वैदिक युग के पतन के बाद कर्म व्यवहार आधारित वर्ण व्यवस्था का स्थान जन्म आधारित घृणित जाती प्रथा ने ले लिया. जन्म आधारित प्रथा का स्थापन्न होने के वजह से सामाजिक बुराइयां अपने चरम पर पहुँच गयीं और कर्म आधारित वर्ण व्यवस्था का पूर्णतया लोप हो गया. महर्षी दयानंदसरस्वती ने अपने अकाट्य तर्कों के आधार पर इस व्यवस्था का पुनर्स्थापन किया। महर्षी दयानंद ने इस बात का पुरजोर आगाज किया कि शुद्र के घर पैदा हुआ बालक अपने कर्मों के आधार पर ब्राहम्ण बन सकता है और ब्राहम्मण के घर उत्पन्न बालक यदी हींन कर्मों में लींन है तो वह शुद्र कहलाने के योग्य है ब्राहम्मण नहीं।
पौराणिक धर्म ग्रंथों में इसके अनेकों प्रमाण स्थान स्थान पर उपस्थित हैं जो यह सिध्ध करते हैं कि वर्ण व्यवस्था का आधार कर्म ही था.
१. जमदग्नि की माता गाधी की लड़की सत्यवती क्षत्राणी थी किन्तु वह ब्राहम्मण बने. महा। अनु। अ – ४
२. विश्वामित्र की माता क्षत्राणी थी किन्तु आप उसे जन्म से ही ब्राहम्मण मानते हैं। महा। अनु। अ – ४
३. हरिणी के गर्भ से पैदा होकर मुनि ऋष्यंग तप से ब्राहम्ण बन गए. ऐसा पौराणिकों की मान्यता है. यदी यहाँ भी देखा जाये तो ब्राहम्मण की पदवी प्राप्त होने का आधार संस्कार और व्यवहार ही है न कि जन्म आधारित व्यवस्था।
४. चाण्डाली के गर्भ से पैदा होकर व्यास का पिता पराशर तप से ब्राहम्मण बन गया
५. उलुकी के गर्भ से पैदा होकर महामुनि कणाद तप से ब्राहम्मण बन गए इसमें भी संस्कार कारक की प्रधानता थी.
६. गणिका के गर्भ से पैदा होकर महामुनि वशिष्ठ तप से ब्राहम्ण बन गए।
७. व्यास की माता सत्यवती ब्राहम्मण न थी किन्तु व्यास जी ब्राहम्ण थे
९. कृपाचार्य की माता ब्राहम्णी न थी किन्तु वह ब्राहम्ण बन गए।
१० श्रवण कुमार के माता पिता दोनों ही ब्राहम्ण न थे लेकिन श्रवण कुमार ब्राहम्ण कहलाये।
ऐसे अनेकों ऐतिहासिक प्रणाम कर्म आधारित वर्ण व्यवस्था की पुष्टि के लिए उपलब्ध हैं जो ये चीख चीख कर कहते है कि जन्म आधारित वर्ण व्यवस्था प्राचीन काल में भारत वर्ष में प्रचलित नहीं थी अपितु ये भी एक कुरीति के रूप में समाज में पैर पसारती चली गयी.
इस कुरीति का समूल उन्मूलन समाज के उत्थान के लिए अत्यंत आवश्यक है जिससे सामाजिक सांस्कृतिक उन्नती के नए नए आयाम चूमे जा सकें.