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सरमा पणि संवाद – एक विवेचन

सरमा पणि संवाद – एक विवेचन

– उदयन आर्य

विश्व के पुस्तकालय में उपलबध प्राचीनतम ग्रन्थ वेद है। प्राचीन भारतीय ऋषियों का मन्तव्य है कि सृष्टि के आदि में परमपिता परमात्मा ने ऋषियों के माध्यम से यह ज्ञान मनुष्यों को प्रदान  किया। ये वेद परम पिता के निःश्वास के समान हैं। इन ऋचाओं का मुखय विषय स्तुति है और इस स्तुति के माध्यम से ऋषि परमात्मा के गुणों को अपने अन्दर धारण करने का प्रयास करते हैं। मंगलेच्छुक मनुष्य परम पवित्र इन ऋचाओं का अध्ययन करता है और स्वयं परमात्मा से ऋचाओं में स्थापित रस का आनन्द लेता है।1

कालान्तर में जब वेदों का साक्षात् दर्शन कठिन हो गया तो अन्य ग्रन्थ लिखे गये2। ब्रह्मा का (वेद) व्याखयान ही ब्राह्मण कहलाता है। इन ब्राह्मणों में वेदों के भावों को योगों में विनियोग के साथ-साथ मन्त्रों की व्याखया को रोचक बनाने के लिए नाटक का रूप दिया गया और इन नाटकों को जन तक पहुँचाने के लिए आखयान के रूप में व्याखयायें की गईं।

सरमा तथा पणि संवादसरमा शबद निर्वचन प्रसंग में उद्धृत ऋग्वेद 10/108/01 के व्याखयान में प्राप्त होता है। आचार्य यास्क का कथन है कि इन्द्र द्वारा प्रहित देवशुनी सरमा ने पणियों से संवाद किया।3पणियों ने देवों की गाय चुरा ली थी। इन्द्र ने सरमा को गवान्वेषण के लिए भेजा था। यह एक प्रसिद्ध आखयान है।

आचार्य यास्क द्वारा सरमा माध्यमिक देवताओं में पठित है। वे उसे शीघ्रगामिनी होने से सरमा मानते हैं। वस्तुतः मैत्रायणी संहिता के अनुसार भी सरमा वाक् ही है।4 गाय रश्मियाँ हैं।5 इस प्रकार यह आखयान सूर्य रश्मियों के अन्वेषण का आलंकारिक वर्णन है। निरुक्त शास्त्र के अनुसार ‘‘ऋषेः दृष्टार्थस्य प्रीतिर्भवत्यायानसंयुक्ता’’6अर्थात् सब जगत् के प्रेरक परमात्मा अद्रष्ट अर्थों को आखयान के माध्यम से उपदिष्ट करते हैं। वेदार्थ परमपरा के अनुसार मन्त्रों के तीन प्रकार के अर्थ होते हैं- आधिभौतिक, आदिदैविक, आध्यात्मिक। तीनों दृष्टियों से इस सूक्त के पर्यालोचन से सिद्ध होता है कि यह सूक्त किन्हीं विशेष अर्थों को कहता है। विश्लेषण के लिए इस समवाद में प्रयुक्त शबदों के अर्थों को व्याकरण और निरुक्त के अनुसार समझने की आवश्यकता है।

क्रमशः एक-एक शबद पर विचार करते हैं।

  1. पणयः- ऋग्वेद में 16 बार प्रयुक्त बहुवचनान्त पणयः शबद तथा चार बार एकवचनान्त पणि शबद का प्रयोग है। पणि शबद पण् व्यवहारे स्तुतौ च धातु से अच् प्रत्यय करके पुनः मतुबर्थ में अत इनिठनौ से इति प्रत्यय करके सिद्ध होता है। यः पणते व्यवहरति स्तौति स पणिः अथवा कर्मवाच्य में पण्यते व्यवहियते सा पणिः’’। अर्थात् जिसके साथ हमारा व्यवहार होता है और जिसके बिना हमारा जीवन व्यवहार नहीं चल सकता है, उसे पणि कहते हैं । इस प्रकार यह पणि शबद मेघ का वाचक है अथवा वायु का वाचक है। इस पणि को वृत्र अथवा ‘असुर’ कहा गया है। आचार्य यास्क के वृत्रं वृणोतेः कहकर जो आवरण करता है, ढक लेता है, उसे वृत्र कहते हैं। वही वृत्र वरण कर लेने वाला मेघ जब वारिदान करता है, तब देव कहलाता है, किन्तु जब जल को सुरक्षित कर लेता है बरसने नहीं देता, तब वह असुर कहलाता है। इसकी व्याखया इस प्रकार कर सकते हैं- राति ददाति इति रः सु शोभनं रति ददाति इति सुरः नु सुरः असुरः अर्थात् इस यौगिक अर्थ के अनुसार असुर शबद पणि के प्रसंग में अवरोधक मेघ है। (2) इन्द्र, निरुक्तकार यास्क के अनुसार इन्दति परमैश्वर्यवान् भवति इति इन्द्रः इराम् जलानां आनेता इन्द्रः= सूर्य। इसी तरह आदि दैविक अर्थ में इन्द्र सूर्य का वाचक है, आध्यात्मिक अर्थ में इन्द्र जीवात्मा और परमात्मा को कहते हैं। इन्द्र सूर्य की गावः = रश्मयः गावः इति रश्मि नामसु पठितम् (निरुक्त)। अब इस कथा का भाव हुआ कि इन्द्र= सूर्य की गावः, रश्मियों को जल न देने वाले असुरों= मेघों ने आच्छन्न कर लिया है। इन्द्र के बार-बार सूचना देने पर भी पणियों ने इन्द्र की गायों को नहीं छोड़ा और जिससे प्रजा व्याकुल होने लगी, जब इन्द्र ने दूती भेजी। दूती को यहाँ पर देवशुनी सरमा कहा गया है। सरति गच्छति सर्वत्र इति सरमा, देवानां सुनी सूचिका दूती वा देवसूनी सरमा कही गई है। इस प्रकार देवशुनी बादल की गड़गड़ाहट रूपी ध्वनि के साथ पणियों से संवाद करती है और कहती है कि हमारे राजा की गौओं को छोड़ दो, नहीं तो हमारा बलवान राजा दण्ड देगा। पणियों ने देवशुनी की बात नहीं मानी, तब इन्द्र ने वज्र प्रहार कर अर्थात् वायु के प्रहार के माध्यम से पणियों को मारकर धरती पर सुला दिया और अपनी गायों को मुक्त करा लिया। सारा संसार वृष्टि से सुखी हुआ और सूर्य की किरणें चारों ओर फैल गईं। वैदिक आखयानों को सामान्य अर्थों में ग्रहण न करके विशिष्ट एवं यौगिक अर्थों में ही ग्रहण करना चाहिए। शबदों के यौगिक अर्थों के आलोक में इन आखयानों को देखने पर वेदार्थ की उत्तम, आदर्श, नव्य और दिव्य प्रक्रिया का ज्ञान होता है।

अन्त में प्रश्न आता है कि वैदिक आखयानों की वास्तविकता स्वीकरणीय है अथवा अस्वीकरणीय? तो इसका संक्षेप में उत्तर यह है कि यदि रूपकालंकार की दृष्टि से वे आखयान मन्त्रार्थ से संगत होते हैं तो वे आलंकारिक रूप से अथवा शाश्वत घटित होने वाली घटनाओं के ऐतिहासिक शैली के चित्रण के रूप में ग्राह्य एवं स्वीकरणीय हैं, परन्तु यदि मन्त्र सूक्त गत संवादादि का समबन्ध किसी अवरकालिक पुराण महाभारतादि ग्रन्थों में वर्णित अनित्य इतिहास से बलात् जोड़ा गया है और वह गठजोड़ असंगत और अटपटा लग रहा है तो उसे वास्तविक रूप में स्वीकार न करके  सर्वथा अवास्तविक ही मानना चाहिए। तत्र नामान्यायातजानीति शाकटायनो नैरुक्तसमयश्च7 तथा नाम च धातुजमाह निरक्ते व्याकरणे शकटस्य च तोकम्8 के धातुज वैयाकरणों में विशेषः शाकटायनाचार्य तथा सपूर्ण नैरुक्त समुदाय वेद के शबदों को धातुज अर्थात् यौगिक मानते हैं। इस दृष्टि से वेद मन्त्रों से कोई रुढ़ि अर्थ या मानवीय अनित्य इतिहास के वर्णन की समभावना वहाँ नहीं हो सकती है, अतः सारमेयाश्वानी, यम-यमी, अश्विनी, देवापि, सरमा, पणि, विश्वामित्र, गृस्तमद इन्द्र आदि पदों से किसी लौकिक कथानक की कल्पना वेदों में करना अन्धाधुन्ध है। ऐसे शबदों और उनसे अभिव्यक्त होने वाले कथोपकथन से किसी अन्य प्राकृतिक व वैज्ञानिक तथ्य का अनुसन्धान करना ही युक्ति संगत होगा। यदि कोई आखयान मन्त्रार्थ को स्पष्ट करने के लिए कल्पित किये गये हैं तो उनको आलंकारिक दृष्टि से संगत मानना चाहिए। मन्त्रों में उपमा, रूपक, श्लेषादि अलंकारों का प्रयोग प्राचीन और अर्वाचीन प्रायः सभी भाष्यकारों ने स्वीकार किया। वैदिक आखयानों में प्राकृतिकता, अलोकिकता आदि का वर्णन मिलता है। उर्वशी आखयान में मेघों का और विद्युत और मेघ के युद्ध का वर्णन है। वैदिक ग्रन्थों ने इनका प्राकृतिक अर्थ किया है।

उपरिगत विवेचन से यह सर्वथा स्पष्ट हो जाता है कि मन्त्रगत इतिहास अथवा आखयान तत्त्वतः औपचारिक, अर्थवादात्मक, उपमार्थक अथवा आलंकारिक हैं, आधुनिक अर्थ में ऐतिहासिक नहीं, अतः उनके समयक् अवगम एवं विश्लेषण में अतीव सावधानी तथा चिन्तन की अपेक्षा है।

पाद टिप्पणी

  1. यः पावमानीरध्येतृषिभिः सभतं रसम्-ऋग्वेद 9.67.31
  2. साक्षात्कृतधर्माण ऋ षयो बभूवुः तेऽवरेयोऽसाक्षात् कृत धर्मय उपदेशेन मंत्रान् सप्रादुः।

उपदेशाय ग्लायन्तोऽवरे बिल्म ग्रहणाय ग्रन्थं समाम्नासिषु वेदं च वेदांगानि च। निरुक्त। 1.21

  1. निरुक्त 11.25 देवशुनीन्द्रेण प्रहिता पणिभिरसुरैः समूढ इत्यायानम्।
  2. वाग् वै सरमा।
  3. निरक्त 2.7 सर्वेऽपि रश्मयो गाव उच्यते।
  4. निरुक्त 10.46
  5. निरुक्त 1/12
  6. पातंजल महाभाष्य 3.31

– दयानन्द वैदिक अध्ययन पीठ, पंजाब विश्वविद्यालय चण्डीगढ़।