मित्रो आज हम उन प्रशनो के उत्तर दे रहे है जिनके विषय में बहुत से साईं भक्त इधर उधर भटकते रहते है, उन्हें उत्तर कुछ सूझता नहीं और वे साईं के विषय में काफी भ्रमित भी रहते है,
आज हम लाये है साईं के मुस्लिम होने के कुछ प्रमाण जो की शिर्डी साईं संस्थान, शिर्डी महाराष्ट्र में स्थित है के द्वारा प्रकाशित व् प्रमाणित पुस्तक साईं सत्चरित्र से लिए गये है ,
Friends today we are giving some facts which proved that sai baba was a muslim. Devotees of sai are confused and they dont know what was the real character of Sai but today we are giving evidence on the basis of Sai Satcharitra Officially published by Shirdi Sai Sansthaan, Shirdi Maharashtra.
सबसे पहले अध्याय 4 से प्रमाण :
वे निर्भय होकर सम्भाषण करते, भाँति-भाँति के लोंगो से मिलजुलकर रहते, नर्त्तिकियों का अभिनय तथा नृत्य देखते औरगजन-कव्वालियाँ भी सुनते थे । इतना सब करते हुए भी उनकी समाधि किंचितमात्र भी भंग न होती थी । अल्लाह का नाम सदा उलके ओठों पर था । जब दुनिया जागती तो वे सोते और जब दुनिया सोती तो वे जागते थे । उनका अन्तःकरण प्रशान्त महासागर की तरह शांत था । न उनके आश्रम का कोई निश्चय कर सकता था और न उनकी कार्यप्रणाली का अन्त पा सकता था । कहने के लिये तो वे एक स्थान पर निवास करते थे, परंतु विश्व के समस्त व्यवहारों व व्यापारों का उन्हें भली-भाँति ज्ञान था । उनके दरबार का रंग ही निराला था । वे प्रतिदिन अनेक किवदंतियाँ कहते थे, परंतु उनकी अखंड शांति किंचितमात्र भी विचलित न होती थी । वे सदा मसजिद की दीवार के सहारे बैठे रहते थे तथा प्रातः, मध्याहृ और सायंकील लेंडी और चावड़ी की ओर वायु-सोवन करने जाते तो भी सदा आत्मस्थ्ति ही रहते थे ।
He had no love for perishable things, and was always engrossed in self-realization, which was His sole concern. He felt no pleasure in the things of this world or of the world beyond. His Antarang (heart) was as clear as a mirror, and His speech always rained nectar. The rich or poor people were the same to Him. He did not know or care for honour or dishonour. He was the Lord of all beings. He spoke freely and mixed with all people, saw the actings and dances of Nautchgirls and heard Gajjal songs. Still, He swerved not an inch from Samadhi (mental equilibrium). The name of Allah was always on His lips. While the world awoke, He slept; and while the world slept, He was vigilant. His abdomen (Inside) was as calm as the deep sea. His Ashram could not be determined, nor His actions could be definitely determined, and though He sat (lived) in one place, He knew all the transactions of the world. His Darbar was imposing. He told daily hundreds of stories, still He swerved not an inch from His vow of silence. He always leaned against the wall in the Masjid or walked morning, noon and evening towards Lendi (Nala) and Chavadi; still He at all times abided in the Self.
अब अध्याय 5 से प्रमाण :
बाबा दिनभर अपने भक्तों से घिरे रहते और रात्रि में जीर्ण-शीर्ण मसजिद में शयन करते थे । इस समय बाबा के पास कुल सामग्री – चिलम, तम्बाखू, एक टमरेल, एक लम्बी कफनी, सिर के चारों और लपेटने का कपड़ा और एक सटका था, जिसे वे सदा अपने पास रखते थे । सिर पर सफेद कपडे़ का एक टुकड़ा वे सदा इस प्रकार बाँधते थे कि उसका एक छोर बायें कान पर से पीठ पर गिरता हुआ ऐसा प्रतीत होता था, मानो बालों का जूड़ा हो । हफ्तों तक वे इन्हें स्वच्छ नहीं करते थे । पैर में कोई जूता या चप्पल भी नहीं पहिनते थे । केवल एक टाट का टुकड़ा ही अधिकांश दिन में उनके आसन का काम देता था । वे एक कौपीन धारण करते और सर्दी से बचने के लिये दक्षिण मुख हो धूनी से तपते थे । वे धूनी में लकड़ी के टुकड़े डाला करते थे तथा अपना अहंकार, समस्त इच्छायें और समस्च कुविचारों की उसमें आहुति दिया करते थे । वे अल्लाह मालिक का सदा जिहृा से उच्चारण किया करते थे । जिस मसजिद में वे पधारे थे, उसमें केवल दो कमरों के बराबर लम्बी जगह थी और यहीं सब भक्त उनके दर्शन करते थे । सन् 1912 के पश्चात् कुछ परिवर्तन हुआ । पुरानी मसजिद का जीर्णोद्धार हो गया और उसमें एक फर्श भी बनाया गया । मसजिद में निवास करने के पूर्व बाबा दीर्घ काल तक तकिया में रहे । वे पैरों में घुँघरु बाँधकर प्रेमविहृल होकर सुन्दर नृत्य व गायन भी करते थे ।
Baba was surrounded by His devotees during day; and slept at night in an old and dilapidated Masjid. Baba’s paraphernalia at this time consisted of a Chilim, tobacco, a “Tumrel” (tin pot), long flowing Kafni, a piece of cloth round His head, and a Satka (short stick), which He always kept with Him. The piece of white cloth on the head was twisted like matted hair, and flowed down from the left ear on the back. This was not washed for weeks. He wore no shoes, no sandals. A piece of sack-cloth was His seat for most of the day. He wore a coupin (waist-cloth-band) and for warding off cold he always sat in front of a Dhuni (sacred fire) facing south with His left hand resting on the wooden railing. In that Dhuni, He offered as oblation; egoism, desires and all thoughts and always uttered Allah Malik (God is the sole owner). The Masjid in which He sat was only of two room dimensions, where all devotees came and saw Him. After 1912 A.D., there was a change. The old Masjid was repaired and a pavement was constructed. Before Baba came to live in this Masjid, He lived for a long time in a place Takia, where with GHUNGUR (small bells) on His legs, Baba danced beautifully sang with tender love.
अध्याय – 7
ईद के दिन वे मुसलमानों को मसजिद में नमाज पढ़ने के लिये आमंत्रित किया करते थे । एक समय मुहर्रम के अवसर पर मुसलमानों ने मसजिद में ताजिये बनाने तथा कुछ दिन वहाँ रखकर फिर जुलूस बनाकर गाँव से निकालने का कार्यक्रम रचा । श्री साईबाबा ने केवल चार दिन ताजियों को वहाँ रखने दिया और बिना किसी राग-देष के पाँचवे दिन वहाँ से हटवा दिया ।
He allowed Mahomedans to say their prayers (Namaj) in His Masjid. Once in the Moharum festival, some Mahomedans proposed to contruct a Tajiya or Tabut in the Masjid, keep it there for some days and afterwards take it in procession through the village. Sai Baba allowed the keeping of the Tabut for four days, and on the fifth day removed it out of the Masjid without the least compunction.
अल्लाह मालिक सदैव उनके होठों पर था ।
He always walked, talked and laughed with them and always uttered with His tongue ‘Allah Malik’ (God is the sole owner).
हाथ जल जाने के पश्चात एक कुष्ठ-पीडित भक्त भागोजी सिंदिया उनके हाथ पर सदैव पट्टी बाँधते थे । उनका कार्य था प्रतिदिन जले हुए स्थान पर घी मलना और उसके ऊपर एक पत्ता रखकर पट्टियों से उसे पुनः पूर्ववत् कस कर बाँध देना । घाव शीघ्र भर जाये, इसके लिये नानासाहेब चाँदोरकर ने पट्टी छोड़ने तथा डाँ. परमानन्द से जाँच व चिकित्सा कराने का बाबा से बारंबार अनुरोध किया । यहाँ तक कि डाँ. परमानन्द ने भी अनेक बार प्रर्थना की, परन्तु बाबा ने यह कहते हुए टाल दिया कि केवल अल्लाह ही मेरा डाँक्टर है । उन्होंने हाथ की परीक्षा करवाना अस्वीकार कर दिया ।
Mr. Nanasaheb Chandorkar solicited Baba many a time to unfasten the Pattis and get the wound examined and dressed and treated by Dr. Parmanand, with the object that it may be speedily healed. Dr. Parmanand himself made similar requests, but Baba postponed saying that Allah was His Doctor; and did not allow His arm to be examined. Dr. Paramanand’s medicines were not exposed to their air of Shirdi, as they remained intact, but he had the good fortune of getting a darshana of Baba.
दिए गये प्रमाणों को आप साईं सत्चरित्र से मिलान कर सकते है, इसके लिए आप शिर्डी की प्रमाणित साईट से इसका मिलान कर सकते है जिसका लिंक नीचे दिया है, मिलान करके आप स्वयं सोचे की क्या ऐसे व्यक्ति को पूजन सही है,
http://www.shrisaibabasansthan.org/shri%20saisatcharitra/Hindi%20SaiSatcharit%20PDF/hindi.html