ज्यायस्वन्तश्चित्तिनो मा वि यौष्ट संराधयन्तः सधुराश्चरन्तः
अन्योऽन्यस्मै वल्गु वदन्त एत सध्रीचीनान्वः संमनसस्कृणोमि।।
– अथर्व. 3/30/5
परमेश्वर कहता है मनुष्यों इस घर में रहने के लिए रहने वालों के हृदय विशाल होने चाहिए। मनुष्य का दिल बड़ा होने पर ही सबका उसमें समायोजन हो सकता है। मनुष्य शरीर से लबा-चौड़ा होने पर हृदय भी उसका विशाल हो यह अनिवार्य नहीं है। आकार प्रकार में छोटे लगने वाले मनुष्य का दिल बड़ा हो सकता है, बड़े शरीर का मन छोटा हो सकता है। मनुष्य को उसके पास विद्यमान सामग्री थोड़ी लगती है, तब उसका हृदय संकुचित होता है। उसे भय लगता है मेरी वस्तु समाप्त हो जायेगी। मैं दरिद्र या अभावग्रस्त हो जाऊँगा। मनुष्य संकुचित विचारों वाला होता है, तब स्वार्थी बन जाता है। उसका स्व का घेरा छोटा होता है। व्यक्ति का स्व जितना छोटा होगा, मनुष्य उतना ही अधिक अन्याय और पक्षपात करता है। जब वह अपने को केवल अपने तक सीमित करता है, तब वह अपने से अधिक नहीं सोच पाता। घर परिवार में रहता हुआ भी व्यक्ति केवल अपनी चिन्ता करता है, अपने परिवार के अन्य सदस्यों के विषय में नहीं सोचता। मनुष्य स्वार्थी होता है, तो वह अपनी वस्तुओं का उपयोग केवल स्वयं करता है। ऐसे में एक मानसिकता ऐसे लोगों में देखी जाती है। वह अकेले ही भोजन करता है। वह दूसरे से भयभीत होकर औरों से छिपकर भोजन करना पसन्द करते हैं। साधनों का अपने लिये ही संग्रह करता है। मनुष्य अपने संस्कारों से व्यवहार करता है। यह संस्कार उसके पहले विचारों का परिणाम होता है। इन संस्कारों को श्रेष्ठ बनाकर सुधारा जा सकता है। यह विद्या व ज्ञान के प्राप्त करने से किया जाता है। इसके साथ उदार लोगों के संसर्ग से साधु-सन्तों के उपदेश से चित्त के संस्कारों में अन्तर लाया जा सकता है। मनुष्य के मन में विचारों की उदारता से ही मनुष्य सबको साथ लेकर चल सकता है। सब मनुष्य एक से नहीं होते हैं। सब अच्छे नहीं होते तो सब बुरे नहीं होते। मनुष्य के अन्दर अच्छा बुरा बनने की अपार सभावना होती है। अतः मनुष्य को बुराई से बचाकर अच्छाई की ओर ले जाने का प्रयत्न करना चाहिए, इसका उपाय है जो अपने से कम है उसको साथ लेकर चलना इसके लिए मनुष्य को सहनशील होना पड़ता है। अपनी वस्तु उनको बांटनी पड़ती है, जिनके पास नहीं है। जो अभाव-ग्रस्त है, उसकी सेवा सहायता करना, हमारे द्वारा तभी सभव है जब हमारा हृदय विशाल हो।
मनुष्य के विस्तार की सीमा उसके विचारों के साथ घटती बढ़ती है। एक मनुष्य जो केवल अपने लिए सोचता था, उससे वह बड़ा है, जो अपने परिवार के लिए सोचता है। परिवार में कोई पति-पत्नी बच्चे को ही अपना परिवार समझता है, तो दूसरा माता-पिता को भी समिलित करता है। तीसरा अपने माता-पिता जी अपने भाई-बहन, उनके परिवार सगे सबन्धियों को भी अपने परिवार में मानता है। इसमें कितने बड़े रूप में अपने परिवार को स्वीकार करना चाहिए। उसका एक ही नियम है, विचारों की दृ`िष्टि से सभी मनुष्य और प्राणिमात्र मनुष्य के परिवार में आते हैं। साधनों के विचार से जितने अधिक साधन जिसके पास है, वह अपने परिवार केा उतना विस्तार दे सकता है, उतना बड़ा बना सकता है। कम साधन होने पर परिवार के कर्त्तव्य, उत्तरदायित्व के साथ निश्चित होते हैं, परिवार में सदस्यों की आवश्यकता और साधनों की प्राप्ति और उनके वितरण में मनुष्य के हृदय की विशालता का पता चलता है। संकुचित हृदय बहुत साधन होने पर भी देने में भरोसा नहीं करता। विशाल हृदय कम साधन होने पर भी वितरण में कष्ट अनुभव नहीं करता। हृदय की विशालता का अभिप्राय अपना सब कुछ सब में बांट देना नहीं है। अपने परिवार के लिए साधन जुटाना अपने बच्चों को पढ़ाना-लिखाना व्यक्ति का कर्त्तव्य है। उनको छोड़कर अन्य को पढ़ाना ये हृदय की विशालता नहीं है। अपनों के प्रति उत्तरदायित्व का निर्वाह करते हुए भी दूसरे का सहयोग करना, न कर पाने की स्थिति में सहयोग की भावना रखना, हृदय की विशालता का परिचायक है। सहयोग, सहानुभूति, समर्थन मनुष्य के विशाल हृदय का परिचायक है।
मन्त्र में परिवार को साथ लेकर चलने के लिये सन्देश दिया है। उपाय बताया है ज्यायस्व अन्तश्चित्तिनो बनना है। ज्यायस्व बनने का अर्थ है- समर्थ बनना। समर्थ कैसे बन सकते हैं, उसके लिए वेद कहता है- अन्तश्चित्तिनः बनना होगा। बड़े बनने का उपाय है, चित्त को अन्दर से विकसित करना है। चित्त को अन्दर से विकसित करने का उपाय चित्त को विद्या से युक्त करना, चित्त को सज्ञान करना-कराना। सामान्य प्रकृति के प्राणी में संकोच, स्वार्थ संकीर्णता होती है, विद्या, शास्त्र अध्ययन, उपदेश से ही इस संकीर्णता को स्वार्थ को दूर किया जा सकता है, इसीलिए वेद ने कहा परिवार में समझ को विकसित करके मनुष्य को हृदय बड़ा करना होगा, कहा गया है-
ज्यायस्वान्ताश्चित्तिनो।।