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स्वामी भास्करानंद सरस्वती

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स्वामी भास्करानन्द सरस्वती

डा. अशोक आर्य
स्वामी दयानन्द सरस्वती द्वारा आर्य समाज की स्थापना के लगभग दो वर्ष पश्चात जन्म लेने वाले स्वामी भगवानानन्द सरस्वती के जीवन पर महर्षि के विचारो तथा आर्य समाज के सिद्धान्तों का प्रभाव आवश्यक था । आप संस्कृत के उद्भट विद्वान थे । संस्कृत  का विद्वान होने के साथ ही साथ आप में उच्च कोटि की काव्य प्रतिभा भी थी ।
आप का जन्म जयपुर राज्यांतर्गत गांव भगवाना में सन १८७७ इस्वी को हुआ । आप का नाम भीमसेन रखा गया । अल्पायु में ही अर्थात जब आप मात्र आठ वर्ष के ही थे , आप के पिता जी का देहान्त हो गया । उन दिनों अल्पायु बालक को भारी कटिनाईयों का सामना करना पडा । किसी प्रकार प्राथमिक शिक्षा पाने में सफ़ल हुए तथा फ़िर जब आप सोलह वर्ष की आयु में पहुंचे तो पारिवारिक परम्परा के अनुसार संस्क्रत का ज्ञान  आवश्यक था , जिसे ग्रहण करने के लिए काशी चले गये ।
काशी उन दिनों धर्मं  का ज्ञान  प्राप्त करने का सर्वोत्तम स्थान था । उन दिनों यहां पर पं कृपा राम जी , जो बाद में स्वामी दर्शनानन्द जी सरस्वती के नाम से विख्यात आर्य समाज के उच्चकोटि के विद्वान हुए , ने एक संस्कृत  पाठशाला  स्थापित कर रखी थी । आपने इस पाठ्शाला में ही प्रवेश लेकर संस्कृत  का ज्ञान  अर्जित करना आरम्भ किया ।

इस विद्यालय में उन दिनों एक अन्य संस्कृत  के ख्याति प्राप्त विद्वान पण्डित काशी नाथ शास्त्री जी भी शिक्षा  देने के उद्देश्य से अध्यापन कार्य कर रहे थे । एसे महान विद्वानों का सानिध्य व मार्ग दर्शन भी आप को मिला तथा इन के श्री चरणों में बैट कर आपने सिद्धान्त कोमदी तथा अष्टाध्यायी जैसे संस्कृत  के आधार ग्रन्थों का अध्ययन किया । तत्पश्चात आपने बनारस संस्क्रत कालेज में प्रवेश लिया तथा महामहोपाध्याय पं भगवानाचार्य जी से आप ने संस्कृत  का अच्छा ज्ञान  अर्जित किया । इस कालेज में आप ने लगभग सात वर्ष तक निरन्तर शिक्षा  प्राप्त की तथा खूब मेहनत से आपने संस्कृत  व्याकरण , संस्क्रत साहित्य तथा दर्शन का अच्छा ज्ञान  अर्जित कर लिया ।

स्वामी दर्शनानन्द जैसे गुरु हों और आर्य समाज का प्रभाव न हो , एसा तो सम्भव ही न था । अत: आप पर प्रतिदिन आर्य समाज की छाप गहरी ही होती चली गई । काशी में इन दिनों एक संस्कृत  विद्यालय था , जिसे आर्य संस्कृत  विद्यालय भी कहा जा सकता है । इस की स्थापना आर्य समाज दिल्ली ने की थी । यहां आप की नियुक्ति संस्कृत  अध्यापक के रूप में हुई । आप ने यहां रहते हुए अत्यधिक लगन व मेहनत से कार्य करते हुए लगभग देड वर्ष तक बच्चों को संस्कृत  का शिक्षण  दिया तथा इस के पश्चात आपने अजमेर में आकर वैदिक यन्त्रालय को अपनी सेवाएं दीं । इस यन्त्रालय की स्थापना स्वामी दयानन्द सरस्वती जी ने की थी तथा यहां से आर्य समाज का साहित्य प्रकाशित होता था तथा आज भी हो रह है । आपने यहां संशोधक के पद पर रहते हुए प्रकाशित हो रही सामग्री का संशोधन आरम्भ किया , जिसे आज की भाषा में प्रूफ़ रीडिंग भी कहते हैं ।
जिन दिनों आप की नियुक्ति अजमेर के वैदिक यन्त्रालय में हुई , उन दिनों यहां चारों वेद की संहिताओं का मूल रूप में प्रकाशन का कार्य चल रहा था । वेद प्रकाशन का यह कार्य आप ही की देख रेख में हुआ तथा इन का संशोधन का सब कार्य आप ही ने किया । अब आप ने सिकन्दराबाद की और प्रस्थान किया । यहां के गुरुकुल में आपकी नियुक्ति हुई तथा यहां पर रहते हुए अनेक वर्ष तक आपने अध्यापन का कार्य किया । यहां से आपने जिला शाहजहां पुर के तिलहर में आये तथा कुछ समय यहां कार्य करने के पश्चात स्वामी श्रद्धानंद  सरस्वती ने आप को आग्रह किया कि आप अपनी सेवाएं गुरुकुल कांगडी को दें । इसे आपने शिरोधार्य किया तथा हरिद्वार आकर गुरुकुल कांगडी के कार्यों में हाथ बंटाने लगे । इन दिनों गुरुकुल कांगडी में अनेक उच्चकोटि के विद्वान कार्यरत थे , जिनमें पमुख रुप से पं. नरदेव शास्त्री , पं गंगादत जी शास्त्री , पं पदमसिंह शर्मा के अतिरिक्त उस समय के गुरुकुल के आचार्य व मुख्याधिष्टता प्रो. रामदेव थे । इन से उत्पन्न विवाद के कारण आप के ह्रदय को भारी टेस पहुंची तथा आपने इसे त्याग कर गुरुकुल ज्वालापुर का दामन थाम लिया ।

पण्डित जी ने इस महाविद्यालय में रहते हुए सन १९०८ से लेकर सन १९२५ तक मुख्याध्यापक स्वरुप कार्य किया तथा इस महाविद्यालय की उन्नति में अपना योग देते रहे । यह अध्यापन व्यवसाय के रुप में आप का अन्तिम कार्य रहा तथा १९२५ में आपने इस व्यवसाय को त्याग दिया । आप के सुपुत्र पं. हरिदत शास्त्री भी आप ही की भान्ति संस्कृत  के अच्छे विद्वान थे ।
महाविद्यालय को छोड आपने संन्यास की दीक्षा  ली तथा स्वामी भास्करानन्द सरस्वती आगरा वाले के नाम से समाज सेवा के कार्यों में जुट गए । आपने आर्य समाज तहा संस्कृत  कोश को अपने लेखन कार्य से भारी बल व साहित्य दिया । आप की पुस्तकों में कुछ इस प्रकार रहीं : पण्डित आत्माराम अम्रतसरी के साथ मिल कर संस्कार चन्द्रिका , आर्य सूक्ति सुधा , काव्य लतिका , संस्क्रतांकुर, योग दर्शन, व्यास भाष्य, भोजव्रति का भाषानुवद, सर्व दर्शन संग्रह टीका आदि ।
आपने आर्य समाज के लिए खूब कार्य किया , व्याख्यान दिये तथा काव्य की भी रचना की । इस प्रकार आर्य समाज की विभिन्न प्रकार से सेवा करते हुए ९ जुलई १९२८ इस्वी को सोमवार के दिन आप ने इस नश्वर चोले को छोड दिया ।

डा. अशोक आर्य

 

मुंशी केवल कृष्ण

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मुन्शी केवल  कृष्ण 

डा अशोक आर्य

आर्य समज के आरम्भिक विद्वनों को आर्य समज के सिधान्तों तथा ऋषि  दयानन्द  जी के विचारों पर पूरी आस्था थी । इस का यह तात्पर्य नहीं  कि आज एसे विद्वान नहीं मिलते किन्तु यह सत्य है कि उस समय के विद्वान बिना किसी किन्तु परन्तु के आर्य समाज के लिए कार्य करते थे तथा सिधान्त से किंचित भी न हटते थे । एसे ही विद्वानों , एसे ही दीवानों में मुन्शी केवल कृष्ण जी भी एक थे । मुन्शी जी का जन्म मुन्शी राधाकिशन जी के यहां अश्विन पूर्णिमा १८८५ विक्रमी तद्नुसार सन १८२८ इस्वी को हुआ । इन की विरासत पटियाला राज्य के गांव छत बनूड से थी । भाव  यह है कि इन के पूर्वज बनूड के निवसी थे । परिस्थितिवश मुसलमनी शासन कल में  यह रोहतक आ कर रहने लगे ।

उस काल में मुसलमानी प्रभाव से हमारे हिन्दु लोगो में भी अनेक बुराइयां आ गई थीं । एसी ही बुराईयों के मुन्शी जी भी गुलाम हो गये थे । यह बुराईयां जो मुन्शी जी ने अपना रखी थीं , उनमें मांसाहार करना, मदिरा पान करना । इस सब के साथ ह साथ यह वैश्गयामन तक भी करने लगे थे ।

इन बुराईयों में फ़ंसे मुन्शी जी पर एक चमत्कार हुआ । हुआ यह कि इन दिनों ही स्वामी द्यानन्द सरस्वती का पंजाब में आगमन हुआ । । इन दिनों मुन्शी जी शाहपुर मे मुन्सिफ़ स्वरुप कार्य कर रहे थे । मुन्शी जी ने स्वामी जी के उपदेश सुने । इन उपदेशों पर मनन चिन्तन करने पर इन का मुन्शी जी पर अत्यधिक प्रभाव हुआ । वह स्वामी जी के उपदेशों से धुलकर शुद्ध हो गये । स्वामी  जी के प्रभाव से उन्होंने मांसाहार का सदा के लिए त्याग कर दिया , मदिरा के बर्तन उटा कर फ़ैंक दिये तथा भविष्य मे इस बुराई को भी अपने पास न आने देने का संकल्प लिया तथा वैश्यागमन , जो कि से  बडी बुराई मानी जती है , उसे भी परित्याग कर दिया । इस प्रकार स्वांमी जी के प्रभाव से मुन्शी जी शुद्ध व पवित्र हो गये ओर आर्य समाजी बन गये ।

जब कोई व्यक्ति भयानक बुराईयों को छोड कर सुपथ गामी बन जता है तो लोगो मे उस का आदर स्त्कार बट जाता है, उस की ख्यति दूर दूर तक जती है तथा जिस सधन से उसने यह दोष त्यागे होते हैं , अन्य लोग भी उसका अनुगमन करते हुए उस  पथ के पथिक बन जाते हैं । हुआ भी कुछ एसा ही ।

मुन्शी जी  ने अपने आप को आर्य समाज के सिद्धान्तों के साथ खूब टाला तथा इन्हे अपने जीवन का अभिन्न अंग बना लिया । आप ने यत्न पूर्वक उर्दू में परंगकता प्राप्त की तथा अपने समय के उर्दू के उ च्च कोटि के कवि बन गये । आप ने आर्य समाज के सिद्धान्तो व मन्तव्यों के प्रचार के लिए अनेक कवितायें लिखीं ।

मुन्शी जी अनेक वर्ष आर्य समाज गुजरांवाला के प्रधान भी रहे । आप के ही प्रभाव  से आप के भाई नारायण  कृष्ण भी  आर्य समाज को समर्पित हो गए तथा आप के सुपुत्र  कर्ता  कृष्ण भी अपने पिता  के अनुगामी बन कर आर्य समाज के सदस्य बन गए । जिस परिवार में कभी बुराईयों के कारण सदा कलह क्लेश रहता था , वह परिवार आज उत्तमता का ,स्वर्गिक आनंद का एक उदाहरण था  ।

जब लाहोर में डी.ए.वी कालेज की स्थापना हुई , उस समय इस संस्था को चलाने के लिए धन का आभाव सा ही रहता था । इस कमीं के दिनों में आपने कालेज के सहयोगी स्वरूप एक भारी धनराशी इसे सहयोग के लिए अपनी और से दी ।

आप उर्दु के सिद्ध हस्त कवि थे किन्तु आर्य समाज मे प्रवेश से पूर्व आप ने प्रचलित परम्परा को अपनाते हुए श्रंगारिक रचनायें ही लिखीं किन्तु आर्य समाज में प्रवेश के साथ ही जहां आप ने अपने जीवन की अनेक बुराईयों का त्याग किया  , वहां अपने काव्य को भी नया रूप दिया आप ने अब शृंगार रस को सदा के लिये त्याग दिया तथा इस के स्थान पर शान्त रस को अपना लिया । अब शान्त रस के माध्यम से आप उर्दू मे काव्य की रचना करने लगे । आप ने अपने काव्य में जो विशेष शब्द , जिन्हें तखलुस कहते हैं , वह उर्दू में ” उर्फ़” होता था जब कि हिन्दी मे ” केवल ” होता था ।

मुन्शी जी ने आर्य समाज के प्रचार प्रसार में अपनी लेखनी का भी खूबह सहारा लिया तथा अनेक पुस्तकें भी लिखी तथा  दिसम्बर १९०९ को इस जीवन लीला को समप्त कर चल बसे ।ध्यान मंजूम,आर्यभिविनय मंजूम, आर्य विनय पत्रिका ,संगीत सुधाकर, भजनमुक्तवली,इन पुस्तकों के अतिरिक्त कुछ एसी पुस्तकें भी लिखीं जो मांसहर आदि दुर्व्यस्नों तथा इन के परिणम स्वरुप होने वले झगडों आदि पर भी प्रकाश दलती हैं । एसी पुस्तकों में विचर पत्र, राजेसरबस्ता,हारेसदाकत या जबाबुलजुबाब आदि ।

इस प्रकर जीवन प्रयन्त  आर्य समाज की सेवा करने वाला यह दीवाना आर्य समज की सेवा करते हुए अन्त में १५ दिसम्बर १९०९ इस्वी को इस चलायमान जगत से चल बसा ।