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‘प्रातः व सायं संन्ध्या करना सभी मनुष्यों का मुख्य धर्म’ -मनमोहन कुमार आर्य

ओ३म्

प्रतिदिन प्रातः व सायं सूर्योदय व सूर्यास्त होता हैं। यह किसके ज्ञान व शक्ति से होता है? उसे जानकर उसका ध्यान करना सभी प्राणियों मुख्यतः मनुष्यों का धर्म है। यह मनुष्य का धर्म क्यों है, इसलिए है कि सूर्याेदय व सूर्यास्त करने वाली सत्ता से सभी प्राणियों को लाभ पहुंच रहा है। जो हम सबको लाभ पहुंचा रहा है उसके प्रति कृतज्ञ होना निर्विवाद रूप से कर्तव्य वा धर्म है। यदि सूर्योदय व सूर्यास्त होना बन्द हो जाये तो हमारी क्या दशा व स्थिति होगी, इस पर हमें विचार करना चाहिये। ऐसा होगा नहीं, परन्तु यदि सूर्योदय होना बन्द हो जाये तो हमारा जीवन दूभर हो जायेगा। एक स्थान पर यदि दिन है तो वहां दिन ही रहेगा और रात्रि व सायं का समय है तो वहां हमेशा अर्थात् प्रलय काल तक वैसा ही रहेगा जिससे मनुष्यों का जीवन किंचित आगे चल नहीं सकता। वैज्ञानिक दृष्टि से ऐसा होने पर संसार की प्रलय हो जायेगी और सब कुछ नष्ट हो जायेगा। यह तो हमने एक ही दृष्टि से विचार किया परन्तु यदि हम सृष्टि की उत्पत्ति से लेकर वनस्पति प्राणी जगत की उत्पत्ति तक के, सृष्टि के सभी अपौरूषेय कार्यों पर विचार करें तो हमें इस सृष्टि को बनाने, चलाने, वनस्पति प्राणी जगत को उत्पन्न करने, सृष्टि की आदि में वेद ज्ञान देने, समय पर ऋतु परिवर्तन करने, सृष्टि में मनुष्यों अन्य प्राणियों के नाना प्रकार के सुख वा भोग के पदार्थ बनाकर बिना किसी मूल्य के हमें देने के लिए हमें स्रष्टा ईश्वर का ऋणी तो होना ही है। इस ऋण को चुकाने के लिए हमारे पास अपनी कोई वस्तु नहीं है जिसे ईश्वर को देकर हम उऋण हो सकते हों। इसके लिए तो बस हमें ईश्वर की प्रतिदिन प्रातः व सायं स्तुति, प्रार्थना व उपासना ही करनी है। ईश्वर की स्तुति, प्रार्थना व उपासना की सत्य व लाभकारी विधि चार वेद व वैदिक साहित्य में ही मिलती है जिसके आधार पर महर्षि दयानन्द ने ईश्वर उपासना के लिए ‘‘सन्ध्या पद्धति का निर्माण कर हमें प्रदान की है। यदि हम इस विधि से ईश्वर का ध्यान न कर अन्य प्रचलित पद्धतियों को अपनाते हैं, तो हमारा मानना है कि इससे हमें वह लाभ नहीं होगा जो कि वैदिक सन्ध्या पद्धति से ईश्वर की स्तुति, प्रार्थना उपासना करने से होता है। अतः अन्य पद्धतियां हमारे लिए लाभकारी कम हानिकारक अधिक सिद्ध होंगी।

 

सन्ध्या क्या है? यह ईश्वर के स्वरूप का चिन्तन करते हुए उसके द्वारा हमारे निमित्त किये गये सभी उपकारों को स्मरण करना और उसकी स्तुति अर्थात् उसके सत्य गुणों का वर्णन करते हुए उससे ज्ञान, सद्बुद्धि, सद्गुणों, स्वास्थ्य, बल, ऐश्वर्य आदि की प्रार्थना करना और साथ हि सभी उपकारों के लिए उसका धन्यवाद करना है। यह सन्ध्या व ईश्वर का सम्यक् ध्यान सूर्यादय से पूर्व व सायं सूर्यास्त व उसके बाद लगभग 1 घंटा व अधिक करने का विधान है। इसके लिए सभी दिशा निर्देश महर्षि दयानन्द ने पंचमहायज्ञ विधि पुस्तक में किये हैं। सन्ध्या में ईश्वर का ध्यान करने से मनुष्य की आत्मा व उसके स्वभाव के दोष दूर होकर ईश्वर के समान गुण, कर्म व स्वभाव सुधरते व बनते हैं। ईश्वर सकल ऐश्वर्य सम्पन्न है, अतः सन्ध्या करने से जीवात्मा वा मनुष्य भी अपनी अपनी पात्रता के अनुसार ईश्वर द्वारा ऐश्वर्यसम्पन्न किया जाता है। अतः ऐश्वर्य की प्राप्ति के लिीए सभी मनुष्यों को प्रतिदिन सन्ध्या अवश्य ही करनी चाहिये। यदि सन्ध्या नहीं करेंगे तो हम कृतघ्न ठहरेंगे और यह कृतघ्नता महापातक वा महापाप होने से किसी भी अवस्था में मननशील व बुद्धिजीवी मनुष्य के लिए करने योग्य नहीं है। आप कल्पना कर सकते हैं कि यदि ईश्वर एक क्षण भी अपने कर्तव्य कर्मों में किंचित असावधानी व व्यवधान पैदा कर दे, तो सारे संसार में प्रलय की स्थिति आ जायेगी। ऐसी अवस्था में उस अपने प्रियतम ईश्वर के प्रति अपने कर्तव्य ‘‘सन्ध्या का आचरण न करना घोर अवज्ञा, कृतघ्नता और दण्डनीय कार्य हो जाता है। इससे सभी को बचना चाहिये।

 

सन्ध्या के लिए यदि हमें किसी महापुरुष का उदाहरण लेना हो तो हम कौशल्या-दशरथ नन्दन मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम, देवकी-वसुदेव नन्दन योगेश्वर श्री कृष्ण व कर्षनजी तिवारी के पुत्र महर्षि दयानन्द सरस्वती को ले सकते हैं। यह तीनों ईश्वर भक्त व उपासक थे। इनका जीवन पूर्णतया ईश्वरीय ज्ञान वेद की पालना में ही व्यतीत हुआ है। आज तक भी इनका यश है जबकि सृष्टि में विगत समय में अगणित मनुष्यों का जन्म व मृत्यु हो चुका है जिनका नाम किसी को स्मरण नहीं। हमें लगता है कि विस्मृत महापुरूषों के जीवनों के अतिरिक्त यह तीनों ही महापुरूष मानवता के सच्चे आदर्श व मुक्तिगामी महापुरूष थे। यदि हम इनका अनुकरण करेंगे तो हमारा जीवन भी इनके अनुरूप ही यशस्वी व सफल होगा अन्यथा हम भी एक सामान्य व साधारण मनुष्य की तरह कालकवलित होकर विस्मृत हो जायेंगे। इन महापुरूषों का अनुकरण करने के लिए हमें वेद व योगदर्शन सहित समस्त वैदिक साहित्य, बाल्मिकी रामायण, महाभारत, गीता, महर्षि दयानन्द जी के पं. लेखराम, पं. देवेन्द्रनाथ मुखोपाध्याय, स्वामी सत्यानन्द रचित जीवन चरित्र व सत्यार्थ प्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, संस्कारविधि, आर्याभिविनय आदि उनके ग्रन्थों का अध्ययन करना चाहिये। इस अध्ययन से मनुष्य ईश्वर व जीवात्मा का ज्ञान प्राप्त कर अभ्युदय व निःश्रेयस प्राप्त कराने वाली जीवन शैली को प्राप्त कर, निःशंक एवं निभ्र्रान्त होकर, मनुष्य जीवन को सफल कर सकता है।

 

जिस परिवार में वैदिक पद्धति से नियमित सन्ध्या होगी वह परिवार आजकल के प्रदूषित सामाजिक वातवारण में भी सच्चा आस्तिक परिवार होगा और उसमें अन्यों की तुलना में सुख, शान्ति व कल्याण की स्थिति अधिक अच्छी होगी। माता-पिता व वृद्ध जन अपने छोटो को सुशिक्षित करने के लिए प्रयत्नरत रहेंगे और इस प्रकार से निर्मित संस्कारित सन्तानें भी माता-पिता व परिवार के वृद्धों के प्रति अपने कर्तव्यों को जानकर उनकी सेवा श्रुशुषा करेंगीं। आजकल के समाज की भांति माता-पिता व सन्तानों के विचारों में जीवन शैली के प्रति मत-भिन्नता व बिखराव नहीं होगा। सन्ध्या के अन्त में उपासक ध्याता ईश्वर को समर्पण करते हुए कहता है कि हे ईश्वर दयानिधे ! भवत्कृपयानेन जपोपासनादिकर्मणा धर्मार्थकाममोक्षाणां सद्यः सिद्धिर्भवेन्नः। अर्थात् हे परमेश्वर दयानिधे ! आपकी कृपा से जप और उपासना आदि कर्मों को करके हम धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की सिद्धि को शीघ्र प्राप्त होवें। सन्ध्या करने से होने वाले अनेक लाभों में से एक लाभ आत्मा को ईश्वर का साक्षात्कार होना है। महर्षि दयानन्द ने स्वानुभूत विवरण देते हुए बताया है कि जब जीवात्मा शुद्ध (अविद्या, दुर्गुण दुव्यस्नों से मुक्त) होकर परमात्मा का विचार करने में तत्पर रहता है, उस को उसी समय दोनों, ईश्वर आत्मा, प्रत्यक्ष होते है। सन्ध्या से हमारा जीवन व आचरण श्रेष्ठ बनेगा, हम आर्थिक रूप से सुखी व समृद्ध होंगे और इससे हम अपने सभी सत्य स्वप्नों, कामनाओं व इच्छाओं को पूर्ण कर सकेंगे, साथ ही मृत्यु के बाद बार-बार जन्म व मृत्यु के बन्धन से भी छूट जायेंगे।

 

वैदिक धर्म में मनुष्य जीवन का अन्तिम लक्ष्य मोक्ष की प्राप्ति है। जीवात्मा के इस मोक्ष की किसी भी मत में तार्किक चर्चा नहीं है। यह केवल वैदिक व आर्य धर्म में ही है जिसे तर्क व युक्तियों से महर्षि दयानन्द सहित उनके पूर्ववर्ती दर्शनकारों ने सिद्ध किया है। वेदों में भी इसकी चर्चा है। मोक्ष का ही अन्य नाम ‘‘अमृत है। अमृत का अर्थ है मृत्यु को प्राप्त न होने वाला वा मृत्यु से छूट जाने वाला। वैदिक धर्म व जीवन पद्धति पर चलकर ही मनुष्य को अमृत व मोक्ष की प्राप्ति होती है जिससे वह सदा-सदा के लिए जन्म-मरण रूपी दुःखों व कर्मों के बन्धनों से छूट जाता है। आईये, वैदिक धर्म की शरण लें और ईश्वर की सन्ध्या सहित अन्य उपादेय यज्ञ आदि अनुष्ठानों को करके धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष की प्राप्ति कर उसे सिद्ध करें।

मनमोहन कुमार आर्य

पताः 196 चुक्खूवाला-2

देहरादून-248001

फोनः09412985121

सन्ध्याः- सच्चा स्थाई बीमा – श्री पं. चमूपति एम.ए.

3म् वायुरनिलममृतमथेदं भस्मान्त्ँ शरीरम्।

3म् क्रतो स्मर क्लिबेस्मर कृतँ्स्मर।।

-यजु. अ. 40 ।। मं. 15।।

प्राण जीवन की कला है। इसके चलने से शरीर चलता है, इसके रुकने से शरीर रुक जाता है। परमात्मा ने प्राणों की गति में कुछ ऐसा अनुपात रक्खा है, कि एक श्वास-प्रश्वास की मात्रा बिगड़ी नहीं और यह अद्भूत यन्त्र विकृत हुआ नहीं। इसी गति के बिगाड़ का फल रोग और उसी का फल अन्त को मृत्यु है। जब यह बोलता चलता पार्थिव पुतला अचानक मौन साध बैठा, अर्थात् जीव ने शरीर से प्रस्थान किया, तो इसे ज्वाला की भेंट चढ़ायेंगे। उसका सारा सौन्दर्य तथा बल मुट्ठी भर भस्म होगा। फिर तो प्राण-वायु, वायु-तत्व में जा मिलेगा। मृत शरीर में भी वायु का प्रवाह तो होगा, परन्तु प्राण रूप में नहीं। तब उस शरीर से जीव का क्या सबन्ध?

उस समय जीव की अवस्था उस धनाढ्य की सी होगी, जिसने सारी आयु संसार में घूम-घूमकर वैभव इकट्ठा किया, एड़ी चोटी का बल लगाकर पूँजी कमाई, सारे घर को धन-धान्य से भर दिया, अकस्मात् एक दिन लकड़ी के ढेर में चिनगारी सुलगती रहने से भवन में आग लग गई। ईश्वर ने इतनी ही कृपा की कि कार्यवश गृह-स्वामी कुटुब सहित घर से बाहर था। लो। उन कपड़ों को आग लग रही है जो देश-विदेश के कारखानों से आये थे, कुसियाँ और मेजें ज्वाला के मुख में है। जिन दीवारों की सफेदी बिगड़ने के भय से माघ के शीत में आग न जलाते थे, आज ईंधन ने उन पर काला रोगन कर दिया। पुस्तकों का तो नाम ही न रहा। उनके पत्र तथा अक्षर सबने मसि का चोला स्वीकार किया है।

कड़। कड़।। कड़।।। शहतीर तथा कड़ियाँ गिर रही हैं जो सामग्री जलने की न थी, वह उनके दबाव में टूट गई। अब तो न बर्तन रहे, न भूषण, न कोई और नित्य निर्वाह की सामग्री। लाा का घर राख हो जाता है। पानी की गाड़ी आती है और गगनचुबी ज्वालाओं को बुझाती है। पर जो पदार्थ नष्ट हुए, उनको फिर कौन लौटा लाएगा?

नगर का एक प्रसिद्ध धनाढ्य पिस गया। आओ । हम भी आर्थिक सहायता न सही, मौखिक सहानुभूति तो प्रकट कर दें। हम मुख को कुछ शोकावृत-सा बना लेते हैं कि सहानुभूति हार्दिक प्रतीत हो। पर सेठजी की मुख कली वैसे ही प्रफुल्लित है, जैसी आग की आपत्ति से पूर्व थी। कहते हैं- ‘‘यह कोई मेरा बड़ा गोदाम न था। मेरा धन किसी विशेष स्थान में अथवा सामग्री के रूप में स्थित नहीं, किन्तु सारा व्यवसायों में लगा है। कपनियों में हिस्से हैं, अपने कार्यालय हैं, जिनसे स्थाई आय आती है। जो भवन जल गया, इसका भी बीमा करा दिया था। सो चिट्ठी भेजी है, रुपया आ जाएगा, फिर नया भवन बनवा लेंगे।’’

शरीर रूपी भवन को भस्म होते देखने वाले जीव। क्या मन की यही अवस्था है जो उक्त सेठ की थी? क्या तेरी शारीरिक सपत्ति भी व्यवसायगत है? क्या इससे तुझे स्थाई आय है? अर्थात् तेरी शारीरिक शक्तियों का प्रयोग ऐसा है, जिससे आत्मिक बल सदैव बढ़े? क्या इस शरीर के छूटने पर इससे अच्छा शरीर मिलेगा? या मरे पीछे तू मुक्तिधाम को प्राप्त हो जाएगा? यदि अब तक यह यत्न नहीं किया तो आ, अब करें।

आत्मिक बही की पड़ताल

किसी प्रकार की भी उन्नति करने से पूर्व आवश्यक है कि अपनी वर्तमान अवस्था का पूरा ज्ञान प्राप्त किया जाए।

व्यापारी दूसरे दिन की बिक्र ी उसी समय करता है, जब पहले दिन की बही मिला चुके अर्थात् आय व्यय की तुलना करके देख ले कि कितना बचा है? जिसको अपनी पूँजी का पता नहीं वह उसकी वृद्धि के उपाय क्यों कर करेगा?

प्रिय मुमुक्षु। तू पहले अपनी आत्मिक अवस्था पर दृष्टि डाल। वेद कहता है ‘‘कृतं स्मर’’ अर्थात् अपने किए की याद कर। क्या कहीं शिथिलता है? त्रुटियाँ हैं? आलस्य उनकी निवृत्ति में बाधक है। समाज का भय उठने नहीं देता? लज्जा के कारण निर्बल है? ले, इसका भी एक अचूक उपाय है। ‘‘क्लिबे स्मर’’ अर्थात् बल के  लिए स्मरण कर। किसका? अर्थात् उस पवित्र पतितपावन,बल के पुञ्ज सर्वशक्ति के आधार, धर्मस्वरूप, तेज के स्रोत प्राु परमात्मा का। बस यही तीन कार्य हैं,  जो तुझे प्रतिदिन करने हैं। (1) अपने आचरण पर ध्यान देना, (2) उसमें आई त्रुटियों को विचार गोचर रखना, और (3) सब बलों के भण्डार सर्वशक्तिमान् का स्मरण करना।

लोगों ने मृत्यु को भयानक समझा है। वास्तव में मृत्यु एक परिवर्तन है। मरते हुए पं. गुरुदत्त से लोगों ने पूछा- ‘‘आप प्रसन्न क्यों है?’’ कहा- ‘‘इस देह में दयानन्द न हो सके थे, इससे उत्तम देह पायँगे तो दयानन्द बनेंगे।’’ जो परिवर्तन उन्नति का द्वार हो उसका स्वागत खुले दिल से किया जाता है। जिससे पतन की सभावना हो उससे डरते हैं। मृत्यु शत्रु है तो उसे जीत। घबराने से और भीरु होगा।

शक्तिमान् के स्मरण से शक्ति

शंका हो सकती है कि परमात्मा के स्मरण-मात्र से ही शक्ति क्यों कर आएगी? यह बात जितनी गूढ़ है, उतनी आनन्दप्रद भी है। बच्चा नंगे सिर किसी गली में ोलता है। अपने विचारानुसार जिस बालक को अपने से अच्छा समझता है, उसका अनुकरण करने लगता है। वह लाल रंग का कुर्ता पहने है, तो इसे भी लाल रंग का कुरता चाहिए। बड़ा हुआ, पाठशाला गया। अपने सहपाठियों में से किसी को आदर्श विद्यार्थी जानकर उसका अनुकरण करता है। छोटी श्रेणियों के लिए बड़ी श्रेणियों के विद्यार्थी आचार व्यवहार में नेता हैं। बड़ों के लिए उनका अध्यापक। यह अवस्था मनुष्य के सपूर्ण जीवन में बनी रहती है। कहते हैं, मरते समय भी जैसे संकल्प होते हैं वैसी ही योनि आगे मिलती है। कथन का सार यह है कि मनुष्य बिना मानसिक आदर्श के नहीं रह सकता। कौन कह सकता है कि खयाली नेताओं के नित्यप्रति चिन्तन से बालक तथा मनुष्य की आत्मा को क्या लाभ अथवा हानि पहुँची? यह लोकोक्ति अक्षरशः सत्य है-

As a man thinketh, so he becometh अर्थात् जैसा मनुष्य सोचता है वैसा वह बन जाता है।

गर्भिणी माता के हृदय में जो संकल्प-विकल्प उठते रहते हैं, वह गर्भ स्थित बच्चे के मानसिक जीवन का आधार बनते हैं। यदि मनन-शक्ति इतनी प्रभावशालिनी है, तो उस परमेश्वर के गुणों के स्मरण का लाभ जिसे नित्य, शुद्ध, बुद्ध, सर्वशक्तिमान् इत्यादि विशेषणों से युक्त कहा है, क्या-क्या चमत्कार न दिखाएगा? एडीसन की माता एडीसन को पेट में रखती हुई निरन्तर वैज्ञानिक यन्त्रों का ध्यान करती रही तो एडीसन संसारभर का बड़ा विज्ञानवेत्ता हुआ, और मंगलादि नक्षत्रों से विद्युत द्वारा वार्त्तालाप का सबन्ध स्थिर करने लगा। उपासक भी अपने हृदय-गर्भ में सर्व-शक्तिमान् का ध्यान धारण करे तो अवश्य उसका आत्मा अपूर्व-शक्ति को प्राप्त होगा। बलवान् का स्मरण करना वास्तव में बल के लिए अपनी आत्मा के किवाड़ खोलना है।

तो फिर आ। उन्नति के पिपासु। एक तो अपने नित्य-कृत्यों की पड़ताल किया कर। दूसरे, उस दुःखों के मोचनहार मुक्त स्वभाव को सदैव दृष्टिगोचर रख, जिसका स्मरण सर्वतः कल्याणप्रद है। उस मिट्टी के पौधे की भाँति जो नारंगी के साथ जोड़ा जाकर स्वयं नारंगी का वृक्ष बन जाता है, और ‘‘सग्ङतरे’’ के नाम से स्पष्टतया जताता है, कि मैं उत्तम सग्ङ तरे से तर गया हूँ, तू भी उस प्रियतम को अपनी दृष्टि का तारा बना और उसकी ज्योति में ज्योतिर्मय बन जा। फिर देख अन्धकार निकट भी फटकता है? हाँ,हाँ उस निस्संग के उत्तम संग से तर।

 

सन्ध्या-रहस्य का यह संस्करण – राजेन्द्र जिज्ञासु

पं. चमूपति रचित सन्ध्या रहस्य पुस्तक के विषय में कुछ लिखना, लेखक के लिये एक गौरव की बात है। क्यों? इसका उत्तर मैं साधु ट.ल. वास्वानी के शदों में देना अधिक उपयुक्त मानता हॅूँ। अर्थात् मेरा जितना ज्ञान है आचार्य चमपति उससेाी कहीं अधिक गहराई से लिखते हैं। इससे भी बढ़कर तो यह बात है कि वे जो कुछ भी लिखते हैं वह अत्यन्त सुन्दर, भक्तिभाव में डूबकर लिखते हैं और जब लिखना ही भक्ति पर, सन्ध्या उपासना पर हो तो उन्होंने कितना भक्ति विलीन होकर लिखा होगा, यह बताया नहीं जा सकता।

योगनिष्ठ लेखक द्वारा लिखितः आज का युग विज्ञापन का युग है। लोकैषणा को तजने की घोषणा व प्रतिज्ञा करने वाले साधु महात्मा भी आज विज्ञापन के संसार में किसी से पीछे नहीं। अपनी योग साधना व समाधि तक का ढोल बजाने वाले साधुओं पर गृहस्थों को आश्चर्य होना स्वाभाविक है। अपने जीवन-परिचय में आज समाधि लगाने का उल्लेख होता है। पं. चमूपति एक योगनिष्ठ विद्वान् थे, यह उस काल के सब जन जानते थे परन्तु, पं. चमूपति जी ने अपनी योग साधना का कभी भी, कहीं भी कोई संकेत नहीं दिया। हाँ! उनके निधन पर महाशय खुशहाल चन्द जी (महात्मा आनन्द स्वामी) ने एक शोक सभा में श्रद्धाञ्जलि देते हुए उनके जीवन के इस पक्ष की चर्चा की थी। फिर मैंने उनको निकट से देखने वाले कई पुराने आर्यों यथा पं. शान्तिप्रकाश जी, स्वामी सर्वानन्द जी तथा पं. ज्ञानचन्द आर्य सेवक आदि से भी इसके बारे में सुना।

वेदशास्त्र मर्मज्ञ द्वारा लिखितः आचार्य चमूपति वेदशास्त्र मर्मज्ञ थे। ये तो विधर्मी भी स्वीकार करते हैं। इस सन्ध्या रहस्य पुस्तक-रत्न की विशेषता यह भी तो है कि इसमें ईश्वर की सत्ता, उसके स्वरूप, उसकी रचना, उसकी स्तुति, प्रार्थना और उपासना पर इस शैली से लिखा गया है कि उनकी यह कृति जन साधारण तथा विचारकों विद्वानों दोनों के लिए अत्यन्त उपयोगी है। पुस्तक का एक-एक पैरा व एक-एक वाक्य हृदय स्पर्शी व मार्मिक है।

सन्ध्या गीतः सन्ध्या रहस्य के कई प्रकाशकों ने कई संस्करण प्रकाशित किये हैं। परोपकारिणी सभा द्वारा प्रकाशित किये जा रहे इस संस्करण की एक विशेषता यह है कि इसके साथ पण्डित जी के सन्ध्या गीत का शुद्धतम पाठ पहली बार छप रहा है। हमें इस सन्ध्या गीत की जानकारी बीकानेर के वयोवृद्ध आर्य और पुस्तक संग्रही श्रीमान् ठाकुरदास जी से प्राप्त हुई। उन्होंने इसकी प्रतिलिपि (जो उनके पास थी) हमें प्रदान की परन्तु, वह दोषयुक्त थी फिर भी हमने कुछ सुधार कर छपवा दी। अधिक छेडछाड़ का हमें क्या अधिकार था?

अब की बार सन्ध्या गीत की पं. चमूपति जी की अनुाूमिका भी खोज कर दे दी है। सन्ध्या का पद्यानुवाद तो मुंशी केवल कृष्ण जी, पं. वासुदेव जी, श्री धर्मवीर जी (पंजाबी में), स्वामी आत्मानन्द जी महाराज, स्वामी अमृतानन्द जी, महाकवि ‘शान्त’ लेखराम नगर कादियाँ आदि अनेक आर्य कवियों व विद्वानों ने किया परन्तु एक संगीत मर्मज्ञ ने इस लेखक को बताया कि साहित्यिक तथा संगीत शास्त्र की दृष्टि से पं. चमूपति जी का यह पद्यानुवाद बेजोड़ है। मेरा यह मत है कि स्वामी आत्मानन्द जी का पद्यानुवाद भी अत्यन्त साहित्यिक है। काव्य शास्त्र व संगीत शास्त्र की दृष्टि से वह भी अत्युत्तम है।

पिता पुत्र ने पद्यानुवाद कियाः पं. चमूपति जी के सन्ध्या रहस्य व सन्ध्या गीत की तो सभी प्रशंसा करते ही हैं, हम पाठकों को यह भी बताना चाहते हैं कि पंडित जी के ज्येष्ठ पुत्र डॉ. लाजपतराय डी.लिट. ने भी सन्ध्या का पद्यानुवाद किया था जिसे स्वामी वेदानन्द जी महाराज जैसे शास्त्र मर्मज्ञ साहित्यकार ने छापा था। वह भी अदुत था।

गुत्थियों को सुलझाया हैः पण्डित जी की इस व्याया पर पाठकों की सेवा में क्या-क्या विशेषतायें गिनाई बताई जायें। मनसा परिक्रमा को पण्डित जी ईश्वर की रचना का मन से परिभ्रमण कहा करते थे। एक बार कहा कि ईश्वर की सर्वव्यापकता, उसकी कला व महानता के बोध कराने वाले मन्त्र मनसा परिक्रमा क्या हैं, ¤्नह्म्शह्वठ्ठस्र ह्लद्धद्ग ख्शह्म्द्यस्र ख्द्बह्लद्ध ञ्जद्धद्ग रुशह्म्स्र.¤ अर्थात् यह तो प्रभु का ध्यान करके, प्रभु संग सृष्टि का परिभ्रमण है। उनके पुत्र डॉ. लाजपत का कहना था मनसा परिक्रमा से तो मन की दशा व दिशा का बोध होता है।

जीवन बीमाः पं. चमूपति सन्ध्या को जीवन बीमा बताते हैं। यह भूमिका उनकी एक मौलिक देन है। जप तप सचमुच जीवन बीमा हैं। कोई भी व्यक्ति और जाति तप शून्य होकर संसार में नहीं जी सकती। सन्ध्या रहस्य के आरभ में बहुरूपी सन्ध्या आदि जिन आठ बिन्दुओं पर पण्डित जी ने लिखा है, वे सब पठनीय व मनन करने योग्य है। सच तो यह है कि वैदिक अध्यात्मवाद का यह एक अनूठा दस्तावेज है।

सब शंकाओं का समाधानः वैदिक आस्तिकवाद, त्रैतवाद व अध्यात्मवाद पर की जाने वाली सब शंकाओं का समाधान बहुत उत्तमता से इसमें किया गया है। ऋत क्या? सत्य क्या है? इस विषय में पं. चमूपति जी तथा पूज्य उपाध्याय जी का चिन्तन अत्यन्त मौलिक व तार्किक है।

अघमर्षण मन्त्र का रहस्यः ‘अघमर्षण’ शद  का अर्थ है पाप को दूर करना या पाप को मसलना। इन मन्त्रों में न तो पाप शद आया है और न ही मसलने व दूर करने की कोई बात कही गई है। इस प्रश्न को उपाध्याय जी ने भी उठाया है। हमारे प्रबुद्ध पाठक पं. चमूपति जी का समाधान पढ़कर वाह! वाह!! करने लगेंगे। पाप का मुय कारण तो अहंकार व हीन भावना ही हैं। अमरीका के एक प्रयात डाक्टर ने तो आज के युग के भयानक रोगों यथा रक्तचाप, हृदय रोग व तनाव का कारण अहंकार व हीन भावों की विकृति को बताया है। आत्महत्या का घृणित पाप हीन भावना से ही मनुष्य करता है। पं. चमूपति जी की अघमर्षण मन्त्रों की व्याया का प्रचार यदि आन्दोलन का रूप ले ले तो विश्व का बहुत कल्याण हो। उपाध्याय जी ने भी अपनी पुस्तक सरल सन्ध्या विधि में लिखा है, ‘‘जो पुरुष ब्रह्माण्ड में ईश्वर के अस्तित्व को अनुभव करता है वह पाप से बचा रहता है।’’

यहाँ दोनों मनीषियों का चिन्तन एक जैसा है। वैदिक सन्ध्या में महर्षि दयानन्द जी ने वैदिक धर्म व दर्शन की अनूठी झांकी दी है। आज देश की गली-गली में गुरुडम वाले यह रागिनी सुना रहे हैं, ‘भक्तों के वश में भगवान्’ सन्ध्या मन्त्रों में आया है, ‘विश्वस्य मिषतो वशी’ अर्थात् सारा विश्व उस प्रभु के वश में है। ‘अदीनः स्याम शरदः शतम्’ की व्याया जो आचार्य पं. चमूपति जी ने की है, वह संसार के किसी भी वृद्ध मतावलबी को सुनाकर पूछिये क्या ऐसी प्रार्थना संसार की किसी पूजा पद्धति में है? सबका हृदय बुढ़ापे में यही साक्षी देगा कि इस वैदिक सन्ध्या का मर्म व महत्ता एवं उपयोगिता कोई शदों में नहीं बता सकता।

– वेद सदन, अबोहर, पंजाब