विमान एष दिवो मध्य आस्त आपप्रिवान् रोदसी अन्तरिक्षम् । स विश्वाची रभि चष्टे घृताची रन्तरो पूर्वमपरंच केतुम् ।
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– यजु० १७/५९
(दिवः + मध्ये) आकाश के मध्य में (एष: + विमानः आस्ते ) यह विमान के समान विद्यमान है। (रोदसी अन्तरिक्षम् ) द्युलोक, पृथिवी तथा अन्तरिक्ष, मानो, तीनों लोकों में ( आपप्रिवान् ) अच्छी प्रकार परिपूर्ण होता है अर्थात् तीनों लोकों में इसकी अहत गति है । (विश्वाची 🙂 सम्पूर्ण विश्व में गमन करनेहारा (घृताची: ) घृत:- जल अर्थात् मेघ के ऊपर भी चलने हारा (सः) वह विमानाधिष्ठित पुरुष ( पूर्वम्) इस लोक (अपरम्+च) उस परलोक ( अन्तरा ) इन दोनों के मध्य में विद्यमान (केतुम् ) प्रकाश (अभिचष्टे ) सब तरह से देखता है ।
यहाँ मन्त्र में विमान शब्द विस्पष्ट रूप से प्रयुक्त हुआ है। इसकी गति का भी वर्णन है तथा इस पर चढ़ने हारे की दशा का भी निरूपण है, अत: प्रतीत होता है कि ऋषिगण अपने समय में विमान विद्या भी अच्छी प्रकार जानते थे । एक अति प्राचीन गाथा भी चली आती है कि प्रथम कुबेर का एक विमान था, रावण उसे ले आया था। रामचन्द्र विजय करके जब लङ्का से चले थे तब उसी विमान पर चढ़ कर लङ्का से अयोध्या आये थे ।