वेद प्रचारार्थ मेरी केरल यात्रा
– आचार्य सत्येन्द्रार्य
मनुष्य एक ऐसा चिन्तनशील प्राणी है, जिसे अपने हिताहित के समबन्ध में विचार करने की वैचारिक स्वतन्त्रता स्वस्फूर्त है। इस वैचारिक स्वतन्त्रता के प्रवाह को कोई भी शासक या कानून भले ही कुछ समय के लिए बाह्यरूप से दबा दे या अवरुद्ध कर दे, यह हो सकता है और ऐसा हुआ है कि बाहरी दृष्टि से स्वतन्त्र विचार करने वालों पर रोक लगाई गई, पुनरपि आन्तरिक चिन्तन-मनन की इस नैसर्गिक स्वतन्त्रता को बाहरी बाधाएँ छीन नहीं सकती। इसी प्रकार यात्रा भी मनुष्य के स्वतन्त्र चिन्तन का ही एक अनिवार्य उपक्रम है। मानव जीवन अपने-आप में एक यात्रा ही है, जिसमें कर्त्तव्य पालन करते हुए हमें कई पड़ावों को पार करना पड़ता है। अपनी ऐसी एक यात्रा का प्रारमभ मैंने अजमेर ऋषि उद्यान से किया और लक्ष्य था केरल के हरे-भरे प्रदेश। आचार्य वामदेवजी, जो ऋषि उद्यान के योग्य स्नातकों में से एक हैं, उनमें वैदिक धर्म के प्रचार-प्रसार में अहर्निश लग्न देखकर लगा कि मुझे भी विश्व कल्याण के इस महायज्ञ में कुछ आहुतियाँ समर्पित करनी चाहिए। आमन्त्रण था वामदेवजी का जो मुझे कुछ मास पूर्व ही मिल गया था, वह आमन्त्रण भी विशेषरूप से इस बात को ध्यान में रखकर दिया गया था कि केरल में महर्षि दयानन्द जी की विचार धारा का बीज वपन हो और ऋषि मिशन का काम गति पकड़े।
18 दिसबर 2015 को प्रातःकाल अजमेर से आरमभ होने से लेकर यह यात्रा शोरनूर जो केरल के अन्तर्गत है, तक लगभग दो दिन में पूरी हुई। यात्रा लमबी किन्तु उबाऊ न थी, क्योंकि अपने अगल-बगल की सीटों पर बैठे लोगों से स्नेहपूर्वक वार्ता करने से आनन्द का अनुभव हो रहा था। यात्रा करते-करते 20 तारीख की रात्रि को लगभग डेढ़ बजे शोरनूर पहुँचे और वहाँ से वामदेवजी के साथ कारलमन्ना, जहाँ कार्यक्रम रखा गया था, वहीं मेरे ठहरने आदि की व्यवस्था भी की गई थी- लगभग एक घण्टे में पहुँच गया था। 20 दिनांक की प्रातःकाल उपनयन संस्कार का कार्यक्रम रखा गया था, जो पूर्व निर्धारित था। उपनयन संस्कार कराने वालों के मन में संस्कार के प्रति अत्यन्त श्रद्धा व निष्ठा को दृढ़ता से बिठा दिया गया, इसके कारण ही वे सभी लोग जो संस्कार कराने के इच्छुक थे, उन्होंने एक दिन केवल दूध पर ही निकाल दिया था। इसी से उनकी संस्कार के प्रति श्रद्धा व दृढ़ निष्ठा का पता लगता है। यज्ञोपवीत संस्कार के समय जो लोग दर्शक के रूप में वहाँ उपस्थित थे, वे भी बड़ी प्रसन्नता से इस संस्कार का आनन्द ले रहे थे। विधि पूर्वक यह कार्यक्रम सपन्न हुआ।
23 दिसमबर 2015 से शिविर का प्रारमभ और गुरुदत्त भवन तथा उपदेशक विद्यालय का उद्घाटन- उपरोक्त कार्यक्रम के लिए 23 दिसमबर का दिन चुना गया। आर्य जगत् में यह बात सब आर्यजनों को विदित है कि 23 दिसमबर 1926 को श्रद्धेय श्री स्वामी श्रद्धानन्दजी की एक धर्मान्ध मुस्लिम द्वारा, जिसका नाम अबदुल रशीद था, गोलियाँ चला कर उस अवस्था में जब वे रुग्ण शय्या पर पड़े थे, हत्या कर दी गई थी। देश धर्म पर अपना सब कुछ वार देने वाले स्वामी श्रद्धानन्द के इस अभूत पूर्व बलिदान को आर्यजन विस्मृत न कर दें, इसलिए उपरोक्त कार्यक्रम के आरमभ व उद्घाटन का 23 दिसमबर दिन निश्चित किया गया था। लगभग 10 बजे ध्वजारोहण ‘वन्दे मातरम् और जयति ओम्ध्वज…’ के गीतों से बड़े उल्लास पूर्ण वातावरण में किया गया। ध्वजारोहण के समय वहाँ अनेक गणमान्य लोगों की उपस्थिति से कार्यक्रम भव्य रूप में मनाया गया। उपदेशक विद्यालय के साथ-साथ त्रिदिवसीय शिविर की भी उद्घोषणा कर दी गई थी, कुछ ही देर बार शिविर की कक्षाएँ भी प्रारमभ कर दी गईं।
शिविर समापन समारोह के अवसर पर श्री एम.के. राजनजी जो बहुत ही उत्साही और लग्नशील व्यक्तियों में से एक हैं, ने विद्यालय का उद्देश्य और उद्देश्य की पूर्ति के लिए कई प्रकार की योजनाएँ रखीं, उन योजनाओं में गौशाला और यज्ञशाला निर्माण भी है। इनके निर्माण की ओर विशेष रूप से ध्यान केन्द्रित किया गया। इसका सभी ने समर्थन किया। अनेक लोग इस संस्था से जुड़ गए हैं, जुड़ रहे हैं, समभावना है कि शीघ्र ही यह विद्यालय आर्य समाज के प्रचार-प्रसार का एक अच्छा-खासा केन्द्र बनेगा। केरल की देवभूमि में आर्य समाज का बीज तो बो दिया है, अब इस बीज की सुरक्षा हम सभी आर्यों को करनी चाहिए। इसे किसी मनुष्य का कार्य न मान कर वेद भगवान का कार्य है, ऐसा ध्यान में रखकर उसे वृक्ष का रूप प्रदान करना हम सब आर्यों का नैतिक कर्त्तव्य है।
इस प्रकार केरल की यह धर्म प्रचार यात्रा अजमेर से आरमभ होकर अजमेर आकर समाप्त हुई।
– ऋषिउद्यान, पुष्करमार्ग, अजमेर।