ऋग्वेद के सम्पूर्ण सप्तम मण्डल के द्रष्टा वसिष्ठ हैं । बहुत थोड़े से मन्त्रों के द्रष्टा वसिष्ठपुत्र भी माने जाते हैं । इसी मण्डल में वसिष्ठ सम्बन्धी बहुत सी प्रचलित वार्त्ताओं का बीज पाया जाता है ।” अमीवहा वास्तोष्पते” इत्यादि ५५ वें सूक्त को प्रस्वापिनी उपनिषद् नाम से अनुक्रमणिका कार लिखते हैं । वृहद्देवता इसके विषय में विलक्षण कथा गढ़ती है, वह यह है – ” एक समय वरुण के गृह पर वसिष्ठ गए, इनको काटने के लिए भौंकता हुआ एक महाबलिष्ठ कुत्ता पहुँचा । तब वशिष्ठ ने ” यदर्जुन ” इत्यादि दो मन्त्रों को
पढ़कर उसको सुलाया और पश्चात् अन्यान्य मन्त्रों से वरुण सम्बन्धी सब मनुष्यों को भगा दिया । ” कोई आचार्य इस सूक्त पर यह आख्यायिका कहते हैं- “एक समय तीन रात्रि तक वसिष्ठ को भोजन न मिला तब चौथी रात्रि चोरी करने को वरुण के गृह पहुँचे । द्वार पर बहुत से आदमी और कुत्ते सोए हुए थे । इनको सुलाने के लिए वसिष्ठ जी ने इस ५५ वें सूक्त को देखा और उसका जप किया इत्यादि बातें सायण ने इस सूक्त के भाष्य के आरम्भ में ही दी हैं, अतः प्रथम सूक्त के शब्दार्थ कर आशय बतलाऊँगा ॥
अमीवहा वास्तोष्पते विश्वारूपाण्याविशन् ।
सखा सुखेव एधि नः ॥ १ ॥ – ऋ० ७1५५
अमीवहा= अमीव+हा । अमीव = रोग । हा-नाशक । वास्तोष्पते = वास्तो: +पते । वास्तु-गृह । संसाररूप गृहपति परमात्मा । यहाँ कोई उपासक कहता है कि ( वास्तो: + पते ) हे गृहाधिदेव ! समस्त गृहों में निवास करने हारे परमात्मन्! ( अमीवहा) आप मानसिक, आत्मिक तथा दैहिक सर्व रोग के निवारक हैं । (विश्वा+रूपाणि + आविशन्) आप सर्व रूपों में प्रविष्ट हैं । हे भगवान् ! (सखा) मित्रवत्, परमप्रिय और (सुशेवः) परम सुखकारक (न: + एधि) हमारे लिए हो जाइए। इतनी ईश्वर से प्रार्थना कर अब आगे कहते हैं कि-
यदर्जुन सारमेय दतः पिशङ्ग यच्छसे । वीव भ्राजन्त ऋष्टय उप स्रक्क्रेसु बप्सतो नि षु स्व ॥ २ ॥ स्तेनं राय सारमेय तस्करं वा पुनःसर । स्तोतृनिन्द्रस्य रायसि किमस्मान्दुच्छुनायसे नि षु स्वप ॥ ३ ॥ त्वं सूकरस्य दर्दृहि तवदर्दर्तु सूकरः । स्तोतृनिन्द्रस्य० ॥ ४॥
– ऋ० ७/५५ ॥
अर्जुन- श्वेत, सफेद । सारमेय – सरमा का पुत्र । देवसुनी का नाम सरमा है । दत्-दांत । ऋष्टि- आयुध, अस्त्र । राय – आओ । रायसि गच्छसि = जाते हो । अथ मन्त्रार्थ – (अर्जुन + सारमेय) हे श्वेत सारमेय ! (पिशंग) हे कहीं-कहीं पिंगलवर्ण! कुत्ते ( यद्+दतः + यच्छसे) जब तुम अपने दाँतों को दिखलाते हो तब वे दाँत (स्रक्वेषु + उप) ओष्ठ के कोने में (ऋष्टय: +इव + वि + भ्राजन्ते ) आयुध के समान चमकने लगते हैं और ( बप्सतः ) हमको खाने के लिए दौड़ते हो ॥ २ ॥ ( सारमेय+ पुन: सर) हे सारमेय ! हे पुनः सर ! पुनः – पुनः मेरी ओर आने वाले कुत्ते ! ( स्तेनं + तस्करम् + राय) तू चोर की ओर जा । (इन्द्रस्य + स्तोतृन् + अस्मान् + किम् + रायसि) परमात्मा के स्तुतिपाठक हमारी ओर तू क्यों आता है और (दुच्छुनायसे) क्यों हमको बाधा देता है। (नि+सु + स्वप) हे कुत्ते ! तू अत्यन्त सो जा ॥ ३ ॥ ( त्वम्+ सूकरस्य + दर्दृहि ) तु सूकर को काट खा ( सूकरः+तव + दर्दर्तु ) और सूकर तुझको काट खाय (इन्द्रस्य + स्तोतॄन्० ) इत्यादि पूर्ववत् ॥ ४ ॥
सस्तु माता सस्तु पिता सस्तु श्वा सस्तु विश्पतिः ।
ससन्तु सर्वे ज्ञातयः सस्त्वय मभितोजनः ॥ ५॥
य आस्ते यश्चरति यश्च पश्यति नोजनः । तेषां संहन्मो अक्षाणि यथेदं हर्म्यं तथा ॥ ६ ॥
ऋ०७1५५
(माता+सस्तु+पिता+सस्तु) हे सारमेय ! तेरे माता-पिता सो जाएँ । जो यह बड़ा कुत्ता है वह भी सो जाए। (विश्पतिः ) जो गृहपति है वह भी सो जाए इस प्रकार सब ही ज्ञाति और चारों तरफ के आदमी सो जाएँ। जो बैठा है, जो चल रहा है, जो हमको देखता है, उन सबकी आँखों को हम फोड़ते हैं । वे सब राजगृह के समान अचल होवें ॥ ६ ॥
प्रोष्ठेशयाः वह्येशया नारीर्यास्तल्पशीवरीः ।
स्त्रियोयाः पुण्यगन्धास्ताः सर्वाः स्वापयामसि ॥ ८ ॥
-ऋ० ७/५५ ( याः + नारी: + प्रोष्ठेशयाः ) जो स्त्रियाँ आंगन में सो गई हैं, (वह्येशयाः ) जो किसी बिछौने पर सोई हुई हैं, ( तल्पशीवरी: ) जो पलंग पर सोई हुई हैं, (याः + स्त्रियः + पुण्यगन्धाः ) जो स्त्रियां पुण्य गन्धवाली हैं, (ता:+सर्वा + स्वापयामसि) उन सबको मैं सुलाता हूँ ॥ ८ ॥
आशय-सरतीति सरमा । भोगविलास की ओर दौड़ने वाली जो यह महातृष्णा है यही शुनी अर्थात् कुत्ती है और इसी कुत्ती के ये आँख, कान आदि इन्द्रिय गुलाम हैं, अतः इसका नाम सारमेय है। अर्जुन श्वेत। इन इन्द्रियों में कोई श्वेत- सात्त्विक और कोई पिशंग अर्थात् राजस, तामस नाना वर्ण के हैं। ये दोनों प्रकार के इन्द्रिय परम दुःखदायी हैं और यह भी प्रत्यक्ष है कि इन्द्रियों का व्यवहार कुत्ते के समान है । अतः कोई उपासक प्रार्थना करता है कि हे कुत्ते समान इन्द्रियगण ! मुझे तुम क्यों दुःख देते हो। तुम तो जाओ अर्थात् शिथिल हो जाओ। तुम जानते नहीं कि हम परमात्मा के उपासक हैं, फिर तुम कैसे हमको काट सकते हो, तुम सो ही जाओ। मैं इन सब कुत्तों की आँखें फोड़ डालता हूँ इत्यादि । इससे जो कोई सचमुच कुत्ते को सुलाने का भाव समझते हैं वे बड़े अज्ञानी हैं। क्या मन्त्र पढ़ने से कुत्ते सो जाएँगे ? वेद के गूढ़-गूढ़ आशय को न समझ कैसी अज्ञानता लोगों ने फैलाई है । यहाँ सारमेय आदि शब्द इन्द्रिय वाचक हैं और “मैं स्त्रियों को सुलाता हूँ” इसका आशय यह है कि जब इन्द्रियगण अति
प्रबल होते हैं तब सबसे पहले स्त्रियों की ओर दौड़ते हैं । विषयी पुरुषों के लिए यह एक महाविषवल्ली है । अत: उपासक कहता है कि “मैं सब स्त्रियों को भी सुलाता हूँ” अर्थात् परमात्मा से प्रार्थना है कि स्त्रियों की ओर भी मेरा मन न जाए इत्यादि इसका सुन्दर भाव है । इससे चोरी की कथा गढ़ने वाले कदापि वेद नहीं समझ सकते । इसमें वसिष्ठ की कहीं भी चर्चा नहीं। यदि मान लिया जाए कि इस मण्डल के द्रष्टा वसिष्ठ होने से वसिष्ठ ही ऐसी प्रार्थना करते हैं तो भी कोई क्षति नहीं । मैं वैदिक इतिहासार्थ निर्णय में विस्तार से दिखला चुका हूँ कि वैदिक पदार्थानुसार ऋषियों के नाम दिये जाते हैं। जिस कारण वसिष्ठ अर्थात् सत्यधर्म की व्यवस्था का विषय इस मण्डल में है, अतः इसके द्रष्टा का नाम भी वसिष्ठ हुआ। सबको ऐसी प्रार्थना नित्य ही करनी चाहिए ।