सेवाधन के धनी आर्य नेता वैद्य रविदत्त जीः-
ब्यावर के आर्य मन्दिर में एक रोगी, वयोवृद्ध महात्मा की दो आर्य पुरुष अत्यन्त भक्तिभाव से सेवा किया करते थे। उसे स्नान आदि सब कुछ ये ही करवाते थे। एक जैनी ने इनको सुधबुध खोकर सेवा करते कई बार देखा। एक दिन उसने आर्य सेवक वैद्य रविदत्त जी से कहा, ‘‘क्या मेरी अन्तिम वेला में भी ऐसी सेवा हो सकती है?’’ वैद्य जी ने कहा, ‘‘भाई, आपने इच्छा व्यक्ति की है तो आपकी भी अवश्य करेंगे।’’
उसने अपनी सपत्ति की वसीयत आर्य समाज के नाम कर दी। समय आया, वह रुग्ण हो गया। सभवतः शरीर में ….. पड़ गये। वैद्यजी अपने सैनिक ओमप्रकाश झँवर को साथ लेकर समाज मन्दिर में उसका औषधि उपचार तो करते ही थे, मल-मूत्र तक सब उठाते। मल-मल कर स्नान करवाते। संक्षेप से यह जो घटना दी है, यही तो स्वर्णिम इतिहास है। कहाँ किसी ने यह इतिहास लिखा है? स्कूलों, संस्थाओं व सपदा के वृत्तान्त का नाम इतिहास नहीं, इतिहास वही है, जो ऊर्जा का स्रोत है।