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हमें वज्र, जाल, दुर्यज्ञ और दुर्भोजन से बचाओ

हमें वज्र, जाल, दुर्यज्ञ और दुर्भोजन से बचाओ    -रामनाथ विद्यालंकार

ऋषिः परमेष्ठी प्रजापतिः । देवता अग्निः सरस्वती च। छन्दः भुरिग् ब्राह्मी त्रिष्टुप् ।

अग्नेऽदब्धायोऽशीतम पाहि मा दिद्योः पाहि प्रसित्यै पहि दुरिष्ट्यै पाहि दुरद्मन्याऽअविषं नः पितुं कृणु सुषदा योनौ स्वाहा वाडग्नये संवेशपतये स्वाहा सरस्वत्यै यशोभूगिन्यै स्वाहा ।।।

-यजु० २ । २० |

हे ( अदब्धायो ) मनुष्य को अहिंसित, अक्षत रखने वाले, (अशीतम ) सर्वव्यापक (अग्ने ) अग्ननायक जगदीश्वर! आप हमें ( पाहि ) बचाओ ( दिद्यो:) वज्र से, ( पाहि ) बचाओ (प्रसियै ) जाल से, ( पाहि ) बचाओ ( दुरिष्ट्यै ) दुर्यज्ञ से, ( पाहि) बचाओ (दुरद्मन्यै ) दुर्भोजन से, ( अविषं ) विषरहित (नः पितुं कृणु ) हमारे भोजन को करो। हे सरस्वती ! तू हमारे ( योनौ ) घर में ( सुषदा ) सुस्थित हो। ( स्वाहा ) एतदर्थ हम प्रार्थना करते हैं, ( वाड्) पुरुषार्थ करते हैं । ( संवेशपतये अग्नये स्वाहा ) समाधि के रक्षक आप जगदीश्वर का हम स्वागत करते हैं। ( यशोभगिन्यै सरस्वत्यै स्वाहा ) यश का भागी बनाने वाली सरस्वती का हम स्वागत करते हैं।

जगदीश्वर इस जड़-चेतन जगत् की रचना करता है और वही इसकी रक्षा भी करता है। मनुष्य भी यद्यपि सर्वोत्कृष्ट प्राणी है, तो भी वह उसकी रक्षा के बिना रक्षित नहीं रह सकता। सच तो यह है कि मनुष्य स्वयं अपनी हिंसा को निमन्त्रण देता रहता है। यदि उसे चेतानेवाला उसका संरक्षक परमेश्वर न हो तो वह शत वर्ष क्या, कुछ वर्ष भी जीवित नहीं रह सकता । परमेश्वर की सर्वव्यापकता का ध्यान भी मनुष्य को ऐसे कुकर्मों को करने से रोकता है, जिनसे उसकी हिंसा या क्षति होती हो। शत्रु का वज्र या उसके संहारक अस्त्र-शस्त्र भी मनुष्य को मृत्यु के घाट उतारने के लिए पर्याप्त हैं।

हे जगदीश! आप ही उसे शत्रु से लोहा लेकर उस पर विजय पाने का महाबल प्रदान कर सकते हो। काम, क्रोध आदि आन्तरिक षड् रिपु भी अपना जाल फैला कर संसार सागर में तैरते हुए मनुष्य को ऐसे ही फँसाने के लिए तत्पर हैं, जैसे मछुआरा मछलियों को अपने जाल में फँसाता है।

हे प्रभु, आप ही उसे उस जाल के प्रलोभन से दूर रहने की प्रेरणा कर सकते हो। मानव कुसङ्गति में पड़ कर दुर्भोजन भी करने लगता है। उसका स्वाभाविक भोजन तो फल, कन्दमूल, दूध, नवनीत, अन्न, रस, बादाम, किशमिश, छुहारा आदि ही हैं, किन्तु वह अण्डे, मांस, मदिरा आदि का भी सेवन करने लगता है। वह जिह्वा के स्वाद के वश होकर विषैले खाद्य और पये को भी अपने दैनिक भोजन का अङ्ग बना लेता है। उसे इसका परिज्ञान ही नहीं होता कि व्यापारिक कम्पनियाँ धन कमाने के लिए उसके आगे खट्टे, मीठे, तीखे, चरपरे, स्वादिष्ठ विषैले खाद्य और पेयों को परोस रही हैं। उसे तो स्वाद का आकर्षण होता है ।

हे महेश्वर ! आप ही किसी साधु बाबा को भेज कर मनुष्य को यह शिक्षा दिलाते हो कि वह इन विषैली वस्तुओं का बहिष्कार करे। आप हमें यह सीख दो और बल दो कि हम शत्रु के वज्र को निर्वीर्य करने का सामर्थ्य जुटायें, आन्तरिक रिपुओं के जाल में न फैंसने की दूर-दर्शिता प्राप्त करें और दुर्भोजन का विषपान न करें। हे परमात्मन्! मनुष्य जब योगाभ्यास में तत्पर होता है और यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान की क्रियाओं को करता हुआ समाधि तक पहुँचता है, तब उसकी उस समाधि के रक्षक भी आप ही होते हो। इस योगैश्वर्य के दाता के रूप में भी हम आपका स्वागत करते हैं।

हे अग्निसम तेजस्वी देवाधिदेव ! जैसे हम आपका स्वागत कर रहे हैं, वैसे ही आपकी दी हुई सरस्वती अर्थात् वेदविद्या का भी स्वागत करते हैं, उसका अध्ययन-अध्यापन करते हैं। और उसके उपदेशों को जीवन में चरितार्थ करते हैं। हमारे घरों में वह सरस्वती सदा ‘सुषदा’ रहे, सुस्थिर रहे। हे वेदविद्यारूप सरस्वती ! तू ‘यशोभगिनी’ है, हमें यश का भागी बनाने वाली है। तेरा स्वागत है।

हमें वज्र, जाल, दुर्यज्ञ और दुर्भोजन से बचाओ 

पदटिप्पणियाँ

१. अदब्धो ऽ नुपहंसितः आयुर्मनुष्यो यजमानो यस्य सो ऽ दब्धायु: म० । आयु=मनुष्य, निघं० २.३।

२. अशू व्याप्तौ । अश्नुते व्याप्नोति इत्यशी, अतिशयेन अशी अशीतमः, दीर्घश्छान्दस:-म० ।

३. दिद्युत्=वज्र, निघं० २.२०, तकारलोप । अथवा दिवु मर्दने चुरादिः । देवयति मृनाति अनेन इति दिद्युः वज्रः । दिव धातो: बाहुलकाद् उणादिः कुः प्रत्ययः, द्वित्वं च ।

४. प्रसितिः प्रसयनात् तन्तुर्वा जालं वा । निरु० ६.१२।।

५. अदनम् अद्मनी, दुष्टा अद्मनी दुरद्मनी दुर्भोजनम्-म० ।।

६. पितु=अन्न, निघं० २.७।।

७. योनि=गृह, निघं० ३.४

८. (वाड्) क्रियार्थे–२०भा० ।

९. संवेश–निद्रा, योगक्षेत्र में समाधि।

१०.यशांसि भजितुं शीलं यस्याः तस्यै–द०भा० ।

हमें वज्र, जाल, दुर्यज्ञ और दुर्भोजन से बचाओ 

‘मैं और मेरा परमात्मा’-मनमोहन कुमार आर्य

my god

ओ३म्

मैं और मेरा परमात्मा


 

एक शाश्वत प्रश्न है कि मैं कौन हूं। माता पिता जन्म के बाद से अपने शिशु को उसकी बौद्धिक क्षमता के अनुसार ज्ञान कराना आरम्भ कर देते हैं। जन्म के कुछ समय बाद से आरम्भ होकर ज्ञान प्राप्ति का यह क्रम  विद्यालय, महाविद्यालय आदि से होकर चलता रहता है और इसके बाद भी नाना प्रकार की पुस्तकें, धर्मोपदेश, व्याख्यान, पुस्तकों का अध्ययन व स्वाध्याय तथा भिन्न प्रकार की साधनाओं आदि से ज्ञान में वृद्धि होती रहती है। सब कुछ अध्ययन कर लेने के बाद भी यदि किसी शिक्षित बन्धु से पूछा जाये कि कृपया बतायें कि आप कौन हैं या मैं कौन हूं,   क्या हूं, कहां से माता के गर्भ में आया, फिर मेरा जन्म हो गया, युवा व वृद्ध होने के बाद किसी दिन मेरी मृत्यु हो जायेगी। मृत्यु के बाद मेरा अस्तित्व रहेगा या नहीं। यदि नहीं रहेगा तो क्यों नहीं रहेगा और यदि रहेगा तो कहां व किस प्रकार का होगा, आदि प्रश्नों का समाधान कर दें, तो हम समझते हैं कि आजकल की शिक्षा में दीक्षित किसी व्यक्ति के लिए इन साधारण प्रश्नों का समाधानकारक उत्तर देना सरल कार्य नहीं होगा। इससे तो यही निष्कर्ष निकलता है कि आजकल की शिक्षा अधूरी व अपूर्ण हैं। इसी कारण से लोग आध्यात्मिक जीवन का त्याग कर भौतिक जीवन शैली को अपनाने को विवश हुए हैं। इसके लिए हम तो यहां तक कहेंगे कि हमारे सभी धर्माचार्य इस बात के दोषी हैं कि उन्होंने देश विदेश में आत्मा सम्बन्धी सत्य ज्ञान को स्वयं भी प्राप्त नहीं किया और फिर प्रचार की बात तो बाद की है। जो लोग इस बात का दावा करते हैं कि वह इन प्रश्नों के उत्तर जानते हैं तो फिर वह इनका प्रचार क्यों नहीं करते, क्यों वह भौतिक व आडम्बर पूर्ण जीवन में व्यस्त व तल्लीन हैं, तो इसका उत्तर नहीं मिलता। वह ज्ञान किस काम का जिसका धारक व्यक्ति उसे अन्य किसी न तो दे और न प्रचार करें। विद्या तो दान देने से बढ़ती है और यदि उसे अपने तक सीमित कर दिया जाये तो व्यवहार में न होने के कारण वह स्वयं भी भूल सकता है और उसके बाद तो उसका विलुप्त होना अवश्यम्भावी है।

 

इन सभी प्रश्नों के उत्तर पहले वेद एवं वैदिक साहित्य के आधार पर जान लेते हैं। पहला प्रश्न कि मैं कौन और क्या हूं, इसका उत्तर है कि मैं एक जीवात्मा हूं जो अजन्मा, चेतन तत्व, सूक्ष्म, नित्य, अमर व अविनाशी, एकदेशी, कर्मानुसार जन्म व मृत्यु के चक्र में फंसा हुआ, ईश्वर साक्षात्कार कर मुक्ति को प्राप्त होने वाला व मुक्ति की अवधि समाप्त होने पर पूर्व जन्म के अवशिष्ट कर्मों का फल भोगने के लिए जन्म धारण करने वाला है। मेरी यह सत्ता ईश्वर व मूल प्रकृति से सर्वथा भिन्न व स्वतन्त्र है। माता के गर्भ में आने में ईश्वर की प्रेरणा काम करती है। ईश्वर की प्रेरणा से पहले जीवात्मा जो पूर्व जन्म की किसी योनि में मृत्यु को प्राप्त कर अपने कर्मानुसार नये जन्म की प्रतीक्षा में है, पिता के शरीर में आता है। सन्तानोत्पत्ति से पूर्व गर्भाधान के अवसर पर यह पिता के शरीर से माता के शरीर में आता है। माता के शरीर या गर्भ में प्रसव की अवधि तक रहकर यह पुत्र या पुत्री के रूप में जन्म लेता है। शास्त्र यह भी बताते हैं कि जब हमारी मृत्यु होती है, उस समय यदि हमारे पुण्य कर्म पाप कर्मों के बराबर या अधिक होते हैं तो मनुष्य जन्म और यदि पुण्य कर्म कम होते हैं तो फिर पशु, पक्षी व अन्य निम्न योनियों में ईश्वर के द्वारा जन्म मिलता है। इस प्रकार से माता के गर्भ में आने के रहस्य का समाधान हमारे ऋषियों ने शास्त्रों में किया है जो पूर्णतः तर्क व युक्ति संगत है। हमारी जब भी मृत्यु होगी तो हमारे अजन्मा व अमर होने के कारण हमारा अस्तित्व समाप्त नहीं होगा अपितु हम शरीर से निकल कर इस वायु मण्डल व आकाश में एक जीव के रूप में सर्वव्यापक परमात्मा के साथ रहेगें। यह निवास हमें ईश्वर द्वारा पुनः जन्म देने के लिए हमारी भावी माता के गर्भ में भेजने के समय तक रहेगा। यहां यह प्रश्न भी किया जा सकता है कि यदि ऐसा है तो फिर हमें व अन्यों को पूर्व जन्म की बातें याद क्यों नहीं रहतीं। इसका उत्तर है कि हमारा जो मनुष्य जीवन है उसमें हम एक समय में एक ही बात को स्मरण रख सकते हैं। क्योंकि हम वर्तमान में इस जन्म की बातों व समृतियों से भरे हुए रहते हैं, इस कारण पूर्व जन्म की बातें स्मरण नहीं आतीं। दूसरा कारण है कि मृत्यु के बाद हमारा पुराना शरीर व उसमें हमारा जो मन, बुद्धि व चित्त था वह इस जन्म में बदल जाता है और उस जन्म से इस जन्म में बोलना सीखने की लम्बी अवधि में हम पुरानी बातों को भूल जाते हैं। यदि विचार करें तो हमें आज की ही बातें याद नहीं रहती। हम जो बोलते हैं, यदि कुछ मिनट वा एक घंटे बाद उसे पूरा का पूरा दोहराना हो तो हम पूर्णतः वही शब्द और वही वाक्य दोहरा नहीं सकते हैं। इसका कारण जो शब्द हम बोलते हैं, उसका क्रम साथ-साथ भूलते जाते हैं। हमने प्रातः क्या भोजन किया, दिन में क्या किया, किन-किन से मिले, क्या बातंे कीं, क्या पढ़ा, यदि कुछ लिखा तो क्या लिखा, उसे पूरा का पूरा, वैसा का वैसा, क्रमशः नहीं दोहरा सकते। रूक रूक कर याद करते हैं फिर भी बहुत सी बातें व उनका क्रम भूल जाते हैं। पूर्व दिनों व उससे पहले की घटनाओं को याद करने की बात ही कुछ और है। जब हमें अपने पूर्व के एक सप्ताह के व्यवहार का पूरा ज्ञान व स्मृति नहीं होती तो यदि पूर्व जन्म की स्मृति भी न रहे तो यह कौन से आश्चर्य की बात है। यह साध्य कोटि में है, असम्भव नहीं। अतः पूर्व जन्म के बारे में यह युक्ति कि हमें पूर्व जन्म की बातें याद क्यों नहीं होती, कोई अधिक बलवान तर्क नहीं हैं। अतः इस चिन्तन से हमें अपने स्वरूप का ज्ञान हो गया जो कि वेद शास्त्र सम्मत, बुद्धि, युक्ति आदि से प्रमाणित है।

 

अब हम अपने परमात्मा को भी जानने का प्रयास करते हैं। हम सभी अपने चारों ओर माता-पिता, कुटुम्बी, मित्रों और सामाजिक बन्धुओं को देखते हैं। इसके साथ हम पृथिवी, सूर्य, चन्द्रमा, जल, वायु, अग्नि आदि भिन्न प्रकार के तत्वों को भी देखते हैं। इन्हें देख कर विचार आता है कि सूर्य, चन्द्र व पृथिवी आदि व मनुष्य, पशु व पक्षी, वनस्पति, नदी, जल, वायु, अग्नि आदि को किसने बनाया है? मनुष्य व अन्य किसी योनि के प्राणियों ने तो बनाया नहीं? किस सत्ता के द्वारा यह बनाये गये हैं, इसका विचार कर निर्णय करना आवश्यक होता है। इसका उत्तर है कि जिस सत्ता ने हमें बनाया है, उसी ने वृक्ष आदि वनस्पतियों व इस सारे जगत एवं इसके सूर्य, पृथिवी, चन्द्र आदि ग्रह-उपग्रहादि सहित उन सभी सांसारिक पदार्थों को भी बनाया है जो कि कोई मनुष्य नहीं बना सकता। ऐसे पदार्थ जो संसार में हैं परन्तु मनुष्यों द्वारा नहीं बनाये जा सकते हैं वह अपौरूषेय रचनायें कहे जाते हैं। इनकी रचना या उत्पत्ति ईश्वर व परम-पुरूष परमात्मा से होती है। अत यहां पुनः वही प्रश्न उत्पन्न होता है कि यदि उसने बनायें हैं तो वह दिखाई क्यों नहीं देता। उसका उत्तर भी यही है कि सर्वातिसूक्ष्म होने से वह दिखाई नहीं देता। आंखों से केवल स्थूल पदार्थ ही दिखाई देते हैं, सूक्ष्म व परमसूक्ष्म पदार्थ नहीं। वायु और इसमें विद्यमान अणु-परमाणु किसी को कहां दिखाई देते हैं फिर भी इनका अस्तित्व है और सभी इसको स्वीकार करते हैं। त्वचा से स्पर्श होने पर वायु की अनुभूति होती है। इसी प्रकार ईश्वर का दिखाई देना भी उसके कार्यों को देखकर किया जाता है। यदि हम एक सुन्दर सा फूल देखते हैं तो हमें उसकी सुन्दरता व सुगन्ध आकर्षित करती है। हम कितना ही प्रयास कर लें, हम उसी प्रकार की रचना नहीं कर सकते। अतः रचना को देखकर रचयिता का अस्तित्व स्वीकार करना पड़ता है।

 

यहां एक विज्ञान व दर्शन का नियम भी कार्य करता है जिसे यदि समझ लिया जाये तो गुत्थी हल हो जाती है। नियम यह है कि किसी भी पदार्थ के गुणों का प्रत्यक्ष होता है, गुणी का नहीं। हम फूल के रूप में फूल के रंग-रूप का ही तो दर्शन करते हैं। परन्तु यह तो रंग-रूप व बनावट तो उस फूल के गुण है न की फूल। गुणों का दर्शन हो रहा है न की गुणी का। इसके समान गुण हमें जहां मिलते हैं हम उसे अमुक नाम का फूल कह देते है परन्तु हमें उस फूल नामी गुणी का प्रत्यक्ष नहीं होता। इसी प्रकार से ईश्वर के गुणों को देखकर उसकी पहचान की जाती है। जैसे की सूर्य में इसकी रचना को देखकर ईश्वर का ज्ञान होता है। सूर्य की रचना उस परमात्मा नामी गुणी का गुण है। इसी प्रकार से फूल को देखकर इसके रचयिता ईश्वर का ज्ञान विवेकशील मनुष्यों को होता है। ऐसा ही सभी जगहों पर माना जा सकता है। दर्शनकार ने ईश्वर की परिभाषा देते हुए कहा है कि जिससे यह संसार जन्म लेता है, जो इसको चलाता है और जो अवधि पूरी होने पर इसका संहार या प्रलय करता है, उसी को ईश्वर कहते हैं। इसी प्रकार से किसी वस्तु के बनाने में तीन कारण होते हैं। पहला निमित्त कारण, दूसरा उपादान कारण और तीसरा साधारण कारण कहलाता है। एक घड़े के निर्माण में कुम्हार निमित्त कारण, मिट्टी उपादान कारण व कुम्हार का चाक व उन्य उपकरण साधारण कारण कहे जाते हैं। इसी प्रकार से संसार को बनाने में ईश्वर निमित्त कारण, मूल प्रकृति उपादान कारण है। मनुष्य को अल्पज्ञ व अल्पशक्तिवान होने से साधारण कारणों, उपकरण आदि का सहारा लेना पड़ा है परन्तु ईश्वर के सर्वव्यापक, सर्वातिसूक्ष्म, सर्वान्तरर्यामी व सर्वशक्तिमान होने के कारण उसे साधारण कारणों के रूप में उपकरणों आदि की आवश्यकता नहीं होती। इससे ज्ञात होता है कि संसार की उत्पत्ति ईश्वर से होती है। इसको यदि विस्तृत रूप से जानना हो तो कह सकते हैं कि ईश्वर सच्चिदानन्दस्वरूप, सर्वज्ञ, निराकार, सर्वशक्तिमान, न्यायकारी, दयालु, अजन्मा, अनन्त, निर्विकार, अनादि, अनुपम, सर्वाधार, सर्वेश्वर, सर्वान्तर्यामी, अजर, अमर, अभय, नित्य, पवित्र और सृष्टिकर्ता है। यह ईश्वर का स्वरूप व उसके गुण आदि हैं। यही हमारे परमात्मा का भी स्वरूप है। इसी परमात्मा के द्वारा हमारा यह संसार बना है। इसी से हमारा जन्म व मृत्यु और पुनर्जन्म होता है। हमें हमारे कर्मानुसार जन्म देने के लिए हम ईश्वर के ऋणी है। इस ऋण को चुकाने के लिए हमें ईश्वर के प्रति कृतज्ञता का भाव रखकर उसके गुणों का चिन्तन व ध्यान करना है जिससे हमें सत्य व असत्य का ज्ञान हो सके। सत्य का आचरण ही धर्म कहलाता है जिसे वेद व सत्यार्थ प्रकाश आदि शास्त्रों को पढ़कर जाना जा सकता है। आजकल हमारे देश व विश्व में सत्य के साथ असत्य ज्ञान की पुस्तकें भी धर्म ग्रन्थ के नाम से प्राप्तव्य हैं। साधारण ही नहीं अपितु शिक्षित जनों के लिए भी सत्य का निर्धारण करना कठिन कार्य है। इसके लिए वेद, उपनिषद तथा दर्शन आदि ग्रन्थों सहित सत्यार्थ प्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्य भूमिका व संस्कार विधि आदि ग्रन्थ परम सहायक हैं। यदि हम इनका नियमित स्वाध्याय करें तो फिर हमें कहीं किसी गुरू के पास जाने की आवश्यकता नहीं है। ज्ञान हमारी आत्मा में स्वतः उतर आता है। इसका लाभ लेकर हम सत्य का निर्धारण कर सत्य का पालन कर सकते है और अपने जीवन को सफल कर सकते हैं।

 

मनमोहन कुमार आर्य

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