वेद मन्त्र भावार्थ
-लालचन्द आर्य
आप परोपकारी के सभी अंकों में अनेक स्थानों पर महर्षि दयानन्द जी के वेद मन्त्रों के भावार्थ प्रकाशित करते हो, जिनसे पाठकों को ऋषि की विशेष मान्यताओं का बार-बार बोध होता रहता है। यह वेद प्रचार की एक उत्तम क्रिया है। मैं महर्षि दयानन्द के पाँच वेद मन्त्रों के भावार्थ परोपकारी में प्रकाशन के लिये भेज रहा हूँ, जिनके अध्ययन से वैदिक त्रैतवाद अर्थात् जीव, प्रकृति और परमात्मा के विषय में मेरी सभी शंकाओं का समाधान हो गया है। इन मन्त्रों के भावार्थ में ऋषि की विशेष मान्यतायें हैं-
- भावार्थ- जो मनुष्य विद्या और अविद्या को उनके स्वरूप से जानकर, इनके जड़-चेतन साधक हैं, ऐसा निश्चय कर सब शरीरादि जड़पदार्थ और चेतन आत्मा को धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की सिद्धि के लिये साथ ही प्रयोग करते हैं, वे लौकिक दुःख को छोड़कर परमार्थ के सुख को प्राप्त होते हैं जो जड़, प्रकृति आदि कारण वा शरीरादि कार्य न हो तो परमेश्वर जगत् की उत्पत्ति और जीव कर्म, उपासना और ज्ञान के करने को कैसे समर्थ हों? इससे न केवल जड़ और न केवल चेतन से अथवा न केवल कर्म से तथा न केवल ज्ञान से कोई धर्मादि पदार्थों की सिद्धि करने में समर्थ होता है। – महर्षि दयानन्द, यजुर्वेद, भावार्थ 40-14
- भावार्थ- इस मन्त्र में उपमालंकार है। जैसे अग्नि के कारण सूक्ष्म और स्थूल रूप हैं, वायु, अग्नि, जल और पृथिवी के भी हैं, वैसे सब उत्पन्न हुए पदार्थों के तीन स्वरूप हैं। हे विद्वन्! जैसे तुमहारा विद्या जन्म उत्तम है, वैसा मेरा भी हो। -महर्षि दयानन्द, ऋग्वेद, भावार्थ- मं. 1 सू. 163 म. 4
- भावार्थ-हे मनुष्यो! इस शरीर में दो चेतन नित्य हुए- जीवात्मा और परमात्मा वर्तमान है, उन दोनों में एक अल्प, अल्पज्ञ और अल्प देशस्य है। वह शरीर को धारण करके प्रकट होता, बुद्धि को प्राप्त होता और परिणाम को प्राप्त होता तथा हीन दशा को प्राप्त होता, पाप और पुण्य के फल का भोग करता है। द्वितीय परमेश्वर ध्रुव निश्चल, सर्वज्ञ, कर्म फल के समबन्ध से रहित है, तुम लोग निश्चय करो। – महर्षि दयानन्द ऋग्वेद म. 6, सु. 9, म. 4 भावार्थ
- भावार्थ- हे मनुष्यो! इस शरीर में सच्चिदानन्द-स्वरूप अपने से प्रकाशित ब्रह्म-द्वितीय, तृतीय-मन, चौथी- इन्द्रियाँ, पाँचवें- प्राण, छठा- शरीर वर्तमान है। ऐसा होने पर समपूर्ण व्यवहार सिद्ध होता है, जिनके मध्य में सबका आधार ईश्वर, देह, अन्तरण, प्राण और इन्द्रियों का धारण करने वाला और जीवादिकों का अधिष्ठान शरीर है, यह जानो। – महर्षि दयानन्द ऋग्वेद म. 6, सु. 9, म. 5 भावार्थ
- भावार्थ- जो ज्ञानी धर्मात्मा मनुष्य मोक्ष पद को प्राप्त होते हैं, उनका उस समय ईश्वर ही आधार है। जो जन्म हो गया- वह पहला और जो मृत्यु वा मोक्ष हो के होगा- वह दूसरा, जो है वह तीसरा और जो विद्या वा आचार्य से होता है- वह चौथा जन्म है। यह चार जन्म मिलके एक जन्म, जो मोक्ष के पश्चात् होता है, वह दूसरा जन्म है। इन दोनों जन्मों के धारण करने के लिये सब जीव प्रवृत्त हो रहे हैं, यह व्यवस्था ईश्वर के अधीन है। – महर्षि दयानन्द ऋग्वेद म. 1, सु. 31, म. 7
- भावार्थ- हे परमेश्वर और जीव! तुम दोनों में बल, विज्ञान तथा कर्मों की प्रेरणा एक साथ होते हैं। – महर्षि दयानन्द ऋग्वेद म. 1, सु. 16, म. 4
– म.नं. 1223/34, शीतलनगर, बागवालीगली, झज्जररोड, रोहतक, हरि.-124001