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स्वमन्तव्यामन्तव्यप्रकाशः

ओ३म्

अथ स्वमन्तव्यामन्तव्यप्रकाशः

सर्वतन्त्र सिद्धान्त अर्थात् साम्राज्य सार्वजनिक धर्म जिस को सदा से सब मानते आये, मानते हैं और मानेंगे भी, इसीलिये इस को सनातन नित्यधर्म कहते हैं कि जिस का विरोधी कोई भी न हो सके। यदि अविद्यायुक्त जन अथवा किसी मत वाले के भ्रमाये हुए उस को अन्यथा जानें वा मानें, उस का स्वीकार कोई भी बुद्धिमान् नहीं करते, किन्तु जिस को आप्त अर्थात् सत्यमानी, सत्यवादी, सत्यकारी, परोपकारक पक्षपातरहित विद्वान् मानते हैं वही सब को मन्तव्य और जिस को नहीं मानते वह अमन्तव्य होने से उसका प्रमाण नहीं होता। अब जो वेदादि सत्यशास्त्र और ब्रह्मा से लेकर जैमिनिमुनि पर्य्यन्तों के माने हुए ईश्वरादि पदार्थ जिन को कि मैं मानता हूँ सब सज्जन महाशयों के सामने प्रकाशित करता हूँ।

मैं अपना मन्तव्य उसी को जानता हूँ कि जो तीन काल में एक सा सब के सामने मानने योग्य है। मेरा कोई नवीन कल्पना वा मतमतान्तर चलाने का लेशमात्र भी अभिप्राय नहीं है किन्तु जो सत्य है उसको मानना, मनवाना और जो असत्य है उसको छोड़ना और छुड़वाना मुझ को अभीष्ट है यदि मैं पक्षपात करता तो आर्य्यावर्त्त में प्रचरित मतों में से किसी एक मत का आग्रही होता किन्तु जो-जो आर्य्यावर्त्त वा अन्य देशों में अधर्मयुक्त चाल चलन है उस का स्वीकार और जो धर्मयुक्त बातें हैं उन का त्याग नहीं करता, न करना चाहता हूँ क्योंकि ऐसा करना मनुष्यधर्म से बहिः है।

मनुष्य उसी को कहना कि जो मननशील होकर स्वात्मवत् अन्यों के सुख दुःख और हानि लाभ को समझे। अन्यायकारी बलवान् से भी न डरे और धर्मात्मा निर्बल से भी डरता रहे। इतना ही नहीं किन्तु अपने सर्व सामर्थ्य से धर्मात्माओं—कि चाहे वे महा अनाथ, निर्बल और गुणरहित हों—उन की रक्षा, उन्नति, प्रियाचरण और [अधर्मी] चाहे चक्रवर्त्ती सनाथ महाबलवान् और गुणवान् भी हो तथापि उस का नाश, अवनति और अप्रियाचरण सदा किया करे अर्थात् जहां तक हो सके वहां तक अन्यायकारियों के बल की हानि और न्यायकारियों के बल की उन्नति सर्वथा किया करे। इस काम में चाहे उस को कितना ही दारुण दुःख प्राप्त हो, चाहे प्राण भी भले ही जावें, परन्तु इस मनुष्यपनरूप धर्म से पृथक् कभी न होवे। इस में श्रीमान् महाराजे भर्तृहरि, व्यास जी [और] मनु ने श्लोक लिखे हैं, उन का लिखना उपयुक्त समझ कर लिखता हूँ—

निन्दन्तु नीतिनिपुणा यदि वा स्तुवन्तु

लक्ष्मीः समाविशतु गच्छतु वा यथेष्टम्।

अद्यैव वा मरणमस्तु युगान्तरे वा

न्याय्यात्पथः प्रविचलन्ति पदं न धीराः॥१॥

—भर्तृहरि [नीतिशतक ८५]

न जातु कामान्न भयान्न लोभाद् धर्मं त्यजेज्जीवितस्यापि हेतोः। धर्मो नित्यः सुखदुःखे त्वनित्ये जीवो नित्यो हेतुरस्य त्वनित्यः॥२॥

—महाभारत [उद्योगपर्व-प्रजागरपर्व अ॰ ४०। श्लोक ११-१२]

एक एव सुहृद्धर्मो निधनेऽप्यनुयाति यः।

शरीरेण समं नाशं सर्वमन्यद्धि गच्छति॥३॥      —मनु॰ [८।१७]

सत्यमेव जयते नानृतं सत्येन पन्था विततो देवयानः। येनाऽऽक्रमन्त्यृषयो ह्याप्तकामा यत्र तत्सत्यस्य परमं निधानम्॥४॥

—मुण्डकोपनिषद् [३।१।६]

न हि सत्यात्परो धर्मो नानृतात्पातकं परम्।

नहि सत्यात्परं ज्ञानं तस्मात्सत्यं समाचरेत्॥५॥  —उपनिषदि॥

[तुलना—मनु॰ ८।१२]

इन्हीं महाशयों के श्लोकों के अभिप्राय से अनुकूल निश्चय रखना सबको योग्य है।

अब मैं जिन-जिन पदार्थों को जैसा-जैसा मानता हूँ उन-उन का वर्णन संक्षेप से यहाँ करता हूँ कि जिनका विशेष व्याख्यान इस ग्रन्थ में अपने-अपने प्रकरण में कर दिया है। इन में से प्रथम—

१. ‘ईश्वर’ कि जिसको ब्रह्म, परमात्मादि नामों से कहते हैं, जो सच्चिदानन्दादि लक्षणयुक्त है जिसके गुण, कर्म, स्वभाव पवित्र हैं जो सर्वज्ञ, निराकार, सर्वव्यापक, अजन्मा, अनन्त, सर्वशक्तिमान्, दयालु, न्यायकारी, सब सृष्टि का कर्त्ता, धर्त्ता, हर्त्ता, सब जीवों को कर्मानुसार सत्य न्याय से फलदाता आदि लक्षणयुक्त परमेश्वर है उसी को मानता हूँ।

२. चारों ‘वेदों’ को विद्या धर्मयुक्त ईश्वरप्रणीत संहिता मन्त्रभाग को निर्भ्रान्त स्वतःप्रमाण मानता हूँ अर्थात् जो स्वयं प्रमाणरूप हैं, कि जिस के प्रमाण होने में किसी अन्य ग्रन्थ की अपेक्षा न हो जैसे सूर्य्य वा प्रदीप स्वयं अपने स्वरूप के स्वतः प्रकाशक और पृथिव्यादि के प्रकाशक होते हैं वैसे चारों वेद हैं। और चारों वेदों के ब्राह्मण, छः अङ्ग, छः उपाङ्ग, चार उपवेद और ११२७ (ग्यारह सौ सत्ताईस) वेदों की शाखा जो कि वेदों के व्याख्यानरूप ब्रह्मादि महर्षियों के बनाये ग्रन्थ हैं उन को परतःप्रमाण अर्थात् वेदों के अनुकूल होने से प्रमाण और जो इन में वेदविरुद्ध वचन हैं उन का अप्रमाण करता हूँ।

३. जो पक्षपातरहित न्यायाचरण सत्यभाषणादियुक्त ईश्वराज्ञा वेदों से अविरुद्ध है उस को ‘धर्म’ और जो पक्षपातसहित अन्यायाचरण, मिथ्याभाषणादि ईश्वराज्ञाभङ्ग वेदविरुद्ध है उस को ‘अधर्म’ मानता हूँ।

४. जो इच्छा, द्वेष, सुख, दुःख और ज्ञानादि गुणयुक्त अल्पज्ञ नित्य है उसी को ‘जीव’ मानता हूँ।

५. जीव और ईश्वर स्वरूप और वैधर्म्य से भिन्न और व्याप्य व्यापक और साधर्म्य से अभिन्न हैं अर्थात् जैसे आकाश से मूर्त्तिमान् द्रव्य कभी भिन्न न था, न है, न होगा और न कभी एक था, [न] है, न होगा, इसी प्रकार परमेश्वर और जीव को व्याप्य व्यापक, उपास्य उपासक और पिता पुत्रवत् आदि सम्बन्धयुक्त मानता हूँ।

६. ‘अनादि पदार्थ’ तीन हैं। एक ईश्वर, द्वितीय जीव, तीसरी प्रकृति अर्थात् जगत् का कारण, इन्हीं को नित्य भी कहते हैं। जो नित्य पदार्थ हैं उन के गुण, कर्म स्वभाव भी नित्य हैं।

७. ‘प्रवाह से अनादि’ जो संयोग से द्रव्य, गुण, कर्म उत्पन्न होते हैं वे वियोग के पश्चात् नहीं रहते, परन्तु जिस से प्रथम संयोग होता है वह सामर्थ्य उन में अनादि है, और उस से पुनरपि संयोग होगा तथा वियोग भी, इन तीन [को] प्रवाह से अनादि मानता हूँ।

८. ‘सृष्टि’ उस को कहते हैं जो पृथक् द्रव्यों का ज्ञान युक्तिपूर्वक मेल हो कर नानारूप बनना।

९. ‘सृष्टि का प्रयोजन’ यही है कि जिस में ईश्वर के सृष्टिनिमित्त गुण, कर्म, स्वभाव का साफल्य होना। जैसे किसी ने किसी से पूछा कि नेत्र किस लिये हैं? उस ने कहा देखने के लिये। वैसे ही सृष्टि करने के ईश्वर के सामर्थ्य की सफलता सृष्टि करने में है और जीवों के कर्मों का यथावत् भोग कराना आदि भी।

१०. ‘सृष्टि सकर्तृक’ है। इस का कर्त्ता पूर्वोक्त ईश्वर है। क्योंकि सृष्टि की रचना देखने, जड़ पदार्थ में अपने आप यथायोग्य बीजादि स्वरूप बनने का सामर्थ्य न होने से सृष्टि का ‘कर्त्ता’ अवश्य है।

११. ‘बन्ध’ सनिमित्तक अर्थात् अविद्यादि निमित्त से है। जो-जो पाप कर्म ईश्वरभिन्नोपासना, अज्ञानादि ये सब दुःखफल करने वाले हैं। इसी लिये यह ‘बन्ध’ है कि जिस की इच्छा नहीं और भोगना पड़ता है।

१२. ‘मुक्ति’ अर्थात् सब दुःखों से छूटकर बन्धरहित सर्वव्यापक ईश्वर और उस की सृष्टि में स्वेच्छा से विचरना, नियत समय पर्यन्त मुक्ति के आनन्द को भोग के पुनः संसार में आना।

१३. ‘मुक्ति के साधन’ ईश्वरोपासना अर्थात् योगाभ्यास, धर्मानुष्ठान, ब्रह्मचर्य्य से विद्याप्राप्ति, आप्त विद्वानों का संग, सत्यविद्या, सुविचार और पुरुषार्थ आदि हैं।

१४. ‘अर्थ’ जो धर्म ही से प्राप्त किया जाय। और जो अधर्म से सिद्ध होता है उस को ‘अनर्थ’ कहते हैं।

१५. ‘काम’ वह है कि जो धर्म और अर्थ से प्राप्त किया जाय।

१६. ‘वर्णाश्रम’ गुण कर्मों के योग से मानता हूँ।

१७. ‘राजा’ उसी को कहते हैं जो शुभ गुण, कर्म, स्वभाव से प्रकाशमान, पक्षपातरहित न्यायधर्म का सेवी, प्रजा में पितृवत् वर्त्ते और उन को पुत्रवत् मान के उन की उन्नति और सुख बढ़ाने में सदा यत्न किया करे।

१८. ‘प्रजा’ उस को कहते हैं कि जो पवित्र गुण, कर्म, स्वभाव को धारण कर के पक्षपातरहित न्यायधर्म के सेवन से राजा और प्रजा की उन्नति चाहती हुई राजविद्रोहरहित राजा के साथ पुत्रवत् वर्त्ते।

१९. जो सदा विचार कर असत्य को छोड़ सत्य का ग्रहण करे, अन्यायकारियों को हटावे और न्यायकारियों को बढ़ावे, अपने आत्मा के समान सब का सुख चाहे, उस को ‘न्यायकारी’ मानता हूँ।

२०. ‘देव’ विद्वानों को, और अविद्वानों को ‘असुर’, पापियों को ‘राक्षस’, अनाचारियों को ‘पिशाच’ मानता हूँ।

२१. उन्हीं विद्वानों, माता, पिता, आचार्य्य, अतिथि, न्यायकारी राजा और धर्मात्मा जन, पतिव्रता स्त्री, स्त्रीव्रत पति का सत्कार करना ‘देवपूजा’ कहाती है, इस से विपरीत अदेवपूजा। इन मूर्त्तियों की पूजा कर्त्तव्य, इन मूर्त्तियों से इतर जड़ पाषाणादि मूर्त्तियों को सर्वथा अपूज्य समझता हूँ।

२२. ‘शिक्षा’ जिस से विद्या, सभ्यता, धर्मात्मता, जितेन्द्रियतादि की बढ़ती होवे और इनसे अविद्यादि दोष छूटें, उस को शिक्षा कहते हैं।

२३. ‘पुराण’ जो ब्रह्मादि के बनाये ऐतरेयादि ब्राह्मण पुस्तक हैं उन्हीं को पुराण, इतिहास, कल्प, गाथा और नाराशंसी नाम से मानता हूँ, अन्य भागवतादि को नहीं।

२४. ‘तीर्थ’ जिससे दुःखसागर से पार उतरें कि जो सत्यभाषण, विद्या, सत्संग, यमादि योगाभ्यास, पुरुषार्थ विद्यादानादि शुभ कर्म है उसी को तीर्थ समझता हूँ, इतर जलस्थलादि को नहीं।

२५. ‘पुरुषार्थ प्रारब्ध से बड़ा’ इसलिये है कि जिस से संचित प्रारब्ध बनते जिसके सुधरने से सब सुधरते और जिसके बिगड़ने से सब बिगड़ते हैं। इसी से प्रारब्ध की अपेक्षा पुरुषार्थ बड़ा है।

२६. ‘मनुष्य’ को सबसे यथायोग्य स्वात्मवत् सुख, दुःख, हानि, लाभ में वर्त्तना श्रेष्ठ, अन्यथा वर्त्तना बुरा समझता हूँ।

२७. ‘संस्कार’ उसे कहते हैं कि जिससे शरीर, मन और आत्मा उत्तम होवे। वह निषेकादि श्मशानान्त सोलह प्रकार का है। इसको कर्त्तव्य समझता हूँ और दाह के पश्चात् मृतक के लिये कुछ भी न करना चाहिये।

२८. ‘यज्ञ’ उसको कहते हैं कि जिसमें विद्वानों का सत्कार, यथायोग्य शिल्प अर्थात् रसायन जो कि पदार्थविद्या उससे उपयोग और विद्यादि शुभगुणों का दान, अग्निहोत्रादि जिनसे वायु, वृष्टि, जल, ओषधी की पवित्रता करके सब जीवों को सुख पहुंचाना, उत्तम समझता हूँ।

२९. जैसे ‘आर्य्य’ श्रेष्ठ और ‘दस्यु’ दुष्ट मनुष्यों को कहते हैं वैसे ही मैं भी मानता हूँ।

३०. ‘आर्य्यावर्त्त’ देश इस भूमि का नाम इसलिये है कि जिस में आदि सृष्टि से पश्चात् आर्य्य लोग निवास करते हैं परन्तु इस की अवधि उत्तर में हिमालय, दक्षिण में विन्ध्याचल, पश्चिम में अटक और पूर्व में ब्रह्मपुत्रा नदी है। इन चारों के बीच में जितना देश है उसी को ‘आर्य्यावर्त्त’ कहते और जो इस में सदा रहते हैं उन को भी आर्य्य कहते हैं।

३१. जो साङ्गोपाङ्ग वेदविद्याओं का अध्यापक सत्याचार का ग्रहण और मिथ्याचार का त्याग करावे वह ‘आचार्य’ कहाता है।

३२. शिष्य—उस को कहते हैं कि जो सत्य शिक्षा और विद्या को ग्रहण करने योग्य धर्मात्मा, विद्याग्रहण की इच्छा और आचार्य का प्रिय करने वाला है।

३३. गुरु—माता, पिता। और जो सत्य का ग्रहण करावे और असत्य को छुड़ावे वह भी ‘गुरु’ कहाता है।

३४. पुरोहित—जो यजमान का हितकारी सत्योपदेष्टा होवे।

३५. उपाध्याय—जो वेदों का एकदेश वा अङ्गों को पढ़ाता हो।

३६. शिष्टाचार—जो धर्माचरणपूर्वक ब्रह्मचर्य से विद्याग्रहण कर प्रत्यक्षादि प्रमाणों से सत्यासत्य का निर्णय करके, सत्य का ग्रहण, असत्य का परित्याग करना है यही शिष्टाचार, और जो इसको करता है वह ‘शिष्ट’ कहाता है।

३७. प्रत्यक्षादि आठ ‘प्रमाणों’ को भी मानता हूँ।

३८. ‘आप्त’ कि जो यथार्थवक्ता, धर्मात्मा, सब के सुख के लिये प्रयत्न करता है उसी को ‘आप्त’ कहता हूँ।

३९. ‘परीक्षा’ पाँच प्रकारी है। इस में से प्रथम जो ईश्वर उसके गुण कर्म स्वभाव और वेदविद्या, दूसरी प्रत्यक्षादि आठ प्रमाण, तीसरी सृष्टिक्रम, चौथी आप्तों का व्यवहार और पांचवीं अपने आत्मा की पवित्रता, विद्या, इन पाँच परीक्षाओं से सत्याऽसत्य का निर्णय करके सत्य का ग्रहण, असत्य का परित्याग करना चाहिये।

४०. ‘परोपकार’ जिससे सब मनुष्यों के दुराचार, दुःख छूटें, श्रेष्ठाचार और सुख बढ़ें, उसके करने को परोपकार कहता हूँ।

४१, ‘स्वतन्त्र’ ‘परतन्त्र’—जीव अपने कामों में स्वतन्त्र और कर्मफल भोगने में ईश्वर की व्यवस्था से परतन्त्र, वैसे ही ईश्वर अपने सत्याचार काम करने में स्वतन्त्र है।

४२. स्वर्ग—नाम सुख विशेष भोग और उसकी सामग्री की प्राप्ति का है।

४३ नरक—जो दुःख विशेष भोग और उसकी सामग्री को प्राप्त होना है।

४४. जन्म—जो शरीर धारण कर प्रकट होना सो पूर्व, पर और मध्य भेद से तीनों प्रकार के मानता हूँ।

४५. शरीर के संयोग का नाम ‘जन्म’ और वियोग मात्र को ‘मृत्यु’ कहते हैं।

४६. विवाह—जो नियमपूर्वक प्रसिद्धि से अपनी इच्छा करके पाणिग्रहण करना ‘विवाह’ कहाता है।

४७. नियोग—विवाह के पश्चात् पति के मर जाने आदि वियोग में अथवा नपुंसकत्वादि स्थिर रोगों में स्त्री वा पुरुष आपत्काल में स्ववर्ण वा अपने से उत्तम वर्णस्थ पुरुष [वा स्त्री के] साथ नियोग कर सन्तानोत्पत्ति कर लेवें।

४८. स्तुति—गुणकीर्त्तन, श्रवण और ज्ञान होना, इसका फल प्रीति आदि होते हैं।

४९. प्रार्थना—अपने सामर्थ्य के उपरान्त ईश्वर के सम्बन्ध से जो विज्ञान आदि प्राप्त होते हैं, उनके लिये ईश्वर से याचना करनी और इसका फल निरभिमान आदि होता है।

५०. ‘उपासना’—जैसे ईश्वर के गुण, कर्म, स्वभाव पवित्र हैं वैसे अपने करना। ईश्वर को सर्वव्यापक, अपने को व्याप्य जान के, ईश्वर के समीप हम और हमारे समीप ईश्वर है, वैसा निश्चय योगाभ्यास से साक्षात् करना, उपासना कहाती है, इस का फल ज्ञान की उन्नति आदि है।

५१, ‘सगुणनिर्गुणस्तुतिप्रार्थनोपासना’—जो-जो गुण परमेश्वर में हैं उनसे युक्त और जो-जो गुण नहीं हैं उनसे पृथक् मानकर प्रशंसा करना सगुणनिर्गुण स्तुति कहाती है और शुभ गुणों के ग्रहण की ईश्वर से इच्छा और दोष छुड़ाने के लिये परमात्मा का सहाय चाहना सगुणनिर्गुणप्रार्थना और सब दोषों से रहित, सब गुणों से सहित परमेश्वर को मानकर अपने आत्मा को उसके और उसकी आज्ञा के अर्पण कर देना निर्गुणसगुणोपासना कहाती है।

ये संक्षेप से स्वसिद्धान्त दिखला दिये हैं। इनकी विशेष व्याख्या इसी ‘सत्यार्थप्रकाश’ के प्रकरण-प्रकरण में है तथा [ऋग्वेदादिभाष्य]-भूमिका आदि ग्रन्थों में भी लिखी है। अर्थात् जो-जो बात सबके सामने माननीय है, उसको मानता अर्थात् जैसा कि सत्य बोलना सबके सामने अच्छा, और मिथ्या बोलना बुरा है, ऐसे सिद्धान्तों को स्वीकार करता हूँ। और जो मतमतान्तर के परस्पर विरुद्ध झगड़े हैं उनको मैं प्रसन्न नहीं करता, क्योंकि इन्हीं मत वालों ने अपने मतों का प्रचार कर मनुष्यों को फसा के परस्पर शत्रु बना दिये हैं। इस बात को काट, सर्व सत्य का प्रचार कर, सब को ऐक्यमत में करा, द्वेष छुड़ा, परस्पर में दृढ़प्रीतियुक्त करा के, सब से सबको सुख लाभ पहुँचाने के लिये मेरा प्रयत्न और अभिप्राय है। सर्वशक्तिमान् परमात्मा की कृपा, सहाय और आप्तजनों की सहानुभूति से यह सिद्धान्त सर्वत्र भूगोल में शीघ्र प्रवृत्त हो जावे और जिससे सब लोग सहज से धर्म्मार्थ काम मोक्ष की सिद्धि करके, सदा उन्नत और आनन्दित होते रहैं, [यही] मेरा मुख्य प्रयोजन है।

अलमतिविस्तरेण बुद्धिमद्वर्य्येषु।

ओ३म्। शन्नो मित्रः शं वरुणः। शन्नो भवत्वर्य्यमा।

शन्न इन्द्रो बृहस्पतिः। शन्नो विष्णुरुरुक्रमः॥

नमो ब्रह्मणे। नमस्ते वायो। त्वमेव प्रत्यक्षं ब्रह्मासि। त्वामेव प्रत्यक्षं ब्रह्मावादिषम्। ऋतमवादिषम्। सत्यमवादिषम्। तन्मामावीत्। तद्वक्तारमावीत्। आवीन्माम्। आवीद्वक्तारम्।

ओ३म् शान्तिः शान्तिः शान्तिः॥

[तैत्तिरीय आरण्यक ७।१२]

इति श्रीमत्परमहंसपरिव्राजकाचार्य्याणां परमविदुषां श्रीविरजानन्दसरस्वतीस्वामिनां शिष्येण श्रीमद्दयानन्दसरस्वतीस्वामिना विरचितः स्वमन्तव्यामन्तव्यसिद्धान्तसमन्वितः

सुप्रमाणयुक्तः सुभाषाविभूषितः

सत्यार्थप्रकाशोऽयं ग्रन्थः सम्पूर्तिमगमत्॥

संसार में मनुष्यों के कर्तव्य संबंधी ज्ञान-विज्ञान का सर्वोत्तम ग्रन्थ सत्यार्थ प्रकाश’ -मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

कबीर दास जी ने सत्य की महिमा को बताते हुए कहा है कि सांच बराबर तप नहीं झूठ बराबर पाप, जाके हृदय सांच है ताके हृदय आप वस्तुतः संसार में सत्य से बढ़कर कुछ नहीं है। ईश्वर, जीव व प्रकृति सत्य हैं अर्थात् इनका संसार में अस्तित्व है। बहुत से सम्प्रदायों व स्वयं को ज्ञानी मानने वाले लोग आज भी न तो ईश्वर के अस्तित्व को मानते हैं और न ही जीवात्मा को। ऐसी स्थिति में सत्य क्या है? इसे जानने की प्रत्येक मनुष्य को, चाहे वह किसी भी मत व सम्प्रदाय का क्यों न हो, स्वाभाविक इच्छा होती है। इच्छा रखने पर भी उसे उसके प्रश्नों के उत्तर नहीं मिलते तो विवश होकर वह परम्पराओं का दास बन जाता है। महर्षि दयानन्द के जीवन में भी समय आया जब उन्होंने ईश्वर, मूर्तिपूजा व मृत्यु विषयक कुछ प्रश्नों को जानने की जिज्ञासा की परन्तु उन्हें कहीं से इसका समाधान नहीं मिला। इस पर उन्होंने स्वयं ही सत्य की खोज करने का निश्चय किया और कालान्तर में घोर तप व पुरुषार्थ के बाद वह अपने मिशन में सफल रहे। उनके गुरू प्रज्ञाचक्षु स्वामी विरजानन्द की प्रेरणा हुई कि उन्होंने जीवन में जिन सत्यों की खोज की है, उससे संसार को लाभान्वित करें तो यही उनके जीवन का उद्देश्य बन गया। इसी का एक परिणाम उनके द्वारा संसार संबंधी सभी सत्य मान्यताओं को बताने वाले ग्रन्थ सत्यार्थ प्रकाश का प्रणयन है। मानव जाति का यह परम सौभाग्य है कि आज महर्षि दयानन्द की कृपा से उसे वह सत्य ज्ञान प्राप्त है जिसके प्रति विगत लगभग पांच हजार वर्षो तक हमारे देश व विश्व के सभी लोग अनजान व भ्रमित थे। आईये, सत्यार्थ प्रकाश से जुड़े कुछ प्रश्नों को जानते हैं।

 

महर्षि दयानन्द ने सत्यार्थ प्रकाश ग्रन्थ की रचना क्यों की? इसे उन्हीं के शब्दों में जानते हैं। वह सत्यार्थप्रकाश की भूमिका में लिखते हैं कि मेरा इस ग्रन्थ के बनाने का मुख्य प्रयोजन सत्यसत्य अर्थ का प्रकाश करना है, अर्थात् जो सत्य है उस को सत्य और जो मिथ्या है उस को मिथ्या ही प्रतिपादन करना सत्य अर्थ का प्रकाश समझा है। वह सत्य नहीं कहाता जो सत्य के स्थान में असत्य और असत्य के स्थान में सत्य का प्रकाश किया जाय। किन्तु जो पदार्थ जैसा है उसको वैसा ही कहना, लिखना और मानना सत्य कहाता है। जो मनुष्य पक्षपाती होता है, वह अपने असत्य को भी सत्य और दूसरे विरोधी मतवाले के सत्य को भी असत्य सिद्ध करने में प्रवृत्त होता है, इसलिए वह सत्य मत को प्राप्त नहीं हो सकता। इसीलिए विद्वान् आप्तों का यही मुख्य काम है कि उपदेश वा लेख द्वारा सब मनुष्यों के सामने सत्याऽसत्य का स्वरूप समर्पित कर दें, पश्चात् वे स्वयम् अपना हिताहित समझ कर सत्यार्थ का ग्रहण और मिथ्यार्थ का परित्याग करके सदा आनन्द में रहें। महर्षि दयानन्द ने इन पंक्तियों में सत्यार्थ प्रकाश ग्रन्थ लिखने का अपना आशय स्पष्ट व प्रभावशाली रूप से प्रस्तुत किया है। यहां उन्होंने सत्य के प्रचार प्रसार में आने वाली कठिनाईयों व समस्याओं का भी संकेत किया है। उनके समय व आजकल की धार्मिक परिस्थितियों में कुछ विशेष अन्तर नहीं आया है। आज भी सभी मत-मतान्तर अपने अपने मतों की सत्याऽसत्य मान्यताओं पर किंचित विचार व मनन न करके उसकी एक-एक पंक्ति को सत्य मानकर अन्धश्रद्धा से ग्रसित ही दिखाई देते हैं जिससे सत्याऽसत्य का निर्णय न होने में बाधायें उपस्थित हैं। इस कारण से देश व विश्व के मनुष्यों को आध्यात्मिक सुख प्राप्त न होकर उनके लोक-परलोक बिगड़ रहे हैं जिसकी चिन्ता किसी को भी नहीं है। आज का युग विज्ञान का युग है। बहुत अधिक समय तक कोई किसी को सत्य से अपरिचित व दूर नहीं रख सकता। समय आयेगा जब लोग सत्य को प्राप्त करेंगे। इसमें समय लग सकता है। सत्य अविनाशी व अमर है और असत्य अस्थिर व अन्धकार की तरह से शीघ्र नष्ट होने वाला होता है। अतः मत-मतान्तरों का असत्य भविष्य में अवश्य ही दूर होगा, यह निश्चित है।

 

सत्यार्थ प्रकाश की भूमिका में महर्षि दयानन्द ने अनेक महत्वपूर्ण बातों का प्रकाश करते हैं। ज्ञानवर्धक एवं उपयोगी होने के कारण इन पर एक दृष्टि डाल लेते हैं। वह लिखते हैं कि मनुष्य का आत्मा सत्याऽसत्य का जानने वाला है तथापि अपने प्रयोजन की सिद्धि, हठ, दुराग्रह और अविद्यादि दोषों से सत्य को छोड़ असत्य में झुक जाता है। परन्तु इस ग्रन्थ (सत्यार्थ प्रकाश) में ऐसी बात नहीं रक्खी है और किसी का मन दुखाना वा किसी की हानि पर तात्पर्य है, किन्तु जिससे मनुष्य जाति की उन्नति और उपकार हो, सत्याऽसत्य को मनुष्य लोग जान कर सत्य का ग्रहण और असत्य का परित्याग करें, क्योंकि सत्योपदेश के बिना अन्य कोई भी मनुष्य जाति की उन्नति का कारण नहीं है। इन पंक्तियों में महर्षि दयानन्द ने पहली महत्वपूर्ण बात यह लिखी है कि मनुष्य का आत्मा सत्याऽसत्य को जानने वाला होता है। दूसरी यह कि सत्य के अर्थ का प्रकाश करने के पीछे उनका उद्देश्य किसी का मन दुःखाना व हानि करना कदापि व किंचित मात्र नहीं है। और अन्त में सर्वाधिक महत्वपूर्ण बात यह कहते हैं कि मनुष्य जाति की उन्नति में सहायता के लिए वह सत्य असत्य का प्रकाश कर रहें हैं क्योंकि सत्योपदेश ही एकमात्र मनुष्य जाति की उन्नति का कारण हैं। अतः मनुष्य जाति की उन्नति के लिए ही सत्यार्थ प्रकाश का प्रणयन महर्षि दयानन्द ने किया था, यह उनके यहां दिए शब्दों व सत्यार्थ प्रकाश को आद्योपान्त पढ़कर सिद्ध होता है। इसकी साक्षी पं. लेखराम, स्वामी श्रद्धानन्द, पं. गुरुदत्त विद्यार्थी, महात्मा हंसराज, स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती आदि रहे हैं। यह भी निवेदन है कि आत्मा सत्य को जानते हुए भी अज्ञान रूपी पर्दें को प्रयत्न्पूर्वक न हटाने के कारण सत्य से वंचित रहता है।

 

इसके बाद महर्षि दयानन्द जगत का पूर्ण हित कैसे हो सकता है, उसकी बात करते हैं और उसका उपाय भी बताते हैं। उन्होंने मत-मतान्तरों से मनुष्यों को होने वाले सुख-दुःख की चर्चा भी की है। उनके द्वारा कहे गये यह शब्द भी अनमोल होने के कारण प्रस्तुत हैं। वह कहते हैं कि यद्यपि आजकल बहुत से विद्वान् प्रत्येक मतों में हैं, वे पक्षपात छोड़ सर्वतन्त्र सिद्धान्त अर्थात् जोजो बातें सब के अनुकूल सब में सत्य हैं, उनका ग्रहण और जो एक दूसरे से विरुद्ध बातें हैं, उनका त्याग कर परस्पर प्रीति से वर्त्ते वर्तावें तो जगत् का पूर्ण हित होवे। क्योंकि (अन्य अन्य मतों के) विद्वानों के विरोध से अविद्वानों (सामान्य जनों) में विरोध बढ़ कर अनेकविध दुःख की वृद्धि और सुख की हानि होती है। इस हानि ने, जो कि स्वार्थी मनुष्यों को प्रिय है, सब मनुष्यों को दुःखसागर में डूबा दिया है। यहां महर्षि दयानन्द सभी मत वालों से पक्षपात छोड़कर सर्वतन्त्र सिद्धान्त को अपनाने की अपील कर रहे हैं किन्तु खेद है कि आज तक किसी ने उनकी इन बातों पर ध्यान नहीं दिया।

 

सत्यार्थप्रकाश की भूमिका से ही महर्षि दयानन्द लिखित कुछ अन्य महत्वपूर्ण बातों का उल्लेख करते हैं। वह कहते हैं कि इनमें से जो कोई सार्वननिक हित लक्ष्य में धर प्रवृत्त होता है, उससे स्वार्थी लोग (मतमतान्तर वाले) विरोध करने में तत्पर होकर अनेक प्रकार विघ्न करते हैं। परन्तु सत्यमेव जयति नानृतं सत्येन पन्था विततो देवयानः। अर्थात् सर्वदा सत्य का विजय ओर असत्य का पराजय और सत्य ही से विद्वानों का मार्ग विस्तृत होता है। इस दृढ़ निश्चय के आलम्बन से आप्त लोग परोपकार करने से उदासीन होकर कभी सत्यार्थप्रकाश करने से नहीं हटते। आगे वह कहते हैं कि यह बड़ा दृढ़ निश्चय है कि यत्तदग्रे विषमिव परिणामेऽमृतोपमम्। यह गीता का वचन है। इसका अभिप्राय यह है कि जो-जो विद्या और धर्मप्राप्ति के कर्म हैं, वे प्रथम करने में विष के तुल्य और पश्चात् अमृत के सदृश होते हैं। ऐसी बातों को चित्त में धरके मैंने इस ग्रन्थ को रचा है। श्रोता या पाठकगण भी प्रथम प्रेम से देख के इस ग्रन्थ का सत्य-सत्य तात्पर्य जान कर यथेष्ट करें।’ इन पंक्तियों में उन्होंने आप्त लोगों के देश-समाज हित व परोपकार की भावना से कर्तव्य कर्म करने और ग्रन्थ के प्रयोजन पर भी एक अन्य प्रकार से अपना मत प्रकट किया है और कहा है कि इसका परिणाम अमृत के सृदश होगा। वस्तुतः जिसने सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ से लाभ उठाया है, उसके लिए इसका परिणाम निश्चय ही अमृत तुल्य हुआ है।

 

अपनी निष्पक्षता को बताते हुए महर्षि दयानन्द ने कहा है कि यद्यपि मैं आर्यावर्त्त देश में उत्पन्न हुआ और वसता हूं, तथापि जैसे इस देश के मतमतान्तरों की झूठी बातों का पक्षपात कर याथातथ्य प्रकाश करता हूं, वैसे ही दूसरे देशस्थ वा मत वालों के साथ भी वर्त्तता हूं। जैसा स्वदेश वालों के साथ मनुष्योन्नति के विषय में वर्त्तता हूं, वैसा विदेशियों के साथ भी तथा सब सज्जनों को भी वर्त्तता योग्य है। क्योंकि मैं भी जो किसी एक का पक्षपाती होता तो जैसे आजकल के स्वमत की स्तुति, मण्डन और प्रचार करते और दूसरे मत की निन्दा, हानि और बन्ध करने में तत्पर होते हैं, वैसे मैं भी होता, परन्तु ऐसी बातें मनुष्यपन से बाहर हैं। क्योंकि जैसे पशु बलवान् होकर निर्बलों को दुःख देते और मार भी डालते हैं, जब मनुष्य शरीर पाके वैसा ही कर्म करते हैं तो वे मनुष्य स्वभावयुक्त नहीं, किन्तु पशुवत् हैं। और जो बलवान् होकर निर्बलों की रक्षा करता है वही मनुष्य कहाता है और जो स्वार्थवश होकर परहानिमात्र करता रहता है, वह जानो पशुओं का भी बड़ा भाई है।  

 

महर्षि दयानन्द ने सत्यार्थ प्रकाश को 14 समुल्लासों में लिखा है। प्रथम 10 समुल्लास पूर्वार्ध के हैं जिसमें वैदिक मान्यताओं का पोषण व मण्डन है। उत्तरार्ध के 4 समुल्लासों में क्रमशः आर्यवर्त्तीय मतमतान्तरों, बौद्ध व जैन मत, ईसाईमत और मुसलमानों के मत की सत्य व असत्य मान्यताओं का सत्याऽसत्य के निर्णयार्थ खण्डन-मण्डन किया गया है। हम यह अनुभव करते हैं कि यदि महर्षि दयानन्द के समय में मत-मतान्तरों में सत्य और असत्य मान्यतायें, विचार व सिद्धान्त न होते, केवल सत्य ही सत्य होता, तो उनको खण्डन व मण्डन करने की आवश्यकता न पड़ती। उन्होंने ईश्वर की आज्ञा से असत्य के दमन दलन तथा सत्य की प्रतिष्ठा के लिए एक महान कार्य किया है जिस ओर विगत 5 हजार वर्षों में किसी का ध्यान नहीं गया था और ही उनकी योग्यता वाला मनुष्य विगत पांच हजार वर्षों में उत्पन्न ही हुआ जो इस कार्य को कर सकता। महर्षि दयानन्द की एक अनुपम देन यह है कि उन्होंने अपने समय सन् 1825-1883 में प्रचलित सभी भ्रान्तियों को मिटाकर ईश्वर, वेद, जीवात्मा, प्रकृति मनुष्य जीवन के कर्तव्यों यथा ईश्वर उपासना, पंचमहायज्ञ आदि का विस्तार से परिचय कराया जिसको लोग भूल चुके थे और अविद्याग्रस्त होकर अन्धकार में विचर रहे थे। महर्षि दयानन्द की सभी मान्यतायें एवं विचार वेद, तर्क और युक्तियों पर आधारित होने से विज्ञानसम्मत हैं। हम यह अनुमान करते हैं कि जिस प्रकार विज्ञान की पुस्तकें सारे संसार के लोगों द्वारा बिना पक्षपात के उत्सुकता से पढ़ी जाती है, उसी प्रकार से एक दिन सत्यार्थप्रकाश को विश्व में मान्यता प्राप्त होगी। यह दिन हमारे जीवन में भले ही न आये, परन्तु आयेगा अवश्य क्योंकि सत्यमेव जयते नानृतं। सत्य व असत्य के संघर्ष में सदा सर्वदा सत्य की ही विजय होती है। यह भी कहना समीचीन है कि महर्षि दयानन्द ने अपने समय में धर्म के क्षेत्र में विलुप्त सत्य विचारों व सिद्धान्तों को विश्व के सामने रखा था। वह चाहते थे कि लोग असत्य छोड़ कर सत्य का ग्रहण करें। उनके जीवन काल में उनका उद्देश्य पूरा न हो सका और आज भी नहीं हुआ है। भविष्य में यह अवश्य होगा और ईश्वर की भी इसमें विशेष भूमिका होगी। इसका कारण ईश्वर का सत्य में प्रतिष्ठित होना है। उसका कर्म फल सिद्धान्त भी सत्य और असत्य के आधार पर ही चलता है जिसमें सत्य पुरुस्कार के योग्य और असत्य दण्डनीय है। उसका यह सिद्धान्त सब मतों व सम्प्रदायों पर लागू है जिसका दिग्दर्शन हमें प्रतिदिन प्रतिक्षण होता है।  यही सिद्धान्त सत्य मत की संवृद्धि का आधार है।

मनमोहन कुमार आर्य

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‘वेदाविर्भाव और वेदाध्ययन की परम्परा पर विचार’

veda adhyan

ओ३म्

वेदाविर्भाव और वेदाध्ययन की परम्परा पर विचार

                सृष्टिकाल के आरम्भ से देश में अनेक ऋषि व महर्षि उत्पन्न हुए हैं। इन सबकी श्रद्धा व पूरी निष्ठा ईश्वरीय ज्ञान वेदों में रही है। यह वेद सृष्टि के आरम्भ में ईश्वर द्वारा हमारे अमैथुनी सृष्टि में उत्पन्न चार ऋषियों अग्नि, वायु, आदित्य व अंगिरा को उनकी आत्मा में अपने आत्मस्थ स्वरूप से प्रेरणा द्वारा प्रदान किये थे। आप्त प्रमाणों के अनुसार इन ऋषियों ने यह ज्ञान ब्रह्माजी को दिया और ब्रह्माजी से इन चारों वेदों को सृष्टि के आरम्भ में अन्य स्त्री व पुरूषों को पढ़ाये जाने की परम्परा का आरम्भ हुआ। इस विवरण से यह ज्ञात होता है कि ब्रह्मा जी को ईश्वर से सीधा ज्ञान नहीं मिला। ब्रह्मा जी को वैदिक संस्कृत भाषा और वेदों का ज्ञान अग्नि आदि चार ऋषियों से मिला। इसी प्रकार से ब्रह्माजी सहित इन 5 ऋषियों के अतिरिक्त अमैथुनी सृष्टि में जितने भी स्त्री-पुरूष उत्पन्न हुए थे वह सभी ज्ञान रहित थे। उनके पास न तो वेदों का ज्ञान था और न किसी भाषा का ही। भाषा के ज्ञान के लिए भी माता-पिता अथवा आचार्य की आवश्यकता होती है। उपलब्ध विवरण से यही ज्ञात होता है कि इन सबको भाषा व वेदों का ज्ञान ब्रह्मा जी से प्राप्त हुआ। यदि यह बात सत्य है, जो कि प्रमाणानुसार है, तो ब्रह्मा जी को इन सभी स्त्री व पुरूषों को पढ़ाने में बहुत लम्बा समय लगा होगा। इन मनुष्यों की कुल संख्या का विवरण भी प्रमाणिक साहित्य में उपलब्ध नहीं होता। हो सकता है कि इनकी संख्या एक सौ से 1000 के बीच या इससे भी अधिक हो सकती है। पूर्णतः ज्ञान शून्य युवा स्त्री पुरूषों को पढ़ाना ब्रह्मा जी के लिए काफी कठिन रहा होगा। पहले तो उन्हें स्वयं ही चार ऋषियों से अध्ययन करने में लंबा समय लगा होगा और फिर अन्य सभी स्त्री व पुरूषों को चारों वेदों का भाषा सहित ज्ञान देना अत्यन्त ही कठिन अनुभव होता है। परन्तु यह अवश्य हुआ और आज तक यह परम्परा चली आयी है। अतः इस पर सन्देह करने का कोई औचीत्य नहीं है।

 

यहां एक प्रश्न विचारार्थ और लेना चाहते हैं। शतपथ ब्राह्मण में उपलब्ध विवरण के अनुसार ईश्वर द्वारा अन्तर्यामीस्वरूप से अग्नि, वायु, आदित्य और अंगिरा इन चार ऋषियों को क्रमशः ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद का ज्ञान ईश्वर द्वारा इनकी जीवात्माओं में प्रेरणा द्वारा प्राप्त हुआ था। इन ऋषियों ने इन वेदों का ज्ञान ब्रह्माजी को कराया। यहां एक प्रश्न और उसका उत्तर उपस्थित हो रहा है कि ब्रह्माजी सहित यह पांचों ऋषि किसी एक स्थान पर एकत्र हुए होंगे। यह कार्य ईश्वर की प्रेरणा से ही हुआ होगा। इसके बाद सबसे पहले अग्नि ऋषि ने ब्रह्माजी को ऋग्वेद के मन्त्र सुनाएं होंगे और ब्रह्माजी एक-एक मन्त्र करके उनको स्मरण कर रहे होंगे। कहीं शंका होने पर अग्नि ऋषि से पूछते भी होंगे? मन्त्र रटाने के बाद फिर वह उनका अर्थ भी ब्रह्माजी को बताते होंगे और ब्रह्माजी उनसे अपनी शंकाओं का निवारण करते होंगे। जब अग्नि ऋषि द्वारा ब्रह्माजी को ऋग्वेद का पाठ व अध्ययन कराया जा रहा होगा तो वहां वायु, आदित्य और अंगिरा बैठे हुए यह सब कुछ देख व सुन रहे होंगे। यह स्वाभाविक है कि इससे इन तीन ऋषियों को भी ब्रह्माजी सहित ऋग्वेद का ज्ञान हो गया होगा। इसके बाद वायु ने ब्रह्माजी को यजुर्वेद का अध्ययन व पाठ कराया होगा और अब अग्नि, आदित्य व अंगिरा ऋषियों ने इस वार्तालाप को देख व सुन कर यजुर्वेद का ज्ञान प्राप्त कर लिया होगा। और इसी प्रकार से क्रमशः सामवेद और अथर्ववेद का ज्ञान भी ब्रह्माजी सहित सभी ऋषियों को हो गया होगा। कुछ विद्वान हमारे इस अनुमान पर आपत्ति कर सकते हैं कि इसका उल्लेख तो शास्त्रों में है नहीं। हमारा उत्तर है कि यह सामान्य बात है कि जब दो व्यक्ति बातें कर रहें हों तो वहां उपस्थित अन्य व्यक्ति भी उनकी बातों को सुनते हैं। बैठकों में एक व्यक्ति बोलता है तो सभी उपस्थित जन उसकी बातों को सुनते हैं और प्रश्नोत्तर करते हैं। ऐसा ही आर्य समाज के साप्ताहिक सत्संगों व वार्षिकोत्सव की बैठकों में भी होता है। अतः इस प्रकार की आपत्ति का कोई आधार नहीं बनता। इस प्रकार से अध्ययन समाप्त होने पर पांचों ऋषि अग्नि, वायु, आदित्य, अंगिरा और ब्रह्मा वेदों के ज्ञानी बन गये होंगे और इसके बाद इन्होंने अलग-अलग वा मिलकर शेष शताधिक या सहस्राधिक स्त्री-पुरूषों को ज्ञान कराया होगा। इस अमैथुनी सृष्टि के बाद मैथुनी सृष्टि भी आरम्भ होनी थी जो कि निश्चित रूप से हुई और इन उत्पन्न नई पीढ़ी के बालक व बालिकाओं को इन ऋषियों व शेष स्त्री पुरूषों में से योग्य विदुषी और विद्वान पण्डितों द्वारा सभी बच्चों को अध्ययन कराया गया होगा। इस प्रकार से सृष्टि के आरम्भ में अध्ययन अध्यापन की परम्परा प्रचलित होने का अनुमान है।

 

हमने एक अन्य प्रश्न पर भी विचार किया है। वह यह कि सृष्टि के आरम्भ में जो मनुष्य उत्पन्न हुए उन्हें वेद मन्त्रों के अर्थ जानने में भारी कठिनाई होती होगी। मनुष्यों का आत्मा जो आज है वही सृष्टि के आरम्भ में भी था। हमारा शरीर पंच भूतों से मिलकर बना था। सृष्टि के आरम्भ में अमैथुनी सृष्टि में भी सभी ऋषियों व साधारण जनों का शरीर भी इन्हीं पंचभूतों से बना था। भिन्नता केवल यही हो सकती है कि उनकी आत्माओं के संस्कार हमारी आत्माओं से उत्कृष्ट रहे हो सकते हैं। यदि ऐसा न होता तो अध्ययन अध्यापन व वेदों के ज्ञान के पीढ़ी दर पीढ़ी आगे बढ़ाने में काफी कठिनाईयों का सामना करना पड़ता। ईश्वर सर्वज्ञ, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, अनादि, अनुत्पन्न, अजर अमर भी है। अतः सृष्टिकर्ता ईश्वर ने हर समस्या का निदान अपने विवेक से पहले ही किया हुआ रहा होगा। इस आधार पर जब हम देखते हैं तो हमें आदि अमैथुनी सृष्टि व उसके बाद की अनेकानेक पीढि़यों में उच्च कोटि के योगियों व मुनियों की सृष्टि अनुभव होती है। यह ऋषियों से पढ़ व सुन कर तत्काल उसे जान लेते होंगे। जिन वेद मन्त्रों के अर्थ जानने में कठिनता होती होगी उसे यह समाधि लगाकर ईश्वर से पूछ लेते होंगे या क्रमशः मन्त्रों पर विचार व चिन्तन कर अर्थ जान लेते होंगे जैसा कि महर्षि दयानन्द किया करते थे। और जब यह परम्परा सुस्थापित हो गई तो फिर धीरे-धीरे बुद्धि व स्मरण शक्ति का ह्रास होने लगा। ऐसा होने पर भी देश व समाज में अनेक ऋषि-मुनियों के होने पर हर समस्या का हल विवेक पूर्वक ढूंढा जाता रहा होगा। ऐसा होते-होते महाभारत काल का समय आ गया। रामायण-कालीन और महाभारत-कालीन वर्णन इन ग्रन्थों में उपलब्ध हैं ही। इस क्रम को यहां रोक कर हम पहले आदिकालीन मनुष्यों द्वारा भाषा व ज्ञान की उत्पत्ति पर विचार करते हैं तथा इस क्रम को इसके बाद जारी रखेगें।

 

क्या मनुष्य स्वयं भाषा व ज्ञान की उत्पत्ति कर सकता है? इसका उत्तर हमें नहीं में मिलता है। इसका कारण यह है कि सर्वप्रथम भाषा जो भी हो या होती है, उसके निर्माण के लिए ज्ञान का होना आवश्यक है। ज्ञानहीन व्यक्ति बुद्धिपूर्वक ज्ञान का कोई काम नहीं कर सकता। भाषा क्या है? यह वाक्यों का समूह होती है। वाक्य शब्दों से मिलकर बनते हैं। शब्द संज्ञायें, सर्वनाम व क्रियाओं आदि के रूप में होते हैं। इसके आतरिक्त का, को, कि, से, पर, में आदि जैसे अनेक शब्दों का प्रयोग भी होता है। यह सभी शब्द कुछ मिश्रित ध्वनियों के उच्चारण से बनते हैं। इन ध्वनियों को पृथक-पृथक किए बिना, जैसा कि हिन्दी की वर्णमाला देवनागरी लिपि में है, भाषा बन नहीं सकती। इसको बनाने के लिए ज्ञान की आवश्यकता अपरिहार्य है। ज्ञान है ही नहीं तो भाषा कदापि नहीं बन सकती। भाषा से पूर्व विचार करना होगा, विचार भाषा में ही हो सकता है, भाषा ज्ञान की वाहिका है व ज्ञान का आधार व मूल भाषा है। अतः ज्ञान बिना भाषा के रहता ही नहीं और जब भाषा ही नहीं है तो भाषा बनाने के लिए अपेक्षित ज्ञान न होने के कारण भाषा नहीं बन सकती है। इससे सिद्ध होता है कि आदि भाषा वैदिक संस्कृत और वैदिक संस्कृत में निहित ज्ञान “चार वेद” सर्वप्रथम सृष्टि की आदि में ईश्वर से प्राप्त हुए थे। इस ईश्वर कृत वैदिक संस्कृत भाषा के प्राप्त होने पर अध्ययन का क्रम चल पड़ता है और देश, काल व परिस्थिति के अनुसार उच्चारण दोषों आदि से नई-नई भाषायें बना करती हैं। हमारा यह भी निवेदन है कि इस विषय पर मौलिक विचारों को जानने के लिए महर्षि दयानन्द के ग्रन्थ सत्यार्थ प्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका सहित उनके सभी ग्रन्थ उपयोगी हैं।

 

पुनः रामायण व महाभारत से आगे चर्चा करते हैं। महाभारत काल के बाद का इतिहास पूरी तरह सुरक्षित नहीं रहा है। इसका एक कारण विधर्मियों द्वारा तक्षशिला और नालन्दा के पुस्तकालयों को आग के समर्पित कर देना रहा। दूसरा कारण महाभारत काल के बाद आलस्य प्रमाद भी बढ़ता रहा और देश में अध्ययन व अध्यापन की सक्षम वा कारगर व्यवस्था व प्रणाली न रही जिससे महर्षि दयानन्द तक घोर अज्ञान व अन्धविश्वासों का समय हमारे देश में आया। विदेशों का कुछ-कुछ हाल भी अनुमान व उपलब्ध प्रमाणों के आधार पर जाना जा सकता है। इतना और कहना समीचीन होगा कि महाभारत काल तक के लम्बे समय में देश में अनेकानेक ऋषि-मुनि हुए जिन्होंने ब्राह्मण, दर्शन, उपनिषद, ज्योतिष, आयुर्वेद, संस्कारों आदि के अनेकानेक ग्रन्थों का प्रणयन किया था। सौभाग्य की बात है कि इन विपरीत परिस्थितियों में हमारे अनेक ग्रन्थ सुरक्षित रह सके, यह ईश्वर की हम पर बहुत महती कृपा है। दूसरी कृपा हम पश्चिम के वैज्ञानिकों की भी मानते हैं जिन्होंने कागज, मुद्रण प्रेस, कमप्यूटर आदि नाना प्रकार के यन्त्र व संयत्रों का आविष्कार किया जिससे आज हमारे पास न केवल चार वेद, दर्शन व उपनिषदें ही विद्यमान हैं अपितु चारों वेदों के अनेक विद्वानों के भाष्य एवं इतर विपुल वैदिक साहित्य भी सुलभ है। हमारा अनुमान है महाभारत काल उससे पूर्व भी आजकल की तरह एक व्यक्ति के पास सहस्रों ग्रन्थ नहीं रहा करते होंगे जैसे कि आजकल हैं। यह आधुनिक युग की देन जिसका अधिकांश श्रेय पश्चिमी जगत के वैज्ञानिकों को है। इस कार्य में सबसे अधिक यदि किसी अन्य का महनीय योगदान है तो वह महर्षि दयानन्द सरस्वती व उनके अनुयायियों का है। हम उनके चरणों का वन्दन करते हैं। यह भी कहना चाहते हैं कि हमारे देश के लोगों सहित विदेश के लोगों ने भी उनका उचित मूल्याकंन नहीं किया और न ही उनके द्वारा की गई आध्यात्मिक खोजों से लाभ उठाया है। राजनैतिक व अनेक सामाजिक दलों ने तो उनकी जानबूझकर उपेक्षा की है और उनसे न्यून व विपरीत ज्ञान तथा आचरण में भी कमजोर लोगों को उनसे अधिक योग्य सिद्ध करने का प्रयास किया है व किए जा रहे हैं। हम महर्षि दयानन्द की जय बोलकर इस लेख को विराम देते हैं।

 

मनमोहन कुमार आर्य

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