पश्चिम में कोई एक तथाकथित विद्वान हुए थे – नाम था मैकडोनाल्ड – इन महाज्ञानी व्यक्ति ने अपने साहित्य में लिखा था की ऋग्वेद का दसवा मंडल बाद में जोड़ा गया – अनेको भारतीयों ने भी इस किताब को उस समय पढ़ा था – और बिना जाने सोचे समझे – तथ्य की जांच किये मान लिया की हाँ ऋग्वेद का दसवा मंडल बाद में जोड़ा गया – भाई दिक्कत ये है की मेकाले की अघोषित भारतीय संताने ही इस देश की जड़ खोदने में लग गयी – क्योंकि मेकाले की शिक्षा पद्धति ही यही थी – और ईसाइयो को विश्वास था की यदि वो आर्यो को उनकी ही धार्मिक पुस्तको से नीचे दिखा दे तो ईसाई आसानी से इस देश का इसाईकरण कर सकते हैं।
मगर भारतीय मानव समाज में आर्यो का “ज्ञान सूर्य” उदय हुआ था – जिसका नाम था ऋषि दयानंद – उसने इन ईसाइयो की ऐसी पोल खोली थी – और वैदिक सिद्धांतो का ऐसा डंका बजाया की आज तक और आने वाले भविष्य में भी वेदो का मंडन होता रहेगा – हर आक्षेप का जवाब ऋषि ने दिया – बस जरुरत है उस पुस्तक को सही से पढ़ने की – पुस्तक का नाम –
“सत्यार्थ प्रकाश”
खैर ये बात हुई ईसाइयो की धूर्तता की जिसका खंडन ऋषि ने किया।
अब हम आते हैं मैकडोनाल्ड के आक्षेप पर – वो कहते हैं – ऋग्वेद का दशम मंडल बाद में जोड़ा गया है – जिसके लिए वो दो तर्क देते हैं :
1. भाषा की साक्षी अनुसार ऋग्वेद में पहले ९ मंडल थे बाद में दसवा जोड़ा गया।
2. पद की साक्षी अनुसार ऋग्वेद में पहले ९ मंडल थे बाद में दसवा जोड़ा गया।
अब इनके आक्षेपों पर एक पुस्तक “वैदिक ऐज” जो एक भारतीय स्वघोषित विद्वान ने ही लिखी थी – इनके तर्कों का बिना खोजबीन किये समर्थन किया –
लेकिन ये भूल गए की ऋषि दयानंद, सत्यार्थ प्रकाश और उसके अनुयायी सभी आक्षेपों का जवाब देने में सक्षम हैं। लिहाजा एक पुस्तक वैद्यनाथ शास्त्री जी ने लिखी थी जो ऐसे अनेक पाश्चात्य लोगो के अनैतिक विचारो को खंड खंड कर देती है – ऐसे मूर्खता पूर्ण विचारो का शास्त्री जी ने बहुत ही उत्तम रीति से जवाब दिया था देखिये :
दशम मंडल और अन्य मंडल में कोई भी ऐसा भाषा – पद नहीं पाया जाता है जो यह सिद्ध करे की दशम मंडल पश्चात में जोड़ा गया। जबकि वैदिकी परंपरा में ऋग्वेद का दूसरा नाम दाश्तयी है। यास्क मुनि ने 12.80 “दाश्तयीषु” शब्द का प्रयोग किया है। यह साक्षात प्रमाण है की ऋग्वेद में १० मंडल सर्वदा ही रहे। अन्यथा दाश्तयी नाम का अन्य कोई कारण नहीं।
त्वाय से अंत होने वाला पद केवल दशम मंडल में ही पाया जाता है यह भी वैदिक एज के कर्ताका कथन मात्र है। ऋग्वेद 8.100.8 में ‘गत्वाय’ पद आया है जो त्वाय से अंत हुआ है। ‘कृणु’ और ‘कृधि’ प्रयोग भी पहले मंडलों में पाये जाते हैं। ‘कुरु’ का प्रयोग पाया जाना यह नहीं सिद्ध करता की यह प्राकृतिक क्रिया भाग हिअ। प्राकृत का यह प्रयोग है – इसका कोई प्रमाण नहीं। कृञ धातु का ही वेद कृणु, कृधि प्रयोग भी है और उसी का कुरु भी प्रयोग है। ‘प्रत्सु’ पद का प्रयोग न होने से कुछ बिगड़ना नहीं। ‘पृतना’ पद को भी व्याकरण के नियमनुसार अष्टाध्यायी 6.1.162 सूत्र पर पढ़े गए वार्तिक के अनुसार ‘पृत’ आदेश हो जाता है। ‘पृत्सु’ भी निघन्टु में संग्राम नाम में है और ‘पृतना’ भी (निघन्टु 2.17) । ‘पृतना’ निघण्टु 2.3 में मनुष्य नाम से भी पठित है। ‘पृतना’ पद ऋग्वेद 10.29.8, 10.104.10 और 10.128.1 में आया है। ‘पृतनासु’ 10.29.8, 10.83.4 और 10.87.19 में पठित है। ऐसी स्थिति में यदि ‘पृत्सु’ पद का प्रयोग न भी आया तो कोई हानि नहीं। निघण्टु 2.3 में में ‘चर्षणय’ मनुष्य नाम में पठित है। ऋग्वेद 10.9.5, 10.93.9, 10.103.1,10.126.6, 10.134.1 और 10.180.3 में ‘चर्षणीनाम’ पद आया है। 10.89.1 में चपणीधृत पद भी आया है। यदि ‘विचपणी, प्रयोग नहीं है तो इससे कोई परिणामांतर निकालने का अवकाश नहीं रह जाता है।
लेखक ने आक्षेप लगाये अनेक पदो पर विस्तृत जानकारी देते हुए सिद्ध किया है की ऋग्वेद का दशम मंडल अथवा अन्य भी कोई मंडल बाद में नहीं जोड़ा गया।
लेखक ने एक जगह पाश्चात्य विद्वानो और भारत में मौजूद मेकाले की बढ़ाई करने वाली अवैध संतानो को ताडन करते हुए स्पष्ट बात लिखी है :
पाश्चात्य विचारको ने पूर्व से ही एक निश्चित अवधारणा बना ली है अतः उस लकीर को बराबर पीटते रहते हैं। यही बात वैदिक ऐज के लेखक ने भी की है। वेद के आंतरिक रहस्य का ज्ञान तो किसी को है नहीं – अपनी तुक मार रहे हैं।
बहुत ही सैद्धांतिक बात करते हुए लेखक ने सभी आक्षेपों का बहुत सुन्दर और तार्किक जवाब दिया है।