ७ ॥ २१ ॥ परमात्मा इस ब्रह्म और क्षत्र को पवित्र करता है | ब्रह्मणे पिन्वस्व क्षत्राय पिन्वस्व । ३८ | १४ ॥
हे भगवान! ब्रह्म और क्षत्र को उन्नत करो । पुनः प्रार्थना आती है, देवा ऋ० प्रजापति दे० भूरिगार्गी पंक्ति पंचम कि-
स नो भुवनस्य पते प्रजापते यस्य त उपरि गृहा यस्य वेह | अस्मै ब्रह्मणेऽस्मै क्षत्राय महि शर्म यच्छ स्वाहा ।
– यजु० १८ । ४४ ( भुवनस्य+पते+प्रजापते) हे सम्पूर्ण विश्वाधिपति प्रजापति परमात्मन्! (यस्य ते उपरि + गृहाः ) जिस आपके गृह ऊपर हैं । (यस्य+ वा + इह ) जिस आपके गृह इस लोक में हैं अर्थात् जो आप सर्वव्यापक हैं। (सः+नः+अस्मै+ब्रह्मणे+अस्मै + क्षत्राय) सो आप मेरे इस परम ज्ञानी वर्ग को और शासक वर्ग को (महि+ शर्म + यच्छ) बहुत कल्याण देवें । (स्वाहा) हे परमात्मन् ! आपके लिए मेरा सर्व त्याग है |
अब अनेक उदाहरण देने की आवश्यकता नहीं । वेदों को विचारिये मालूम होगा कि जब ज्ञान और बल दोनों मिलकर कार्य करते हैं तब ही परम कल्याण होता है । अतएव मनु जी बहुत जोर देकर कहते हैं कि- दशावरा वा परिषद् यं धर्मं परिकल्पयेत् । त्र्यव्यवरा वापि वृत्तस्था तं धर्मं न विचालयेत्” । न्यून से न्यून दश विद्वानों की अथवा बहुत न्यून हो तो तीन विद्वानों की सभा जैसी व्यवस्था करे, उसका उल्लंघन कोई भी न करे |