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पठन-पाठन में अनध्याय पर विचार : पण्डित भीमसेन शर्मा

अब पठनपाठनविषयक विचार किया जाता है। इस मानवधर्मशास्त्र के चौथे अध्याय में पिच्यानवे (९५वें) श्लोक से लेकर एक सौ सत्ताईसवें (१२७वें) श्लोक पर्यन्त तेंतीस श्लोकों में अनध्याय का विचार किया गया है। यद्यपि संसार के सब कर्मों के किसी-किसी समय पर जिस किसी प्रकार अनध्याय होने चाहियें। अर्थात् मनुष्यों के चलाये सभी कर्म किसी-किसी उत्सवादि समय विशेष में अवश्य रुक जाते हैं। उस समय वा उन दिनों में कर्मचारी लोग छुट्टी पर समझे जाते हैं। और अनेक अवसरों में वे कर्म परतन्त्रता से मनुष्यों को अवश्य छोड़ने पड़ते हैं। जैसे ईश्वरीय सृष्टि में सूर्य के उदय, अस्त नियमपूर्वक सदा चले जाते, उनका निरोध कभी नहीं दीखता, क्योंकि उन सूर्यादि का नियामक सर्वज्ञ परमेश्वर है। अर्थात् सर्वज्ञ के चलाये नियम में अनध्याय वा निरोध कभी नहीं दीखता। वैसे मनुष्य के चलाये नियमों में नहीं हो सकता, क्योंकि वे अल्पज्ञ हैं। मनुष्य बीच-बीच में थकने, रोगी होने वा उदासीन होने से काम छोड़ देते हैं, उस समय स्वयमेव कार्यों का अनध्याय हो जाता है। जैसे ‘दुर्गन्धरूप प्रान्त में चित्त के व्याकुल होने से मनुष्य को शुभकर्म का आरम्भ नहीं करना चाहिये’, यह        धर्मशास्त्रों में आज्ञा दी गयी है। और अनध्याय करने वा होने का यही प्रयोजन है कि जो उस निकृष्ट देश वा काल वा अवस्था में किया हुआ कर्म अच्छा वा विशेष फल देने वाला नहीं होता, इसलिये वैसे अवसर में निषेध किया गया है। तो भी सब कर्मों के रोकने वा अनध्याय का यहां विचार नहीं किया जाता, किन्तु पठनपाठन विषयक अनध्याय का विवेक करना प्रारम्भ किया है। अन्य विषयों का भी यथावसर विचार वा व्याख्यान होगा।

अधिकांश में तो समय विशेष (कि अमुक-अमुक समय में वेद को न पढ़ना चाहिये) में अनध्याय दिखाये हैं। सो कहीं जैसे उष्णता की अधिकता से ठीक-ठीक पढ़ना नहीं होता, किसी प्रकार उस समय के विशेष परिश्रम से उन्मादादि रोगों का होना भी सम्भव है। तथा अन्य भी चित्त को व्याकुल करने और एकाग्रता को बिगाड़ने वाले विघ्न आ जाने पर वेद नहीं पढ़ना चाहिये। क्योंकि उस समय का पढ़ना सुफल नहीं होता। तथा अनेक प्रदेशों में वेद का पढ़ना निषिद्ध है। जैसे जहां मनुष्यों का अधिक संघट्ट हो, ग्राम, नगर, बाजार आदि वा जहां अधिक दुर्गन्ध हो, ऐसे प्रान्त आदि में वेद नहीं पढ़ना चाहिये। किन्हीं अवस्थाओं में वेद का पढ़ना निषिद्ध है। जैसे- झूठे, सोता हुआ अर्थात् लेटकर वा अशुद्ध, वा मैथुन किये पश्चात् बिना स्नान किये वा बिना वस्त्र बदले वेद को न पढ़े। इत्यादि अवस्थाओं में पढ़ने वाला अच्छे फल को नहीं पाता। इसलिये उस देश, काल और अवस्था में अनध्याय करना चाहिये। देशादि के अनुकूल होने पर भी पर्व अर्थात् अमावास्या, चतुर्दशी और पौर्णमासी तथा अष्टमी को सदा वेद का अनध्याय करे, क्योंकि सदैव काम वा पठन आदि का परिश्रम करते-करते बुद्धि थक जाती है, उसको अवकाश देकर शान्ति करने के लिये अनध्याय मानने चाहियें। इसी अभिप्राय से सब कार्यालयों में विद्वानों ने नित्य, नैमित्तिक अवकाश- छुट्टी देने का नियम चलाया है, कि जिस कारण बुद्धि वा शरीर के स्वस्थ हो जाने से फिर भी ठीक-ठीक काम चलते हैं, क्योंकि प्रतिदिन सब कार्यों में ठीक-ठीक मन नहीं लगता है, इसलिये पर्वों में सदा ही अनध्याय रखने चाहियें। और पर्वों में अनध्याय करने का यह भी प्रयोजन है कि उन दिनों में वेदोक्त रीति से मासेष्टि वा पक्षेष्टि आदि यज्ञों का नैमित्तिक विशेष विधान भी गृह्यसूत्रादिकों में दीखता है। तथा प्रायः ऐसे ही पर्व दिनों में पितृयज्ञ अर्थात् तर्पण-श्राद्ध का विशेष विधान है, अर्थात् उन पर्व दिनों में विशेष देवयज्ञ वा पितृयज्ञ करने के लिये भी पढ़ने-पढ़ाने वालों को अनध्याय रखना चाहिये। और जब विशेष यज्ञादि किये जावेंगे तो आप ही अवकाश न मिलने से नैमित्तिक कार्य में उस वेद के पढ़ने का अनध्याय ही रखना पड़ेगा, इस प्रकार सब अनध्याय प्रयोजन सहित हैं। और मुख्य कर तो वेद ईश्वरीय विद्या है, उसको बड़ी सावधानी और पवित्रतादि के साथ पढ़ना चाहिये, जिससे ठीक तात्पर्य समझ में आवे। और जिस-जिस देश वा काल वा दशा में चित्त के सावधान न रहने से उलटा समझनादि विपरीत वा दुःख होना सम्भव है, तब-तब अनध्याय कहा गया।

कोई लोग प्रतिपदा को अनध्याय मानते वा करते हैं, सो मानवधर्मशास्त्र से विरुद्ध है। क्योंकि उस समय अनध्याय रखना इससे व्यर्थ है कि चतुर्दशी, अमावस्या वा पूर्णमासी को अनध्याय हो चुका। ऐसे ही त्रयोदशी आदि में भी अनध्याय व्यर्थ है, और धर्मशास्त्र से विरुद्ध भी है। इस अनध्याय के प्रसग् में इस ग्रन्थ में जो कोई असम्भव वा विरुद्ध श्लोक होंगे, उनका विचार चतुर्थाध्याय के प्रक्षिप्त प्रकरण में वा भाष्य में देखना चाहिये। यहां इतने ही पर समाप्त करते हैं।

तृतीय अध्याय के प्रक्षिप्त श्लोकों की समीक्षा : पण्डित भीमसेन शर्मा

अब तृतीयाध्याय के प्रक्षिप्त श्लोकों की समीक्षा की जाती है। इस तृतीयाध्याय में कोई-कोई श्लोक प्रक्षिप्त जैसे अनेक साधारण लोगों को जान पड़ेंगे और वास्तव में वे प्रक्षिप्त नहीं हैं, तो उनका समाधान यहां नहीं किया जाता, किन्तु आगे भाष्य में उनके अर्थ का निर्णय होगा, यहां तो केवल जो प्रक्षिप्त हैं, उन्हीं का निश्चय किया जाता है। एक सौ सत्ताईसवां (१२७वां) श्लोक प्रक्षिप्त जान पड़ता है। क्योंकि जब जीवित पितरों का ही श्राद्ध करना वेदोक्त सिद्ध हो चुका तो फिर श्राद्ध का नाम प्रेतकर्म नहीं हो सकता। और छब्बीसवें श्लोक का अट्ठाईसवें श्लोक के साथ सम्बन्ध भी ठीक मिल जाता है, इस कारण से भी सत्ताईसवें का प्रक्षिप्त होना अनुमान से सिद्ध है। तथा प्रेत के लिये कोई कर्म उपयोगी नहीं हो सकता, क्योंकि मरा हुआ शरीर तो जलाने आदि द्वारा पृथिवी में मिल जाता है तथा केवल जीवात्मा कोई सुख-दुःख का भोग नहीं कर सकता, तो प्रेत के लिये किसी प्रकार की क्रिया करना निष्फल है।

एक सौ उनहत्तरवें (१६९) श्लोक से लेकर एक सौ बयासीवें (१८२) श्लोक तक प्रक्षिप्त जान पड़ते हैं। परन्तु १७१,१७३,१७४ इन तीन श्लोकों को छोड़कर। यद्यपि उक्त प्रक्षिप्त श्लोकों में निन्दारूप अर्थवाद कहा गया है, तो भी अर्थवाद सम्भव, सम्बद्ध और न्याययुक्त ही होना चाहिये। और यहां असम्भव, असम्बद्ध और अन्याययुक्त अर्थवाद प्रतीत होता है। जैसे सोमविक्रयी पुरुष को दिया अन्न विष्ठा हो जाता है। इस कथन से क्या प्राप्त हुआ कि जो विद्वान् को दिया गया, वह अन्न अर्थापत्ति से विष्ठाभाव को न प्राप्त होवे। लेकिन ऐसा तो नहीं देखा जाता, किन्तु अच्छे या बुरे किसी भी व्यक्ति के द्वारा खाया गया अन्न विष्ठा हो ही जाता है। तथा अन्न ही रस आदि के द्वारा रुधिर और मांसादि भाव को प्राप्त होता है। इसी से यह पूर्वोक्त कथन असम्भव वा असम्बद्ध है। और परिवेत्ता कि जिसने बड़े भाई के बैठे रहते विवाह किया, वह दोषी होना चाहिये। उसके साथ में बड़ा भाई और छोटे भाई की स्त्री क्यों अपराधी समझे गये ? उन्होंने क्या अपराध किया था ? अर्थात् कुछ नहीं तो उन दोनों का अपराधी बनाना अन्याय वा अधर्म अवश्य है।

जैसे किसी की चोरी करने वाला चोर और जिसकी चोरी उसने की हो, उन दोनों को अन्यायी राजा के यहां दण्ड के योग्य मानकर दण्ड दिया जावे, तो यह साक्षात् अन्याय है। और धर्मशास्त्र के वचन पक्षपात रहित होने चाहियें, परन्तु वैसे नहीं दीखते, इस कारण उक्त श्लोक प्रक्षिप्त अवश्य हैं, कि जिनमें पक्षपातादि,   धर्म से विरुद्ध वर्णन है।

आगे एक सौ सत्तासीवें (१८७) श्लोक से लेकर दो सौ अस्सीवें (२८०) श्लोक पर्यन्त प्रक्षिप्त हैं। परन्तु १९२, २०६ से लेकर २०९ तक, २१३,२२६,२२८, २३१ से लेकर २३३ तक, २४३, २५१ से लेके २५३ तक और २५९ श्लोकों को छोड़कर शेष १८७ से २८० तक प्रक्षिप्त प्रतीत होते हैं। इन प्रक्षिप्त श्लोकों में अनेक वचन असम्भव हैं। कोई-कोई परस्पर विरुद्ध हैं। और श्राद्ध-तर्पण के विषय में जो पूर्व मैंने वेद का सिद्धान्त ठीक-ठीक दिखाया है, उससे तो सभी प्रक्षिप्त श्लोक विरुद्ध हैं। इसी कारण ऐसे श्लोक विचारशील विद्वानों को अप्रामाणिक पक्ष में छोड़ देने चाहियें, क्योंकि ऐसे वचनों से धर्मशास्त्र में कलट लगता है। जैसे मरीच्यादि ऋषियों से पितृगणों की उत्पत्ति दिखायी है, सो जो ऋषियों से उनकी उत्पत्ति मानी जावे, तो पितृगण अनादि वा सनातन नहीं हो सकते, और ऐसा होने पर मरीच्यादि ऋषियों को तर्पण-श्राद्ध नहीं करना चाहिये, और करें तो पुत्रों का श्राद्ध-तर्पण हुआ, किन्तु पितरों का नहीं। आगे लिखा है कि- ‘ब्राह्मणों को अत्यन्त उष्ण भोजन कराया जावे और वे मौन होकर भोजन करें।’१ सो यह कथन चिकित्साशास्त्र से विरुद्ध है, क्योंकि वैसा भोजन करने से मूत्रकृच्छ्र वा प्रमेहादि अनेक रोग उत्पन्न होते हैं। इसलिये वैसा भोजन किसी को भी न करना वा कराना चाहिये। आगे लिखा है कि- ‘जो शिर बांधकर भोजन करता, जो दक्षिण को मुख करके तथा जो जूता पहन कर खाता है, उस अन्न को राक्षस खा जाते हैं।’२ यदि यह बात सत्य हो तो भोजन करने वाले ब्राह्मणों की कितने ही अन्न से तृप्ति न होनी चाहिये, क्योंकि वे ब्राह्मण (जो प्रत्यक्ष में खा रहे हैं) तो खाते ही नहीं, किन्तु उनके मुख से राक्षस खा जाते हैं। सो सम्भव नहीं। भोजन करने वाले प्रत्यक्ष में तृप्त हुए दीख पड़ते हैं। इस कारण उक्त कथन ठीक नहीं है। आगे लिखा है कि- ‘निषिद्ध वा मूर्खादि नाममात्र का ब्राह्मण वा शूद्रादि भोजन करते हुए ब्राह्मणों को न देखे और देख लेवे तो श्राद्ध करना निष्फल है।’३ इत्यादि कथन ठीक नहीं, क्योंकि कहारादि सेवक वहां अवश्य रहते वा रहने चाहियें और वे न रहें तो सेवा ही कौन करे ? तथा कहीं यजमान भोजन कराने वाला ही मूर्ख हो तो वह भी देखेगा। तथा मक्खी-मच्छरादि भी उनको अवश्य देखेंगे। तो ऐसी अनेक दशा हो सकती हैं, कि जिनसे श्राद्ध का फल हो सकना बहुत कठिन है। और जब अनेक जीव-जन्तुओं के मांस से पितरों की अनन्त वा अक्षय तृप्ति दिखायी है, तो फिर मासिक, पाक्षिक, वार्षिक वा नित्य श्राद्ध करना निष्फल है, एक ही बार में अनन्त तृप्ति क्यों नहीं कर दी जाती, जो बार-बार न करना पड़े ? अर्थात् यह बात असम्भव है कि एक दिन का खाया महीने भर वा वर्षभर तक न पचे। इसलिये अन्य भी ऐसे आशय के श्लोक प्रक्षिप्त ही मानने चाहियें। पृथक्-पृथक् विशेष विचार आगे भाष्य में किया जायेगा। इस उक्त प्रकार से इस तृतीयाध्याय के सब दो सौ छियासी (२८६) श्लोकों में से नब्बे (९०) श्लोक प्रक्षिप्त और शेष एक सौ छियानवे (१९६) श्लोक सब विचारशील महाशयों को ठीक समझने चाहियें।

पिण्डदान और अन्य के किये कर्म का फल अन्य को पहुँचता है वा नहीं इत्यादि विचार : पण्डित भीमसेन शर्मा

पिण्डदान और अन्य के किये कर्म का फल अन्य को पहुँचता है वा नहीं इत्यादि विचार

इससे पूर्व जो श्राद्ध के विषय में कह चुके हैं, उससे यह सिद्ध हो गया कि मानवधर्मशास्त्र का सिद्धान्त जीते हुए ज्ञानी पुरुषों का श्रद्धापूर्वक भोजनादि से सत्काररूप श्राद्ध करना है। और मरों के श्राद्ध की कल्पना करना धर्मशास्त्र के सिद्धान्त से विरुद्ध है, इसके प्रमाण भी पूर्व दिये हैं। इस विषय में कई लोग कहते हैं कि श्राद्धरूप मृतकों को पिण्डदान देने से ही दायभाग ठीक बनता है। क्योंकि धर्मशास्त्र के अनुसार जो जिस मृतक पितादि को पिण्ड देने का अधिकारी नियत किया गया हो वा जिसका दिया पिण्ड मृतक को पहुंच सकता है, वही उस मृतक के धनादि का भागी हो सकता है, इसका विवेचन आगे दायभाग के प्रकरण में किया जायेगा।

कई लोग इस श्राद्ध विषय में यह भी कहते हैं कि जगत् में अन्य के किये कर्म के फल को अन्य भोगता है, तो पुत्र के किये श्राद्ध का फल पिता को क्यों नहीं प्राप्त होता ? यदि कहो कि नहीं भोगता तो यह प्रत्यक्ष से ही विरुद्ध है। जैसे पिता के उपार्जन किये धन से पुत्र सुख का अनुभव करता, पिता के बनाये घर में पुत्र रहता और पिता की लगायी वाटिका आदि से पुत्र सुख पाता है। तथा एक कमाता और अनेक पोषण योग्य स्त्री-पुत्रादि सुख भोगते हैं। इस प्रकार के सहस्रों उदाहरण मिलेंगे जिनमें अन्य के किये कर्म का अन्य फल भोगता है।

अब इसका कुछ समाधान दिखाते हैं। अन्य के किये कर्म का फल अन्य भोगता है, यह कहना नहीं बन सकता। जैसे जो पुरुष कुपथ्य भोजन करता है, उसी के पेट में पीड़ा होती है, अन्य के में नहीं। जो खाता है, उसी की भूख मिटती है, अन्य की नहीं इत्यादि। तथा जैसे पाचक वा स्त्री भोजन बनाती और भात आदि फल स्वामी भोगता है, यहां प्रत्यक्ष में यद्यपि अन्य के किये कर्म का अन्य को फल पहुंचता जान पड़ता है, तथापि उस पुरुष के सामयिक वा पूर्व के कर्म भी ऐसे हैं, जिनके अनुसार उसको पाचक वा स्त्री का भोजन मिले, यह भी उसी के कर्म का फल हुआ। और भार्या-पुत्रादि का भोजन कर्म यदि स्वामी की प्रसन्नता के लिये है, तो उसकी तृप्ति सन्तुष्टि में उनको फल प्राप्ति कही जा सकती है। इस कारण यहां भी कर्त्ता ही फल भोगता है। सो यह महाभारत में भी कहा गया है- ‘एक ही मनुष्य पाप करता है और वही फल भोगता है अर्थात् सब अपने-अपने किये शुभ-अशुभ कर्म के उत्तरदाता हैं, कोई किसी के करने भोगने में साथी नहीं हो सकता, तात्पर्य यह है कि स्त्री-पुत्रादि के पालन-पोषण के लिये जो पुरुष अधर्म, अन्याय, छल, कपटादि द्वारा भोजन वस्त्रादि वा धन को उत्पन्न करता है, वही कर्त्ता अपराधी वा पापी है, और स्त्री-पुत्रादि भोगने वाले छूट जाते हैं।’१ तथा यही तात्पर्य मनुस्मृति के चतुर्थाध्याय में भी कहा है- ‘एकाकी मनुष्य उत्पन्न होता वा एकाकी ही मरता है। तथा एकाकी ही पाप-पुण्य का फल भोगता है अर्थात् कोई किसी का साथी वा सहायक नहीं हो सकता कि भुगवा लेवे।’२ इस प्रकार के अनेक प्रमाणों से यह सिद्ध है कि इस जन्म में संचित किये पाप वा पुण्य का कर्त्ता ही जन्मान्तर में सुख वा दुःख को प्राप्त होता है। किसी प्रकार दोनों के वर्तमान समय में प्रत्यक्ष दशा में एक के किये कर्म का फल दूसरा भोगे वा सञ्चयकर्त्ता के न रहने पर उसके संचित भोग-साधनों की विद्यमानता में उसके निकटवर्त्ती पुत्रादि सुख-दुःख भोगें। परन्तु इतने से पुत्र के किये श्राद्ध का फल पिता नहीं पा सकता, क्योंकि उक्त दृष्टान्त इस कथन से ठीक सम्बन्ध नहीं रखते, किन्तु यदि ऐसा कोई दृष्टान्त मिले कि जो पुरुष मर गये, उनको किसी ने अब तक सुख-दुःखादि यहां के किये कर्म से पहुंचाया हो और इसका कोई प्रत्यक्ष दृष्टान्त मिल सके, तो इस प्रसग् में लग सकता है। अर्थात् इस कथन का यहां तात्पर्य यह है कि जहां-जहां अन्य के किये कर्म का फल अन्य भोगता है, ऐसा व्यवहार किसी प्रकार कर सकते हैं, वहां-वहां सुख-दुःख का साधन बाग वा    धनादि भोगने वाले के प्रत्यक्ष ही होता है। और जहां सुख वा दुःख का साधन प्रत्यक्ष नहीं है, वहां फल का होना भी असम्भव है। जैसे बिना जल के प्राप्त हुए जल से दूर होने वाली प्यास निवृत्त नहीं होती, अथवा बिना रोग हुए रोग से होने वाला दुःख भी नहीं हो सकता। इसी प्रकार पुत्र का किया सुख का साधन यहां है, उससे होने वाले सुखरूप फल को मरे हुए परोक्ष पितृ लोग प्राप्त हों, यह असम्भव है। क्योंकि जहां दीपक होगा, वहीं प्रकाश होगा। और पिता जो धनादि पदार्थ छोड़ जाता है, वे पदार्थ सुख वा दुःख भोगने वाले के पास रहते हैं, इस कारण पिता के किये का फल पीछे पुत्र भोग सकता है, और पुत्र का किया जन्मान्तर में पिता को नहीं पहुंच सकता, क्योंकि वे सब पदार्थ यहां हैं। जैसे अन्य के भोजन कर लेने से अन्य की क्षुधा निवृत्त नहीं होती, वैसे यहां किन्हीं ब्राह्मणों के खवा देने से मरे पितरों की क्षुधा नहीं दूर हो सकती। यदि कोई कहे कि किये हुए कर्म से धर्म-अधर्म का संचय होता है, और वह जन्मान्तर में भी जीवात्मा के साथ जाकर फल देता है, वहां साधन कोई नहीं जाते, धनादि सब यहीं पड़े रहते हैं, और संचित धर्म-अधर्म का जीवात्मा के साथ जाना जन्मान्तर में न माना जावे, तो नास्तिकपन आता है। सो जैसे जन्मान्तर में कर्त्ता को धर्म-अधर्म का फल पहुंचता है, वैसे ही पुत्रादि के किये का पिता को पहुंचना चाहिये। इसका उत्तर यह है कि संचितकर्म वासनारूप होता है, वह कर्त्ता के अन्तःकरण से सम्बन्ध रखता हुआ वहीं वासनारूप से ठहरता है, और उसी कर्त्ता को वर्तमान जन्म वा जन्मान्तर में फल देता है। जैसे अन्य के किये का अन्य को स्मरण नहीं आता। जैसे किसी ने अज्ञान से किसी उपकारी मित्र वा पुत्रादि का वध किया हो, उसको जब-जब स्मारक निमित्त के मिल जाने से स्मरण आ जाता है, तब-तब मानस दुःखरूप अग्नि भीतर ही भीतर शरीर को जलाता है। तथा अन्य कोई घातक अन्य के किये काम से दुःखित हो, यह किसी प्रकार सम्भव नहीं। इस प्रकार इस उक्त कथन से सिद्ध हो गया कि अपने किये कर्म का आप ही जन्मान्तर में फल भोगता है। वर्तमानदशा में तो अन्य के किये कर्म के फल को अन्य भी कोई पाता है।

अब इसी उक्त कथन से सिद्ध हो गया कि यहां किये पिण्डदानादि का फल जन्मान्तर में पितर नहीं पाते। यदि पावें तो सब सुखी ही रहें, दुःखी कोई न हो। क्योंकि संसार में जितने मनुष्य उत्पन्न हुए हैं, उन सबके श्राद्ध-तर्पण करने वाले तो होंगे ही। तो सबको भूख-प्यास निवृत्तिरूप फल पहुंचना चाहिये, पर ऐसा नहीं दीखता। इस पौराणिकपक्ष में अनेक विकल्प वा शटाएं उत्पन्न होती हैं, कि- जो मनुष्य मरते हैं, वे क्या पृथिवी पर मनुष्यादि योनि में नहीं आते ? यदि उनको मनुष्यादि योनि इस पृथिवी पर नहीं मिलती, तो कहां जाते हैं ? और जो पृथिवी पर आकर मनुष्यादि योनि को प्राप्त होते हैं, तो श्राद्ध में बुलाते समय कैसे आते हैं ? अर्थात् उस-उस योनिस्थ शरीरों सहित श्राद्ध में आवें, तो सबको क्यों नहीं दीख पड़ते ? तथा लोक में ऐसा कहीं नहीं दीखता कि कोई किसी के यहां पूर्वजन्म के सम्बन्ध से श्राद्ध में मन्त्रद्वारा बुलाने पर जाता हो। और शरीर छोड़कर जीवमात्र श्राद्ध में जावे तो उतने काल तक उनके शरीर मरे पड़े रहें, यह भी नहीं दीखता अर्थात् यह सब प्रत्यक्ष प्रमाण से ही विरुद्ध है। और जो मरे हुए प्राणी पृथिवी पर जन्म नहीं लेते, तो मरकर कहां जाते हैं ? यदि पितृलोक में जाते हैं, तो वह पितृलोक कहां है ? क्या वह पितरों का ही लोक वा स्थान है ? तो पुत्र मर कर कहां जाते हैं ? यदि पुत्र भी वहां जाते हैं, तो पुत्रलोक वा भ्रातृलोक क्यों नहीं माना जाता ? तथा मरकर यदि सभी प्राणी अन्य लोकों में उत्पन्न होते हैं, तो पृथिवी पर नये-नये जीवात्मा कहां से आकर जन्म लेते हैं ? यदि घट आदि अनित्य वस्तुओं के तुल्य जीवात्मा नहीं बनते वा बनाये जाते तो असंख्य मानने पर भी फिर लौटकर न आने से अभाव हो जाना सम्भव है। अर्थात् कोई वस्तु कितना भी अधिक असंख्य क्यों न हो, उसमें से व्यय मात्र होता रहे और नवीन संचित न किया जाय, तो कभी न कभी सबका निपट जाना सम्भव है। और जीवात्माओं की नवीन उत्पत्ति मानी जावे तो पहला जन्म निष्कारण क्यों हुआ ? (अर्थात् ऐसा मानने वाले के मत में कृतहानि और अकृताभ्यागम दोष भी अवश्य आवेगा, क्योंकि जन्म होते समय जो जीवात्मा की उत्पत्ति शरीर के तुल्य मानी जावे तो मरते समय शरीर के तुल्य नाश होना भी सम्भव है। इस दशा में जब कोई मनुष्य ऐसे शुभकर्म करता-करता मर गया, कि जिनको मरते समय पूरा किया और फलभोग का समय आते ही मर गया जैसे भोजन बनाकर ठीक कर चुका खाने से पहले मर गया वा बड़े परिश्रम से वाटिका तैयार की और फल लगने का समय आया तभी वह मर गया इत्यादि। ऐसी दशा में आगे जन्म होने वाला नहीं, जिसमें अन्त तक किये पाप वा पुण्य का फलभोग मिलेगा फिर अच्छे कर्म करने की प्रशंसा और बुरे काम की निन्दा दोनों नहीं बन सकती। यह कृतहानि दोष है। और जो नया जीवात्मा शरीर के साथ उत्पन्न हुआ, उसको विशेष सुख वा दुःख क्यों मिला ? क्योंकि उसने तो पहले अच्छा वा बुरा कोई कर्म किया ही नहीं। यह अन्याय वा विरुद्ध है कि जिसने अच्छा वा बुरा कर्म नहीं किया, उसको सुख वा दुःख विशेष मिल जाना। यही अकृताभ्यागम दोष है कि नहीं किये की प्राप्ति और किये का फल न मिलना कृतहानि दोष है।) और ऐसा होने पर धर्मशास्त्रों के वचन भी खण्डित होंगे ‘सत्त्वगुणी लोग देवता होते, रजोगुणी मनुष्य और तमोगुणी पशु आदि कीटपतगदि योनियों में जन्म लेते हैं, इस प्रकार तीन प्रकार की गति है।’१ इस कथन से ठीक सिद्ध है कि मरते समय जीवात्मा रहता है, किन्तु शरीर के तुल्य नष्ट नहीं हो जाता, और वही कर्मानुकूल जन्मान्तर धारण करता है, इससे नवीन भी उत्पन्न नहीं होते। यदि इसको ठीक मानें तो वह खण्डित है, और उसके मानने पर इस पक्ष का खण्डन होता है। इससे सिद्ध हो गया कि प्रायः रजोगुणी सर्वसाधारण मनुष्य पृथिवी पर बार-बार मनुष्ययोनि को पाते हैं। इसी प्रमाण के अनुकूल जिनके पितर मनुष्ययोनि में आ गये, वे लोग जब श्राद्ध-तर्पण करते हैं, तब उस श्राद्ध-तर्पण के फल से जन्मान्तर में अन्य शरीर धारण करने वाले पितरों की भूख-प्यास क्यों नहीं निवृत्त हो जाती ? यदि होती है तो सभी मनुष्यों के पूर्वजन्म में कोई न कोई पुत्रादि रहते ही हैं, और प्रायः मरों का श्राद्ध किया ही जाता है, तो उनको श्राद्ध के प्रायः दिनों में सभी को भूख-प्यास न लगनी चाहिये, पर ऐसा नहीं दीखता। इस प्रकार के सहस्रों प्रश्न मरों को श्राद्ध देनेरूप पौराणिक पक्ष में हो सकते हैं, जिनका समाधान असम्भव है। और हमारे पक्ष में तो उनका समाधान ही है, क्योंकि ऐसे प्रश्न ही नहीं उठते। और जीवित चेतन पितरों का श्राद्ध करने वालों के मत में ज्ञाननिष्ठ सत्त्वगुणी पुरुषों को जो लोक- नाम स्थान है, वही पितृलोक जानो। जिस प्रदेश वा देश में मानस कर्म में प्रधान विचारशील ज्ञानी लोग निवास करते हैं, वह पितृलोक है वा उन पितरों के समुदाय-मेल का नाम पितृलोक है। जिनके लिये मरने के पश्चात् शास्त्रों में पितृलोक में जाना सुनते हैं, वे पुरुष शरीर छोड़ने के पश्चात् वैसे पूर्वोक्त पितृजनों के समुदाय वा प्रदेश में अर्थात् पितरों के घरों में जाकर जन्म लेते हैं। भगवद्गीता में भी लिखा है कि- ‘अधूरे योगी लोग मरणान्तर योगी लोगों के कुल में ही जन्म लेते हैं।’१ परन्तु यह दुर्लभ अर्थात् ऐसा जन्म होना सर्वोत्तम है, कि जिसमें फिर भी योगाभ्यास करके शीघ्र अपने इष्ट कल्याण को प्राप्त हो सकते हैं, कि जिसके लिये पूर्वजन्म में मरणपर्यन्त यत्न करते रहे और अन्त में यह आशा रह गयी कि यह मेरा काम पूरा सिद्ध न होने पाया, काल आ गया, तथा वाणी सम्बन्धी पुण्य जिन्होंने मुख्य कर किया है, उनके समुदाय वा कुलों में वे लोग उत्पन्न होते हैं, जिनके लिये मरणान्तर शास्त्रों में देवलोक का जाना लिखा है। इसी प्रकार सर्वत्र व्यवस्था लगानी चाहिये। यहां संक्षेप से श्राद्ध-तर्पण का विवेचन किया गया। अब तृतीयाध्यायस्थ श्लोकों में से प्रक्षिप्त का विचार किया जायेगा।

श्राद्ध-तर्पण विषय में अनेक शंकाओं का समाधान : पण्डित भीमसेन शर्मा

श्राद्ध-तर्पण विषय में अनेक शंकाओं का समाधान

अब इस पूर्वोक्त विचार पर पौराणिक लोग कहते हैं कि- जैसा श्राद्ध और तर्पण तुमने पूर्व कहा, वैसा वेद और मनु आदि धर्मशास्त्रों के अनुकूल हो सकता है क्या ? मन्त्रभाग संहिता, ब्राह्मण, उपनिषद्, गृह्यसूत्र, स्मृति, इतिहास- महाभारतादि और पुराण आदि श्रेष्ठ लोगों के माने हुए सम्पूर्ण पुस्तकों में मरे पितृ लोगों को श्रद्धा से पिण्डादि देना श्राद्ध है, ऐसा वर्णन किया गया है। और वैसे ही अनादिकाल की परम्परा से सब लोग श्राद्ध करते आते हैं। वेदों में भी पितरों के आह्वान और पिण्ड रखने का मन्त्र- “आयन्तु नः पितरः सोम्यासोऽग्निष्वात्ताः पथिभिर्देवयानैः। पितृभ्यः स्वधायिभ्यः स्वधा नमः है। इत्यादि मन्त्रों में श्राद्ध का वर्णन किया है। शतपथ ब्राह्मण में भी लिखा है कि- ‘नीवि को छोड़ छह बार नमस्कार करे।’३ और ‘कुशों पर पिण्ड धरके, हाथ झार दे वा धो डाले।’४ इत्यादि प्रकार मनुस्मृति में भी श्राद्ध का पूरा विधान दिखाया है। गयाश्राद्ध से पितृजनों की मुक्ति हो जाती है, इसको सब शास्त्रकार मानते हैं। और नैत्यिक वा गयाश्राद्धादि करके पितरों को तारने के लिये ही पुत्रों की आवश्यकता है, सो कहा भी है कि- ‘पुत्रहीन अर्थात् निर्वंशी की अच्छी गति नहीं होती।’५ इस प्रकार मरे हुए पितरों का श्राद्ध सर्वसम्मत है, तो जो कोई लोग उस पर विश्वास नहीं करते वे नास्तिक हैं। और अथर्ववेद में स्पष्ट ही मरे हुए पितरों का तर्पण लिखा है कि- ‘जो मरे, जीते, प्रकट हुए और यज्ञ सम्बन्धी पितर हैं, उन सबके लिये सहतयुक्त जल की धारा प्राप्त हो।’६ इत्यादि प्रकार मरे हुए पितरों का तर्पण-श्राद्ध वेदादि शास्त्रों में लिखे अनुसार सबको माननीय सिद्ध होता है।

ऐसे उक्त प्रश्न का अब समाधान- उत्तर दिया जाता है, ध्यान पूर्वक सब महाशयों को देखना चाहिये- इसमें कुछ भी सन्देह नहीं कि जो वेद से भिन्न ब्राह्मणादि ऋषिप्रणीत पुस्तकों में भी जिस किसी प्रकार मरे हुए पितरों का श्राद्ध मिलता है। इतने मात्र से वह कर्त्तव्य हो नहीं सकता, क्योंकि वह इस समय साध्यकोटि के अन्तर्गत है। अर्थात् आर्ष पुस्तकों में भी स्वार्थी लोगों ने जब अनेक स्वार्थ-लीला की बातें मिला दीं, जिनको सभी विचारशील विवेकी लोग ऊटपटांग वा असम्भव समझते हैं। जिन बातों को लड़के भी अच्छा नहीं समझते, जो सभ्यता से सर्वथा विरुद्ध हैं। तो वैसे ही अनेक शास्त्रीय प्रमाण और युक्तियों से विरुद्ध होने के कारण मरे हुओं का श्राद्ध भी आर्ष पुस्तकों में मिला दिया, ऐसा अनुमान होता है। और अनेक स्थलों में मरों का श्राद्ध नहीं है, वहां भी बुद्धि के भ्रान्त होने से वैसा ही दीखता है, उसका कारण अज्ञान है। मरे हुए पितरों का यदि अनादिकाल से श्राद्ध चला है, तो सृष्टि के आरम्भ में उत्पन्न हुए ब्रह्मा आदि ने किन मरे पितरों का श्राद्ध किया ? और जब मरीच्यादि ऋषियों से अग्निष्वात्तादि पितृगणों की उत्पत्ति दिखायी है, तो मरीचि आदि ने भी तर्पण श्राद्ध नहीं किये क्या ? और यदि किये तो क्या पितरों के स्थान में अपने पुत्रों का तर्पण श्राद्ध किया, ऐसा तुम लोग मानते हो ? क्योंकि जिनको तुम लोग अनादि पितृगण मानते हो, वे मरीच्यादि ऋषियों से उत्पन्न हुए हैं, उससे पहले वे थे ही नहीं। इससे मरों का श्राद्ध अनादिकाल से चला, यह ठीक नहीं। यदि कोई कहे कि निर्मूल वृक्ष खड़ा नहीं हो सकता, इस न्याय से निर्मूल श्राद्ध कैसे चल गया, तो इसका   समाधान सुनो- जब पूर्वोक्त प्रकार से ज्ञानी पुरुषों का अन्नादि उत्तम सामग्री से सत्कार रूप श्राद्ध करना, हम लोग सनातन सिद्ध करते हैं, तब निर्मूल श्राद्ध नहीं हुआ। क्योंकि ब्रह्मा और मरीचि आदि भी ऐसा श्राद्ध कर सकते थे अर्थात् उस समय भी ब्रह्मादि से भिन्न अन्य ज्ञानी लोग विद्यमान रहे। इससे हमारे मत में नित्य परम्परा से श्राद्ध करना बन सकता है। और मरे हुओं के श्राद्ध में जीवितों का श्राद्ध मूल है, इससे निर्मूल नहीं कह सकते। दोनों पक्षों में श्राद्ध तो कर्त्तव्य ही है अर्थात् उसके कर्त्तव्य होने में कुछ भी विवाद नहीं, किन्तु प्रकार में और फल में विवाद है कि श्राद्ध किस प्रकार और किसलिये करना चाहिये। पौराणिक लोग कि जिनका पक्ष है कि मरों का श्राद्ध कर्त्तव्य है। वे भी प्रत्यक्ष में जीवित लोगों का ही सत्कार रूप श्राद्ध करते हैं। अर्थात् मरे हुए पितृ जन कहीं आकर भोजन करते हों, ऐसा कोई नहीं मान सकता। केवल हठपूर्वक कहते रहना ही विवाद का स्थान है। और फल में विवाद यह है कि श्राद्ध करने वाला फलभागी होता है, किन्तु मरे पितरों को फल नहीं पहुंचता, यह सिद्धान्त पक्ष है। और अन्य लोग कहते हैं कि नहीं मृत पितरों को श्राद्ध का फल पहुंचता है। सो यह पक्ष इसलिये भी ठीक नहीं, सब शास्त्रकार पुकार-पुकार कहते हैं कि जो जैसा कर्म करता है, उसको अगले जन्म में वैसा फल अवश्य मिलता है। यदि किसी के पिता ने अधिकांश अधर्म किया और शास्त्र की मर्यादा वा न्यायानुकूल उसको नरक रूप दुःख भोग मिलना चाहिये। परन्तु उसका पुत्र श्राद्ध करके अच्छा फल पहुंचा रहा है, तो क्या होना चाहिये ? यदि पूर्व कर्मानुसार उसको दुःख मिले, तो श्राद्ध फल पहुंचना नहीं बनेगा और श्राद्ध का फल पहुंचकर सुख मिला, तो बुरे कर्मों का नियत फल कहने वाले शास्त्र व्यर्थ हुए। और जिसके पूर्व से ही अच्छे कर्म हैं, उससे बुरे कर्मों वाले का भेद ही क्या रहा ? दोनों ही सुखभागी हुए तो अच्छे कर्म वा धर्म का उद्योग करना निष्फल हुआ अर्थात् इन दो बातों में एक ही सिद्ध हो सकती है कि चाहे परलोक सहायार्थ धर्म की आवश्यकता ठहरा लो और चाहे श्राद्ध को परलोक सहायक मान लो। इस दशा में जिन लोगों ने पुत्र उत्पन्न किये और श्राद्धादि करने की उनको ठीक-ठीक शिक्षा भी कर दी तो वे भले ही मरण पर्यन्त पाप किया करो, पुत्र लोग गयादि श्राद्ध करके जन्मान्तर में तो तार ही देंगे, फिर ऐसी दशा में धर्म करने का उपदेश करने वाले सब धर्मशास्त्र मिथ्या होंगे। और धर्मशास्त्रकार इससे विरुद्ध स्पष्ट पुकार-पुकार कर कहते हैं कि- ‘परलोक अर्थात् जन्मान्तर में सहायता करने के लिये पिता-माता और स्त्री-पुत्रादि नहीं ठहर सकते अर्थात् तेरे सहायक जो माता-पिता, स्त्री-पुत्रादि यहां प्रत्यक्ष में हैं, वे वहां साथ नहीं जायेंगे, जैसे यहां तेरे सुख-दुःख में साथी हो जाते हैं, वैसे वहां न पहुंचेंगे, और वहां कुछ सहायता नहीं पहुंचा सकेंगे अर्थात् जैसे यहां तुझ पर किसी बुराई का फल विपत्ति आ पड़े तो यथाशक्ति ये सब सहायता करते वा कर सकते हैं, वैसे यहां के किये अधर्म की विपत्तिरूप दुःख की प्राप्ति में ये लोग कुछ भी सहायता न कर सकेंगे। इन लोगों के भरोसे तू कदापि पाप न कर कि ये किसी प्रकार श्राद्धादि द्वारा मुझे कुछ सुख पहुंचावें। किन्तु एक धर्म ही तेरी सहायता करेगा, जिसका तुमने यहां उपार्जन किया होगा।’१ इस कारण पिता-मातादि को भी सुख पहुंचाने के लिये तू अधर्म न करके अपना परमार्थ सुधारने के लिये यहां धर्म का उपार्जन कर। इस पूर्वोक्त कथन से स्पष्ट सिद्ध होता है कि मानवधर्मशास्त्र के सिद्धान्त से भी श्राद्ध का फल मरे हुए पितृ लोगों को नहीं पहुंचता।

हम इस अंश का विचार पूर्वक अनुसन्धान करते हैं कि मृतकों के श्राद्ध की परिपाटी क्यों चली तो अनुमान होता है कि पहले जब कोई मरता था, तब उसके सम्बन्धी लोग अब के तुल्य शोकसमुद्र में डूबते थे, ऐसी दशा देखकर उनके उपदेशक गुरु लोग उपदेश द्वारा अपने शिष्यों का शोक दूर करने के लिये स्वयं आते वा शिष्यों के बुलाने पर आकर उनके शोक की निवृत्ति का उपाय करते थे और उस समय शिष्य लोग उनका सत्कार विशेषकर इस कारण करते थे कि शोक-निवृत्ति होने से उनका अन्तःकरण उन्हीं के द्वारा प्रसन्न होता था। यह परम्परा कुछ काल तो ठीक-ठीक चली, पीछे अविद्या में फँसे लोगों ने आप ही कल्पना कर ली होगी कि इन ब्राह्मणों का सत्कार करने से मृतक लोगों की तृप्ति होती है। तब से लेकर मरे हुओं का श्राद्ध प्रवृत्त हुआ, ऐसा अनुमान हो सकता है। अथवा ज्ञानी लोगों का सत्कार, सेवन भी पुण्य कर्म है, वह पुण्य यदि शोक समय में किया जाय, तो शोक की निवृत्ति होना सम्भव है, इस कारण शोक समय में पुण्य करना चाहिये, अथवा किसी के मरने पश्चात् शेष रहे मरे के सम्बन्धी भाई आदि शोक से व्याकुल होने के कारण किसी प्रकार धनादि पदार्थों से विरक्त होते हैं, उस समय भोजनादि का दान उनसे सुगमता के साथ किया जाता वा हो सकता है। क्योंकि शोक और उत्सव से भिन्न समय में कोई उदार ही पुरुष धन का व्यय कर सकता है, किन्तु कृपण वा साधारण मनुष्य का साहस नहीं पड़ सकता कि वह प्रत्येक समय धन का व्यय कर सके। इस प्रकार अनेक दीर्घदर्शी विचारशील पूर्वज लोगों ने मरने पश्चात् और पुत्रादि की उत्पत्तिरूप उत्सव समय में दान पुण्य और ज्ञानियों के सत्कार करने का उपदेश किया कि जिससे कृपण लोग भी लोकलज्जा वा दबाव आदि से ही कुछ धर्म अवश्य कर सकेंगे। इसी अंश को कुछ काल पीछे मूर्खों ने मरों की तृप्ति पर लगा दिया कि मरने पश्चात् किये हुए दान-पुण्य और सज्जनों के सत्कार का फल मरे हुओं को पहुंचता है और उनको फल पहुंचाने के लिये ही मरणानन्तर किया जाता है, ऐसी कल्पना करके कुछ काल पीछे पिण्डादि बनाकर कुशों पर रखने की कल्पना भी कर ली गयी। और उस अपने अनुभव वा अनुमानरूप पिण्डादि रखने की परिपाटी को अनेक सद्ग्रन्थों में भी मिलाया कि जिससे आगे बराबर चली जावे। ऐसा अनुमान से प्रतीत होता है। इस प्रकार इस अन्यथा चले मृतकश्राद्ध का मूल सत्य सनातन श्राद्ध है, इससे निर्मूल नहीं और न मृतकश्राद्ध अनादिकाल से प्रवृत्त सनातन है, यह सिद्ध हुआ।

और एक यह भी अनुमान होता है कि कदाचित् विद्या का पढ़ना और ब्रह्मचर्य आश्रम का सेवन जब किन्हीं कारणों से छूटा वा आलस्यादि अवगुण अधिक बढ़े, तो अनेक उदरम्भर, स्वार्थी, धर्मध्वजी नाममात्र के ब्रह्मणों ने विचारा हो कि अब हम लोग श्राद्ध के योग्य (जैसे कि मनु आदि शास्त्रों में लिखे हैं) नहीं रहे, तो हमको श्राद्ध में कोई न बुलावेगा। और श्राद्ध भी कोई न करेगा तो यह युक्ति अच्छी है कि मरों का नाम लगा देने से लोग अवश्य श्राद्ध करेंगे। और श्राद्ध होंगे, तो हमको भोजन भी कराया ही जावेगा। कोई भी मनुष्य अपने नाम से भोजन वा दान-दक्षिणा नहीं मांग सकता, मांगे तो संकोच होता है, परन्तु अन्य के लिये वैसा संकोच नहीं होता, इस कारण मृत पितरों को फल पहुंचने के लिये भोजन, दान-पुण्य आदि का उपदेश चलाया हो, यह सम्भव है। यदि ऐसा हो तो चलाने वाले विशेष कर अधर्मी हुए और पहले विचारानुसार चला तो अज्ञान मूल कारण हुआ।

यदि बहुत काल से वा ऋषि और आर्यराजाओं के समय से ही कदाचित् मृतकों का श्राद्ध चला आया हो और बहुत काल से प्रवृत्त होने के कारण यदि प्रामाणिक ठहर जावे तो क्या चोरी बहुत काल से नहीं चली आती है ? क्या चोरी आदि अधर्म बीच से चले गये ? और क्या बहुत काल से चोरी भी चली आती है तो अच्छे लोग भी चोरी करें ? इसका अभिप्राय यह नहीं कि श्राद्ध भी चोरी के तुल्य नीच कर्म है, किन्तु तात्पर्य यह है कि मृतकों के उद्देश से श्राद्ध करना श्राद्ध के मुख्य अभिप्राय पर नहीं पहुंचाता, इसी से श्राद्ध विषयक वेदादिशास्त्रों की आज्ञा का पालन हुआ भी नहीं कहा जा सकता, तथा कुछ व्यर्थ भी करने पड़ता है। और (आयन्तु नः०) इत्यादि मन्त्रों का अर्थ ज्ञानी लोगों के पितृ मानने में ही निर्दोष और ठीक बनता है। किन्तु मरों के पितृ मानने में नहीं। ‘सोम नाम शान्ति वा सहनशीलता रखने के योग्य तथा आहवनीयादि अग्नि के ग्रहण करने हारे अर्थात् ब्रह्मचर्यादि आश्रमों का धर्मपूर्वक वेदोक्त रीति से सेवन करने वाले हमारे रक्षक पितर लोग श्रेष्ठ पुरुषों की चाल के साथ आवें।’ इस अर्थ से मरे पितरों के आह्वान का कुछ भी संकेत नहीं, और न कोई ऐसा विशेषण है कि जिससे मरे पितृ लोग ही समझे जावें। उक्त सोम्यास आदि विशेषण मरों में कदापि घट भी नहीं सकते। कदाचित् अग्निष्वात्त पद का कोई यह अर्थ करे कि अग्नि में जलाये वा भस्म किये गये। और कोई लोग यह भी कह सकते हैं कि अग्निष्वात्त शब्द का अर्थ तुम्हारा ही ठीक रहे वा अन्य हो तो भी पितरों के श्राद्ध प्रकारणस्थ वेदमन्त्रों में- “ये अग्निदग्धा अनग्निदग्धा मध्ये दिवः स्वधया मादयन्ते” इत्यादि मन्त्र भी आते हैं, जिनका बहुत स्पष्ट होने से अर्थ बदला भी नहीं जा सकता, क्योंकि “दह भस्मीकरणे” धातु का रूप ही दग्ध होता है अर्थात् ‘जो पितर अग्नि से जले वा अग्नि से न जले हों, ऐसे पितरों को हविष्य खाने के अर्थ मैं बुलाता हूं।’ अब इसका भी उत्तर विचारने योग्य है कि अग्नि से पितरों का जलना कैसे हो सकता है ? पितर नाम यदि शरीर का रखो, तो यह बात घट सकती है कि अग्नि से जले पितर, परन्तु जो शरीर अग्नि से जला दिया गया, वह उसी समय भस्म हो गया, अब उसको श्राद्ध में बुलाना वा उसके लिये श्राद्ध का फल पहुंचाना, दोनों बातें असम्भव हैं। यदि पितर नाम जीवात्मा का मानो, जिसका बुलाना बन सकता है परन्तु वह अग्नि से नहीं जलाया गया, क्योंकि शरीर के जलाने से पहले ही वह निकल गया और उसके निकल जाने से ही शरीर जलाया गया। तो उन जीवात्माओं के साथ अग्निदग्ध विशेषण लग ही नहीं सकता। यदि कहो कि चेतन शरीर का नाम पितर है, तो चेतन शरीर भी जलाया नहीं गया। इस प्रकार किसी रीति से मृतकों के श्राद्ध पक्ष का अर्थ नहीं बनता और इसी प्रकार जीवात्मा को किसी का पिता वा पुत्र भी नहीं कह सकते, क्योंकि श्वेताश्वतरोपनिषद् में स्पष्ट निषेध भी किया है कि- ‘आत्मा कोई किसी का पिता-पुत्रादि नहीं, किन्तु जब तक शरीर के साथ संयोग रहा, तब तक पिता-पुत्रादि नाम से माना गया।’१ इससे जीवात्माओं को पीछे किसी के पितर कह भी नहीं सकते। तथा इसी प्रकार “मृताः” यह भी पितरों का विशेषण नहीं बनता, क्योंकि मरण नाम प्राणवियोग का है, वह शरीर से हुआ अर्थात् शरीर से प्राण निकल गये तो मरे पितर शरीरों को कह सकते हैं, सो शरीर शीघ्र ही जलने आदि द्वारा मिट्टी में मिल जाते हैं। फिर उनका भी बुलाना नहीं हो सकता। अब यदि कोई कहे कि अच्छा हमारे पक्ष में अग्निदग्ध आदि पदों का अर्थ नहीं बनता, तो तुम क्या अर्थ करते और अपने पक्ष में कैसे घटाते हो ? इसका उत्तर यह है कि ‘अग्नि द्वारा भूंजे वा पकाये गये वा स्वयं कालपक्व सामयिक फलादि दोनों प्रकार के पदार्थ ज्ञाननिष्ठ पितृ लोगों के भोजनार्थ उपस्थित करने चाहियें।’ अर्थात् अग्निदग्ध आदि पद भोग्य वस्तुओं के विशेषण हैं। यदि वहां पितृ शब्द भी हो तो वेद का यौगिकार्थ होने से रक्षक पदार्थों का विशेषण माना जावेगा। इत्यादि प्रकार सब अर्थ ठीक है, केवल बुद्धि पर थोड़ा बल देना चाहिये। इस सब कथन से सिद्ध हुआ कि (आयन्तु नः०) इस मन्त्र में पितृ शब्द से जीवते हुए ज्ञानी पितरों का ग्रहण है। द्वितीय पिण्ड धरने का मन्त्र कहा, सो भी ठीक नहीं क्योंकि उसमें पिण्ड वा धरने का कुछ भी संकेत नहीं है। और शतपथ ब्राह्मण का प्रमाण दिया उसमें भी मरों का नाम न होने से वैसा अर्थ नहीं आता और कदाचित् मृतकों के श्राद्ध करने का उपदेश शतपथादि में किसी अभिप्राय से निकल आवे, तो भी सिद्धान्त पक्ष में कोई दोष नहीं आता। क्योंकि जब वेद का सिद्धान्त नहीं तो वेद से विरुद्ध और प्रमादादि दोषयुक्त लेख उनमें भी हो सकता है। और मनुस्मृति के तृतीयादि अध्यायों में अनेक श्लोक मरों का श्राद्ध बताने के लिये हैं, यह बात हमको भी स्वीकार है, परन्तु उन श्लोकों के वहां लिखे होने मात्र से वैसा श्राद्ध कर्त्तव्य सिद्ध नहीं होता। ऐसा हो तब तो चोरी वा परस्त्रीगमन भी अनेक स्थलों में किसी विशेष प्रयोजन से वा निषेध के लिये लिखा है, तो क्या चोरी आदि कर्त्तव्य होगा ? प्रयोजन यह है कि लिख देने मात्र से किसी कार्य का कर्त्तव्य वा अकर्त्तव्य होना सिद्ध नहीं हो सकता, किन्तु जिसको विधान की रीति से अर्थवाद सहित लिखा हो, वही कर्त्तव्य है। तो भी इस का विशेष निश्चय तृतीयाध्याय के प्रक्षिप्त समीक्षा प्रसग् में आगे करेंगे।

और गयाश्राद्ध तो दूसरों के पदार्थ हरने वाले वहां के धूर्त्त लोगों ने अपना प्रयोजन सिद्ध करने के लिये कल्पित किया है, ऐसा अनुमान होता है। यदि कोई विद्वान् इसको ध्यान देकर विचारे तो सिद्ध हो जायेगा कि गयाश्राद्ध के होने से पौराणिक मत में श्राद्ध नित्यकर्म नहीं ठहर सकता, क्योंकि गयाश्राद्ध किये पश्चात् पितरों की मुक्ति हो जाती है वा ऐसी दशा में वे पहुंच जाते हैं कि पुत्रों के लिये श्राद्धफल के भोग की इच्छा शेष नहीं रह जाती, तो गयाश्राद्ध करने पीछे किसी को श्राद्ध न करना चाहिये और सभी लोग पिता के मरने पश्चात् एक दो वर्ष में गयाश्राद्ध कर देंगे, पीछे श्राद्ध करना निष्फल वा निष्प्रयोजन है, क्योंकि भरे को भरना व्यर्थ है, इस प्रकार “सब को नित्य श्राद्ध करना चाहिये” इत्यादि प्रकार की धर्मशास्त्र की आज्ञा भी नहीं बन सकती, क्योंकि श्राद्ध सदा नहीं हो सकता। और यह दोष जीवितों का श्राद्ध मानने वालों के पक्ष में नहीं आ सकता। क्योंकि वे अपने कल्याण के लिये नित्य श्राद्ध करें जैसे कि अग्निहोत्रादि करते वा करने चाहियें, वैसे श्राद्ध भी नित्य कर्त्तव्य बन जाता है। और गयाश्राद्ध से यदि पितरों का मोक्ष हो जाता है, तो ‘परमेश्वर के ज्ञान से भिन्न मोक्ष का अन्य मार्ग नहीं’१ इस वेद के मन्त्र से विरुद्ध है, अर्थात् ज्ञान के बिना मोक्ष होना असम्भव है। और इन लोगों का यह भी कहना ठीक नहीं कि मृतकश्राद्ध करने के लिये सब शास्त्रों का सिद्धान्त है। किन्तु मतवाद से भरे हुए पुराणों का यह मत है।

तथा पुत्र के बिना गति नहीं होती, यह भी एकदेशी वाक्य है, अर्थात् सर्वसम्मत नहीं है। क्योंकि जब स्पष्ट लिखा है कि- ‘ब्रह्मचर्य आश्रम से, घर से वा वन से जब पूर्ण पक्का वैराग्य हो जावे, तभी मनुष्य विरक्त बने।’१ इत्यादि ब्राह्मण और उपनिषद् के वचनों की आज्ञानुसार ब्रह्मचर्याश्रम से संन्यास ग्रहण परमार्थसिद्धि वा मोक्ष होने के लिये है, वह संन्यास मिथ्याभाव को प्राप्त होगा। क्योंकि ब्रह्मचर्याश्रम से ही जिसने संन्यास धारण किया, वह सन्तानों को उत्पन्न नहीं करेगा। और संन्यास आश्रम का प्रयोजन यही है कि जिससे परमार्थ में अच्छी गति हो। यदि बिना पुत्र के संन्यास धारण करने पर भी सुगति न हुई तो “ब्रह्मचर्याश्रम से ही विरक्त हो जावे” इत्यादि प्रकार के शास्त्र के वचन व्यर्थ हुए। और मनु जी ने भी बिना पुत्रों के सुगति होना स्पष्ट ही कहा है कि- ‘जिन्होंने कुल सन्तति अर्थात् पुत्रादि उत्पन्न नहीं किये, ऐसे सहस्रों क्वारे तपस्वी ब्राह्मण प्रकाशमय परमेश्वर को प्राप्त हुए- मुक्त हो गये।’१ इसी प्रकार जन्म से लेकर ब्रह्मचारी, सन्तति रहित भीष्म जी आदि महात्मा लोगों की सुगति होना इतिहासादि में प्रसिद्ध ही है। इस कारण बिना पुत्र के गति नहीं होती, इस वाक्य का अन्य ही प्रयोजन है, किन्तु जन्मान्तर में सुख देने से अभिप्राय नहीं कि पुत्रों वाले ही जन्मान्तर में सुख भोगें और निर्वंशी दुःख में ही पड़ें।

अब एक विचार यह भी है कि हम लोगों के जो पितादि मर गये हैं, उनके यदि योगाभ्यास और ईश्वर की उपासनादि शुभकर्म संचित हैं, कि जिनको उन्होंने अपने वर्तमान समय में संचित किया तो उन शुभकर्मों के फल से पितरों की सुगति अवश्य हो जायेगी, सो यह बात भगवद्गीता के छठे और दूसरे अध्याय में भी कही है कि- ‘हे अर्जुन ! अच्छे धर्मयुक्त कर्म करने वाला कोई पुरुष दुर्गति को प्राप्त नहीं होता। और थोड़ा भी धर्म का संचय किया हुआ बड़े प्रबल दुःख से बचा देता है।’२ इससे सिद्ध हुआ कि इस जन्म में परिश्रम से उपार्जन किया धर्म ही जन्मान्तर में सुख देता है। इस प्रकार धर्मात्मा होंगे तो हमारे पितादि अपने कर्मों से ही तर जायेंगे, उनके लिये श्राद्ध का फल पहुंचने की कल्पना करना व्यर्थ है। कदाचित् कोई मनुष्य धर्म करता हुआ भी दुर्गति को प्राप्त हो तो जिसको अपने ही कर्मों से सुख न मिला, तो वह पुत्रादि के किये श्राद्ध से सुख पा सकता है ? और जैसे धर्मात्मा दुर्गति को प्राप्त हो तो पापी भी सुगति को प्राप्त हो सकता है। यद्यपि यह असम्भव है कि धार्मिक दुःखी और अधर्मी सुखी रहें, तथापि इसका अभिप्राय यह ठीक होगा, कि जिसके पूर्व संचित पाप अधिक हैं, और वर्तमान का धर्म-सेवन उन पापों से अधिक प्रबल नहीं होता, तब तक धर्म करने पर भी वह दुःख भोगेगा और जिसका पूर्व संचित धर्म अधिक है, वह वर्तमान में पाप करने पर भी तब तक सुख भोगेगा कि जब तक पूर्व धर्म को दबाने वाला प्रबल पाप न बढ़ जावे। इस प्रकार धर्म का फल दुःख और अधर्म का सुख कदापि नहीं ठहर सकता। और कदाचित् कहीं ऐसा ही निश्चित जान पड़े कि उल्टा फल होता है, तो धर्म-अधर्म का लक्षण समझने की भूल माननी पड़ेगी अर्थात् जिसका परिणाम सुख हो वह धर्म और जिसका परिणाम वा फल दुःख हो, वही अधर्म है। क्योंकि अनेक लोग धर्माभास को भी धर्म मानकर उसके दुःख फल को धर्म का परिणाम ठहराने लगते हैं, यह उन लोगों का दोष है। इस प्रकार मरों को फल पहुंचाने के लिये श्राद्ध करना निष्फल है, क्योंकि जैसे नियतविपाक संचित धर्म का फल अवश्य मिलता है, उससे जैसे मरे हुए धर्मात्मा पिता के लिये श्राद्ध करना निष्फल हुआ वैसे निश्चित फल वाले अधर्म का भी दुःख फल अवश्य प्राप्त होगा, इससे वैसे ही अधर्मी पिता के लिये भी श्राद्ध करना निष्फल आता है। इससे मरों के निमित्त श्राद्ध न करना चाहिये, किन्तु जीवित ज्ञाननिष्ठ पितरों का श्राद्ध करना चाहिये।

निर्वंशी पुरुष की सुगति नहीं होती, इसका तात्पर्य यह है कि संसारी अर्थात् गृहाश्रम सेवने वाले मनुष्य को पुत्रादि उत्पन्न अवश्य करने चाहियें, यह आज्ञा भी शास्त्रों में है, इस आज्ञा के मुख्य कर दो ही प्रयोजन हैं। एक स्वार्थ और द्वितीय परमार्थ। उनमें स्वार्थ तो लोक में भी प्रसिद्ध है, जैसे- संसारी मनुष्य कहते हैं कि कोई सुपूत उत्पन्न हो तो बुढ़ापे में कमाई खवावेगा। अर्थात् भोजन-वस्त्रादि से हमको तृप्त करेगा। और कुपूत लोगों से पितादि की रक्षा होना तो दूर रही, किन्तु पितादि के नाम को कलटित करते और ताड़नादि द्वारा भी दुःख पहुंचाते हैं। इसी विचारानुसार पञ्चतन्त्रादि नीतिशास्त्रों में लिखा है कि- ‘पुत्र उत्पन्न नहीं हुए वा होकर मर गये अथवा मूर्ख हुए इन तीनों दशा में से पहली दो दशा अच्छी हैं, अर्थात् मूर्ख पुत्र की अपेक्षा उसका न होना वा होकर मर जाना अच्छा, क्योंकि उन दो का तो स्मरण आने पर दुःख होता, परन्तु मूर्ख पग-पग में दुःख देता है। सौ मूर्खों की अपेक्षा एक गुणी पुत्र अच्छा है। जैसे एक ही सुगन्धित पुष्पयुक्त वृक्ष से सब वाटिका शोभित वा सुगन्धित हो जाती है, वैसे एक भी पुत्र से कुल की शोभा वा सुख मिलता है।’१ इत्यादि नीति के वाक्यों का यही अभिप्राय है, कि जो कुल का दीपक एक ही सुपुत्र सब कुल को सुखी कर देता है, और उसी पुत्र के कारण उस कुल की विख्याति वा प्रतिष्ठा जगत् भर में हो जाती है, ऐसे पुत्र को उत्पन्न करने के लिये सब गृहस्थों को यत्न करना चाहिये। जैसा सुख सुपूती कुल वा पितादि को मिलता है, वैसा पुत्रहीन को कदापि नहीं मिल सकता। इसी से महाभारत उद्योगपर्व में कहा है कि- ‘पुत्र का आज्ञाकारी होना भी संसारी मनुष्य को एक बड़ा सुख है।’१ और वृद्धावस्था में प्रायः मनुष्यों की शक्ति भी कम हो जाती है, और शक्ति के जीर्ण हो जाने से ही वृद्ध कहाता है, उस समय अशक्त वृद्ध पुरुष अपने हाथ-पग आदि से अपने शरीर का भी सब काम नहीं चला सकते, तो धनादि का उपार्जन करना वा भोजनादि बनाना तो अति कठिन है। ऐसे अत्यन्त सामर्थ्यहीन होने के समय में पहले का संचित धनादि पदार्थ भी यदि निकट में नहीं है, तो अच्छे पुत्र अपने परिश्रम से धनादि का उपार्जन कर और भोजनादि देकर सब प्रकार की सेवा से पितादि की रक्षा करें, और जिन वृद्धों के समीप पहला संचित धनादि है, उनको भी भृत्यों से वैसा सुख नहीं मिल सकता कि जैसा घृणादि त्याग कर अपना पुत्र सुख दे सकता है। और लोक में जिनके पुत्र नहीं उनको मरते समय वृद्धावस्था में प्रायः अच्छी रीति से सुख नहीं मिलता। और जो कुछ धनादि ऐश्वर्य मनुष्य अपने जन्म भर में जोड़ता है, उसकी आगे रक्षा करने और कुल की परम्परा चलाने के लिये भी पुत्रों की आवश्यकता है, क्योंकि अन्य के धन से अन्य पुरुष उसके अभीष्ट ही कार्य नहीं करता, किन्तु सुपुत्र पिता के उपार्जन किये धन से पिता के अभीष्ट कार्यों को ही प्रायः सिद्ध करता है। अर्थात् कहीं-कहीं पिता के शत्रु से पुत्र बदला भी ले लेता है। इत्यादि प्रकार से पुत्र की उत्पत्ति मुख्य कर सज्जन पुरुष संसारी स्वार्थ अर्थात् अपने लिये धन प्रतिष्ठा वा सुख होने के लिये वा उन माता-पितादि का नाम चलने के लिये मानते हैं।

और परार्थ यह है कि- परमेश्वर ने धर्म की रक्षा और व्यवस्था करने वा मर्यादा और नियमों का पालन करने के लिये मनुष्य को बनाया है। इसीलिये नीतिकार ने कहा है कि- ‘भोजन करना, सोना, भय और मैथुन ये सब कर्म पशु और मनुष्यों में तुल्य हैं। परन्तु मनुष्यों में एक धर्म अधिक है, इससे जो मनुष्य   धर्म नहीं करता वह पशु के समान है।’२ इससे धर्माचरण करने वाले मनुष्य को चाहिये कि युवावस्था में ही मरण से पूर्व अपना प्रतिनिधि पुत्र को उत्पन्न कर देवे। परमेश्वर की सृष्टि में जैसे स्वयं धर्म का सेवन करता था वा करता है अर्थात् अपने घर से जिस-जिस का जैसा-जैसा उपकार करना प्रारम्भ किया हो वा जो-जो धर्मसम्बन्धी दानादि कर्म कुल की परम्परा से नियत चले आते हों, उन कर्मों का पिता ने भी जैसा सेवन किया हो वैसा ही करने के लिये पुत्र को शिक्षा करे, जिससे वृद्ध पिता के मर जाने पर भी उपकार सम्बन्धी कार्य वैसा ही निर्विघ्न चलता जावे।

‘गृहस्थ पुरुष मैथुन मात्र करता रहे और पुत्र न हों तो शोचनीय दशा है’१ इत्यादि प्रकार नीति के उपदेश से सूचित होता है, कि स्त्री सम्बन्ध रूप गृहाश्रम का पुत्रोत्पत्ति फल है, यदि गृहस्थ केवल मैथुन करे, किन्तु पुत्रोत्पत्ति की रीति न करे, तो उसका विवाह करना निरर्थक है और परमेश्वर ने जगत् की स्थिति से    धर्म बढ़ाने के लिये संसार को रचा है, यदि पुत्रों की उत्पत्ति का उपाय न किया जाय तो वृद्धों के मरते जाने और नवीन सन्तानों के उत्पन्न न होने से कभी सबका अभाव होना प्राप्त है, और ऐसा होना परमेश्वर की इच्छा से विरुद्ध है। इससे परमेश्वर का अभिप्राय है कि सन्तानोत्पत्ति मनुष्य को करनी चाहिये। जो ऐसा नहीं करता वह परमात्मा की आज्ञा को तोड़ने वाला है। ऐसा मानकर उसकी सुगति न हो, यह कह सकते हैं। इससे बिना पुत्र के गति नहीं, यह सामान्य प्रकार से सिद्ध हो गया। परन्तु कहीं विशेष दशा में जो ब्रह्मचर्याश्रम से ही बाल ब्रह्मचारी विरक्त हो जाते हैं, और वे गृहाश्रम भी नहीं करते। वे पुत्रों को उत्पन्न करके उतना उपकार नहीं कर सकते कि जितना जन्मभर ब्रह्मचर्याश्रम के साथ रहने वाले कर सकते हैं। इस कारण वे कुमारब्रह्मचारी निर्वंशी के दोष से दूषित नहीं होते। और वृद्धावस्था में गृहस्थ के तुल्य क्षीण न होने से शिथिल भी नहीं होते कि जिनको पुत्रों के बिना दुःख भोगने पड़ें। और युवावस्था में वे विरक्त धर्मोपदेशादि द्वारा बहुतों का बड़ा-बड़ा उपकार करते हैं। उनको प्रत्युपकाररूप सेवा करने वाले शिक्षित शिष्य वृद्धावस्था में मन, वाणी और शरीर से निरन्तर सेवा करके सन्तुष्ट करते हैं। इस प्रकार विद्या और धर्म के सम्बन्धी उनके अनेक शिष्य पुत्रवत् ही होते हैं।

अब श्राद्ध में पिण्डदान क्यों चला ? इस पर थोड़ा सा विचार लिखा जाता है- ‘चार पिण्ड प्रातःकाल और चार सायंकाल नियम पूर्वक खावें तो इसे शिशुचान्द्रायण कहेंगे।’१ इत्यादि मनुस्मृति के श्लोकों में ही पिण्ड शब्द ग्रास का पर्यायवाची माना गया है। पिण्ड शब्द के यथासम्भव अन्य भी अर्थ हो सकते हैं। तो भी श्राद्ध में ग्रास का पर्यायवाची लेना उपयोगी है। और चान्द्रायणादि व्रतों में ग्रास का लक्षण लड्डू के आकार का है। इसी प्रकार लड्डू आदि के समान बने हुए सब पेड़ा आदि मिठाई पिण्ड कहाते हैं। खीर आदि सर्वोत्तम स्वादिष्ट वस्तुओं से बनाये पिण्ड ज्ञानी पितृजनों के भोजन योग्य वस्तुओं में सर्वोत्तम होने से उपयोगी होते थे, ऐसा अनुमान होता है। पीछे जब मरों के लिये श्राद्ध करना किन्हीं लोगों न चलाया, तबसे पिण्डों की भी दुर्दशा होने लगी कि जो इस समय अधपिसे भूसी सहित केवल कच्चे जौ के ही प्रायः जैसे-तैसे दिये जाते हैं। कि जैसा घोड़ा, बैल आदि पशुओं को दाना देते हैं, क्या यह पिण्डों की थोड़ी दुर्दशा है ? ‘पितृ लोगों को पिण्ड देने चाहियें’२ इत्यादि प्रकार पुराने पुस्तकों के श्राद्ध प्रकरण में जहां-जहां लिखा है, उसका आशय यह है कि लड्डू पेड़ादि गोलरूप मिठाई भोजन समय में पितृ लोगों को देना चाहिये। इससे पीछे अविद्या के प्रभाव से मुख्य अभिप्राय न जानकर मरों के लिये पिण्ड देने चाहियें, ऐसी कल्पना किन्हीं लोगों ने की हो, ऐसा अनुमान होता है। सो यह मरों के लिये पिण्ड देने की कल्पना करना ठीक नहीं।

अथर्ववेद में भी तर्पण का विधान नहीं है। अर्थात् जो कोई लोग उस (ये जीवा०) मन्त्र से मृत पद को देखकर मरों का तर्पण निकालते हैं, उनको “जीवाः” पद को देखकर जीवितों का भी तर्पण निकालना चाहिये। यदि कोई कहे कि जीवा पद मृत शब्द का विशेषण है, तो उसके मत में समुच्चय अर्थ के लिये पढ़ा ‘चकार’ निरर्थक हो जायेगा अर्थात् समुच्चयार्थ पढ़े ‘चकार’ से स्पष्ट प्रतीत होता है कि मृता और जीवा भिन्न-भिन्न पद हैं। और सर्वनामवाची यत् शब्द के चार प्रयोग मन्त्र के पूर्वार्द्ध में ही पढ़े हैं। उनसे भी सबका पृथक् होना सूचित होता है। कथनमात्र कोई करे, किन्तु उक्त अथर्ववेद के मन्त्र का अर्थ मरे हुए पितरों के तर्पण पक्ष में यथावत् कोई नहीं घटा सकता। इस कारण इस मन्त्र से मरों के तर्पण का नाम भी नहीं निकलता, किन्तु संसार का उपकार करने वाली एक प्रकार की विद्या इससे निकलती है, उसका संक्षेप से व्याख्यान निम्न लिखित प्रकार जानो-

पदार्थ ये जीवाः= जो किसी प्रकार कष्ट के साथ अन्न-जलादि को पाकर प्राण का धारण करते और ये मृताः= जो अन्न-जलादि के न मिलने से मरते- प्राण छोड़ते वा छोड़ने को उद्यत होते हैं ये जाताः= जो शीघ्र प्रकट हुए थोड़ी अवस्था के पशु-पक्षी आदि के बच्चे वा अंकुररूप वृक्षादि = और ये यज्ञियाः= यज्ञकर्म में उपयुक्त होने वाले ओषधि, वनस्पति वा अन्नादि हैं तेभ्यः= उनके अच्छे प्रकार होने के लिये घृतस्य= जल की व्युन्दती= शीतलता गुण पहुंचाने वाली   मधुधारा= खारीपन आदि दोष रहित जिसकी मीठे स्वादिष्ट गुणकारी जलयुक्त   धारा हो ऐसी कुल्या= कृत्रिम बनावटी नदी-नहर एतु= प्राप्त हो, जिससे जगत् में सब चराचर प्राणियों की रक्षा हो।

भावार्थ जिस-जिस मरु आदि देश में जल नहीं मिलता वा बड़े कष्ट से मिलता है, उन-उन प्रदेशों में सुगमता से सर्वदोष रहित मीठा जल प्राप्त होने के लिये देशहितैषी धनाढ्य वा प्रजापालन में तत्पर राजपुरुषों को नवीन नदी-नहर निकालनी चाहिये, क्योंकि जल से ही सब चराचर की उत्पत्ति होना और स्थिति रहना सम्भव है। इसलिये सबसे ऊपर यह धर्मानुकूल कर्म है। इस प्रकार बड़े उपकारी धर्मसम्बन्धी कृत्य का इस मन्त्र में परमेश्वर ने उपदेश किया है। उसको छोड़कर अयुक्त निर्मूल अर्थ को प्रसिद्ध करने की चेष्टा करने वालों से विद्वान् लोग क्या कहेंगे ?

श्राद्ध में पूज्य देव और पितर कौन हैं ? श्राद्ध नित्य कर्म है वा नैमित्तिक ? : पण्डित भीमसेन शर्मा

श्राद्ध में पूज्य देव और पितर कौन हैं ? श्राद्ध नित्य कर्म है वा नैमित्तिक ?

अब पितर वा पितृ किसको कहते हैं ? इस बात का विचार किया जाता है। नीति में लिखा है कि- ‘उत्पादक, यज्ञोपवीत कराने वाला, विद्यादाता, अन्नदाता और भय से बचाने वाला, ये पांच पिता माने गये हैं।’१ इस प्रकार पितृ शब्द योगरूढ़ है और अपने उत्पादक पिता में रूढ़ि भी है। लौकिक लोग पिता शब्द कहने से उत्पादक से भिन्न को नहीं जानते। अन्य लौकिक व्यवहार में पिता शब्द से प्रकरणानुसार जनक, यज्ञोपवीत कराने, अन्न देने वा भय से बचाने वाले का ग्रहण होता है। परन्तु श्राद्ध कर्म में विशेष कर पितृ शब्द से विद्यादाता का ग्रहण होता है, और अपने-अपने उत्पादक पिता की सेवा-शुश्रूषा तो सबको सदैव करनी ही चाहिये। क्योंकि जो ऐसा नहीं करता, वह कृतघ्न अवश्य है। और ज्ञान वा विद्या देने वाले ज्ञानी पिता का भी भोजनादि से प्रतिदिन सत्कार करना चाहिये, वही श्राद्ध है। अपने जनक और अन्य यज्ञोपवीत कराने वाले आदि की जो सेवा है, उसको सामान्य प्रकार से तर्पण कहते हैं। श्राद्ध कर्म में पूजने योग्य दो ही हैं- पितृ और देव। जो पुरुष वाणी के कर्म में प्रवीण हैं, पढ़ाने और उपदेश करने में सदा प्रवृत्त अर्थात् पढ़ाने और उपदेशादि वाणी के कर्म द्वारा विद्या का प्रचार करके जगत् का उपकार करने के लिये प्रतिक्षण प्रवृत्त हों, वे देवता कहाते हैं। इसी प्रसग् पर यह भी कहना अनुचित नहीं कि वाक्, वाणी, सरस्वती, विद्या ये शब्द एकार्थक हैं, तो प्रशस्त विद्यावान् लोगों को देव मानना ठीक सिद्धान्त है। और जो मानसकर्म ज्ञान में सदा रमण करते, अपने मन ही मन में शुद्ध आनन्द की लहरियों का अनुभव करते हैं। सदा अच्छे-बुरे का विवेक करते हैं। बहुत कम नियम से बोलते वा वाणी को वश में करके मौन रहते हैं। जिस-जिस विषय पर सम्यक् अनुभव कर लेते हैं कि जिसके प्रचार से जगत् का ठीक-ठीक उपकार हो सकता है। उसी विषय को पुस्तकादि द्वारा सरल कर प्रचलित करते हैं, वे पितर हैं ‘वेदविद्या का दान देने से आचार्य- गुरु को पिता कहते हैं। अज्ञानी को बालक और ज्ञानी को पिता कहते हैं।’२ इत्यादि मनु जी के प्रमाणों से पूर्व का कथन सिद्ध होता है। शतपथ ब्राह्मण में भी स्पष्ट लिखा है३ कि- ‘जिनमें वाणी के कठोर, मिथ्याभाषण, चुगली और असम्बद्ध बोलनारूप चार दोष न हों, किन्तु सत्यबोलना, हितकारी वाक्य बोलने, प्रियवाणी बोलना और वेदादिशास्त्र पढ़ना इन्हीं चार प्रसगें में वाणी का व्यय करना, किन्तु क्रोधादि पूर्वक नहीं बोलना ये गुण जिनमें हो वे देव हैं। और मानस विचार में तत्पर रहें अर्थात् मन के तीन [अन्य के वस्तु को लेने की तृष्णा, दूसरों का अनिष्ट विचार, और व्यर्थ असम्भव विचार ये] दोष जिनमें न हों तथा मानस तीन गुण- सब प्राणियों पर दया, निरपेक्षा वा सन्तोष और शुभकर्मों वा परमात्मा की उपासनादि में श्रद्धाभक्ति जिनमें विशेष कर हों वे पितर कहाते हैं।’ सारांश यह है कि वाचिक पापों से रहित और वाचिक पुण्य करने में विशेष कर प्रवृत्त देव, और मानस पापों से रहित, मानस पुण्य करने में अधिक कर प्रवृत्त पितृ कहाते हैं। जिनकी वाणी सब प्रकार शुद्ध है, वे देव और जिनका मन सब प्रकार शुद्ध है, वे पितृ लोग कहाते हैं। मानस विचार की रक्षा वाणी से होती है, इसी अभिप्राय से पितृ कार्य का रक्षक देवकार्य को माना है। तथा देव को ऋषि और पितृ को मुनि भी उक्त विचारानुसार कह सकते हैं। जहां देव, ऋषि, पितृ, सब आते हैं, वहां ऋषि पद वाच्य ब्रह्मचर्याश्रमस्थ वेदाध्येता तपस्वी अन्तेवासी शिष्य लिये जावेंगे इत्यादि। इसी विचार को पुष्ट करने के लिये तृतीयाध्याय के श्राद्धप्रकरण में मनु जी ने स्वयमेव कहा है कि- ‘जिनमें सत्त्वगुण की प्रधानता होने से बुद्धिवर्द्धक तथा खाने योग्य हों, वे कव्यपदार्थ प्रयत्न के साथ ज्ञानियों को खवाने चाहियें। और होमने योग्य वस्तु चारों प्रकार के विद्वानों को खवाने चाहियें।’१ इसी कारण उपनिषदों में भी ‘आत्मज्ञानी की पूजा करें’२ ऐसा लिखा है। इससे भी ज्ञानी लोगों का ही सत्कार आता है। सत्य-असत्य का विवेक करने वाले ज्ञानी जनों की जो लोग सम्यक् श्रद्धा, भक्ति से सेवा करते हैं, वे उन सेवकों पर प्रसन्न होकर कल्याण करने के लिये मन लगाते हैं। और श्रेष्ठमार्ग का उपदेश करते वा संकेतमात्र से जता देते हैं कि यह काम ऐसे करना चाहिये और यह न करना चाहिये। इसी कारण ज्ञाननिष्ठ पितृजनों के सेवक भी कल्याणभागी होते हैं। इसी से ज्ञानयुक्त पितृजनों की अन्नादि दान से श्रद्धापूर्वक सेवा-शुश्रूषा करनी चाहिये। सब सत्कारों में भोजनार्थ अन्न से सत्कार करना ही सबमें मुख्य है। क्योंकि वेद का सिद्धान्त है कि ‘प्राणियों का प्राण अन्न के ही आश्रय है।’३ और भोजन से ही इस शरीर की उत्पत्ति, स्थिति और नाश हो सकता है। सात्त्विक- सत्त्वगुण का बढ़ाने वाला आहार मिलने पर शरीर नीरोग और सत्त्वगुण वाली प्रबल बुद्धि होती है, इसी से धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की सिद्धि है। वस्त्र और भूषण आदि सुख के साधनों के न मिलने पर भी केवल अन्न और जल के आश्रय से शरीर ठहर सकता है, परन्तु अन्न-जल न मिलने पर लाखों रुपये वा सब पृथिवी का राज्य मिल जाने पर भी शरीर की स्थिति नहीं रह सकती। इससे तर्पण और श्राद्ध में अन्न-जलों से सत्कार करना मुख्य है। पूर्वकाल से श्रेष्ठ लोगों की भी यही परिपाटी चली आती है [अब थोड़े दिनों से कुछ परम्परा बिगड़ी है कि मरे हुओं के नाम से पिण्ड देने लगे और इस अंश को प्रायः आर्षपुस्तकों में भी मिला दिया] इसलिये भोजन से मुख्य कर सबको ज्ञानी पितृ लोगों का श्राद्ध करना अत्यन्त उचित है।

अब यह विचार किया जाता है कि श्राद्ध भी नित्यकर्म है वा नैमित्तिक ? इसका उत्तर यह है कि दोनों प्रकार का हो सकता है। जैसे मनुष्य को नित्य श्राद्ध करना चाहिये, यह विधि- आज्ञा है। सो मनुस्मृति में ही लिखा है कि- ‘नित्य अन्न, जल, दूध वा खीर, फल और कन्द मूलों से पितृ- नाम ज्ञानी पुरुषों का प्रीतिपूर्वक श्रद्धा से सत्कार करे।’१ (यहां नित्यकर्म श्राद्ध के विधान में भोजन के पदार्थ गिनाये हैं। इनमें मांस अभक्ष्य होने से नहीं रखा गया। इसी से अन्यत्र जहां-जहां मांस का प्रयोग श्राद्ध में लिखा है, वहां-वहां सर्वत्र प्रक्षिप्त जानो) तथा पञ्च महायज्ञ सामान्य कर नित्यकर्म हैं, उनके अन्तर्गत होने से भी श्राद्ध नित्यकर्म सिद्ध होता है, यह सब कथन उत्सर्गरूप से है।

और अपवादरूप से श्राद्ध नैमित्तिक भी है। अर्थात् जो कोई प्रतिदिन भोजनादि सत्कार के साधनों के न मिल सकने से श्राद्ध नहीं कर सकता। अथवा जिसको सत्कार के योग्य पितृजन नित्य-नित्य नहीं प्राप्त होते, उसको साधनों के मिलने और पूज्य पितृजनों की प्राप्ति होने पर श्राद्ध करना चाहिये [पूजा के योग्य पितृ कहने से किन्हीं अवस्था में बड़ों का ग्रहण नहीं समझना क्योंकि- “अज्ञो भवति वै बालः पिता भवति मन्त्रदः” इस कथन से सिद्ध है कि ज्ञानवृद्ध का नाम पिता है, किन्तु अवस्थावृद्ध का नाम नहीं]। नैमित्तिक श्राद्ध के लिये कोई समय भी नियत करना चाहिये। इसीलिये हमारे पूर्वजों ने नैमित्तिक श्राद्ध के लिये समय नियत किया था, ऐसा अनुमान होता है। इसी कारण “श्राद्धे शरदः इस पाणिनीय सूत्र की व्यवस्था ठीक लग जाती है। इस सूत्र का आशय यह है कि ऋतुवाचक शरद् शब्द से श्राद्ध अर्थ में ठञ् प्रत्यय होता है। यद्यपि शरद् ऋतु में अनेक सामान्य वा विशेष कार्य होते हैं, तथापि शरद् ऋतु में हुए वा होने वाले श्राद्ध का ही नाम शारदिक पड़ेगा, शरद् ऋतु के अन्य कामों को शारद कहेंगे। परन्तु इस कथन से यह तात्पर्य नहीं है कि शरद् ऋतु में ही श्राद्ध किया जाये अन्य में न किया जाय वा अन्य ऋतु में श्राद्ध नहीं होता। किन्तु अभिप्राय केवल यह है कि अन्य ऋतु वाचक शब्दों से ठञ् न हो, किन्तु अण् ही हो तिससे “शैशिरं श्राद्धम्” ऐसा भी कह सकते हैं। और किसी अपवाद सूत्र से किसी प्रयोजन से विशेष कर प्रत्यय का विधान करना उस वस्तु, कर्म वा भाव का किसी विशेष समय में अधिक प्रचार होना सूचित करता है। जैसे शरद् ऋतु में रोग और सूर्य के तेज की विशेषता होती है। इसी कारण शरद् शब्द से “विभाषा रोगातपयोः” इस पाणिनीय सूत्र द्वारा विशेष प्रत्यय का विधान किया जाता है। वैसे ही यहां भी शरद् ऋतु में नैमित्तिक श्राद्ध की विशेषता अनुमान से जाननी चाहिये। साधनों के ठीक-ठीक न मिलने आदि पर श्राद्ध का नैमित्तिक करना कहा गया है। वे भोजन करने योग्य वस्तु सर्वोपरि उत्तम पदार्थ दूध से बनते अर्थात् खोया के पेड़ा, बरफी और रबड़ी, खीर आदि अनेक प्रकार के मीठे वा दही, मठा, शिखरन आदि वस्तु सब दूध से बनते हैं। और वर्षा ऋतु के होने से गौ आदि पशुओं के भोजन घासादि मुख्य कर उसी समय वा उससे कुछ पहले अवश्य उत्पन्न होते और पशुओं के भक्ष्य घासादि की अधिकता से दूध अधिकतर उत्पन्न होता है इस कारण खीर आदि वस्तु सुगमता से प्राप्त हो सकते हैं और श्राद्ध में खीर आदि पुष्ट वस्तुओं का प्रायः विधान किया है। और अन्नों के बीच उत्तम चावल मुख्य माने गये हैं, वे भी वर्षा की अधिकता से शरद् ऋतु में ही उत्पन्न होते हैं। इसी कारण क्वार के महीने में पूर्वकाल से नैमित्तिक श्राद्ध की परिपाटी चलाई गई थी। और वह सत्य परम्परा अब नष्ट हो गयी अर्थात् वह श्राद्ध जिस उद्देश से पहले चलाया गया था, वैसा उद्देश अब नहीं रहा। अब कोई वैसे ज्ञानी लोगों को श्राद्ध के लिये न खोजता और न परीक्षा करता और न उसके मुख्य प्रयोजन को समझ कर श्राद्ध करता, किन्तु अब विपरीत अधिक कर होता है। परन्तु सत्पुरुष आर्य अर्थात् ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्यों को उचित है कि पूर्वोक्त प्रकार से फिर सत्य परम्परा का प्रचार करें। जो लोग उक्त कारण से नित्य श्राद्ध नहीं कर सकते, उनके लिये नैमित्तिक श्राद्ध का समय विशेष नियत करना चाहिये, यह कह चुके हैं। सो इसकी अत्यन्त आवश्यकता इसलिये भी है कि अन्य भी जिन-जिन कार्यों का समय नियत किया जाता है, वे ही काम यथार्थरूप से वा जिस किसी प्रकार अवश्य होते हैं। अर्थात् मनुष्य में प्रायः कुछ गुण ऐसे लगे हैं कि वह अधर्म की ओर तो शीघ्र झुक जाता वा ऐसे कामों में शीघ्र लग जाता है, जिनसे उसको प्रत्यक्ष कुछ स्वार्थसिद्धि दीखती है। ऐसे काम     अधिकांश में मुख्य धर्मसम्बन्धी नहीं हैं। तात्पर्य यह है कि ऐसे कामों का समय नियत न किया जाय, तब भी वह प्रायः कर सकता है। परन्तु जो मुख्य धर्म- सम्बन्धी काम हैं वा जिनका स्वार्थ प्रत्यक्ष नहीं दीखता वा जिन कार्यों के सिद्ध होने में अत्यन्त परिश्रम की अपेक्षा है, उन कार्यों के करने से प्रायः बचता रहता है। और बहुत से कार्यों की मरण पर्यन्त इच्छा ही करता रहता है, पर कुछ भी नहीं कर पाता, इसलिये मुख्य वा सर्वोत्तम धर्मसम्बन्धी कार्यों के करने का यदि समय नियत हो तो लोकलज्जादि से तो भी कुछ करने पड़ता है। और नियत समय पर प्रायः आलस्य स्वयं दूर हो जाता है। यह बात लोक में दीख भी पड़ती है कि अनेक मनुष्य लोकलज्जादि के कारण अनेक दुष्कर्मों से बच जाते और जिन शुभ कामों का समय नियत है, ऐसे अनेक काम लोकलज्जा वा देखा-देखी अवश्य करने पड़ते हैं। परन्तु जिन कर्त्तव्य शुभकामों का कोई समय ही नियत नहीं है, उनको प्रायः लोग आलस्यादि के वश होने से नहीं कर पाते। आजकल में अमुक कार्य करेंगे, इस प्रकार कहते-कहते ही काल आकर घेर लेता है। उस समय शोकरूप समुद्र में गोता लगाते हैं। इसलिये यदि पूर्वज लोगों के नियत किये नैमित्तिक श्राद्ध के शरद्ऋतु वा अमावास्यादि समय किसी प्रकार दोषयुक्त ठहरें [अर्थात् जिस कार्य की परिपाटी मुख्य उद्देश्य को छोड़कर अन्यथा हो जाती है, वे कार्य वा उनके समय शिष्ट लोगों में प्रायः दूषित समझे जाते हैं, क्योंकि उन समयों में प्रायः उसी परिपाटी वालों में समझे जाने सम्भव हैं। जैसे विष्णु के भक्त वैष्णव वा ब्रह्म के उपासक ब्राह्म इत्यादि शब्द अच्छे हैं, पर वे एक-एक मत विशेष के साथ प्रचरित हो जाने से दूषित हो गये, इसी कारण आर्य लोग अपने को ब्राह्म, वैष्णव वा शैवादि नामों से न लिख सकते और न कहकर प्रसिद्ध कर सकते हैं, इसी प्रकार यदि अशिष्ट वा अन्धपरम्परा ग्रस्त लोगों से परिगृहीत होने से समय दूषित समझा जावे] तो आर्य लोगों को अन्य कोई समय नियत करना चाहिये कि अमुक-अमुक समय में हम लोगों को नैमित्तिक श्राद्ध कर्त्तव्य है। उस नियत समय पर पूर्व से ही पूज्य पितृजनों का बुलाना और भोजन की सामग्री का जोड़ना उचित है और इसी प्रकार अनेक लोग करते भी हैं, तो भी आर्य लोगों को विशेष कर शुभकर्म का प्रचार करने के लिये [कि जो कर्म अज्ञान से विपरीत भाव को प्राप्त हो गये हैं, उनसे हानि ही होती है उन] श्राद्धादि कर्मों को नियत-नियत समय पर सत्य उद्देश्य के साथ विशेष कर प्रवृत्त करना चाहिये, यही सर्वसाधारण के सुधार का उदाहरण हो जायेगा। ऐसा करने से ही विपरीत कर्मों की निवृत्ति हो सकती है। किन्तु विरुद्ध चाल के खण्डन मात्र से निवृत्ति होना दुस्तर है। इसलिये साधन और समय के अनुसार अन्नादि सामग्री से श्रद्धा भक्ति पूर्वक विवेकी लोगों का सेवनरूप श्राद्ध आस्तिक सज्जन लोगों को अवश्य करना चाहिये, यही मुख्य सिद्धान्त है।

पञ्च महायज्ञ और श्राद्ध-तर्पण का विशेष विचार : पण्डित भीमसेन शर्मा

पञ्च महायज्ञ और श्राद्ध-तर्पण का विशेष विचार

अब पञ्च महायज्ञों में से तर्पण वा श्राद्ध पर विशेष विचार किया जाता है। “विशेष कर गृहस्थ पुरुष को पांच काम प्रतिदिन ऐसे करने पड़ते हैं कि जिनसे दोष लगते रहते हैं। जैसे एक प्रतिदिन चूल्हा जलने से ईंधन वा पृथिवी के अनेक जन्तु जलते, द्वितीय चक्की पीसने वा पिसवाने से अनेक जन्तु अन्न के साथ पिस जाते, तीसरे मार्जनी (झाडू) द्वारा अनेक कोमल छोटे जन्तु मरते, चौथे ऊखली-मूसल से कूटने द्वारा अनेक मरते और पांचवें जलपात्र- घड़े आदि जहां रखे रहते हैं, उनके नीचे शीतलप्रदेश चाहने वाले प्रायः जन्तु आ ठहरते और घड़ादि के ढुरने से मारे जाते हैं। ये कार्य प्रायः गृहस्थों को करने पड़ते हैं। इनके करने बिना नहीं बच सकते और जब करने पड़ते हैं, तो जीव-जन्तुओं के प्रत्येक पदार्थ में रहने से हानि वा हिंसा भी होती है। इसी कारण गृहस्थों को दोष भी अवश्य लगते हैं। इसलिये उस दोष के बदले गृहस्थों को कुछ पुण्य भी नियमपूर्वक अवश्य करने चाहियें, उसी पुण्यरूप कर्म को प्रायश्चित्त भी कह सकते हैं, क्योंकि ईश्वर की सृष्टि में कुछ किसी का अपकार हो जावे, तो उसको उसके बदले में प्रत्युपकार भी करना चाहिये। इस कारण ऋषि लोगों ने वेद का आशय लेकर पञ्च महायज्ञों की व्याख्या कर स्पष्ट किया है कि इनको इस कारण और इस-इस प्रकार सब गृहस्थ लोग प्रतिदिन किया करें।’१ इत्यादि प्रकार से तृतीयाध्यायादि में पञ्च महायज्ञों का प्रयोजन सहित व्याख्यान मनु जी ने स्वयमेव किया है।

अध्यापन अर्थात् पढ़ाने का नाम ब्रह्मयज्ञ है। ऐसे प्रसग् में पढ़ाने के अन्तर्गत पढ़ना भी आ जाता है, क्योंकि पढ़ना होने पर ही पढ़ाना बन सकता है। और पढ़ने के अन्तर्गत सन्ध्याकर्म भी आ जाता है, क्योंकि सन्ध्या में गायत्री का पढ़ना ही मुख्य कर्म है। इसीलिये सन्ध्या के प्रसग् में मनुस्मृति में लिखा है कि- ‘एकान्त वन आदि में जाकर सावित्री को पढ़’२े। इस सब कथन से स्वाध्याय का नाम ब्रह्मयज्ञ ठहरता है कि नित्य नियम से जिस-जिस वेद भाग का पढ़ना-पढ़ाना वा जप-पाठ आदि करना हो, वह सब स्वाध्याय तथा ब्रह्मयज्ञ कहाता है।

द्वितीय तर्पण नामक पितृयज्ञ है। उसी का अवान्तर भेद श्राद्ध है। अग्निहोत्र- देवयज्ञ कहाता है, वैश्वदेव- भूतयज्ञ और अतिथिपूजन- नृयज्ञ कहाता है। और यज्ञ शब्द के अनेक अर्थ हैं। ब्रह्म- अर्थात् वेद सम्बन्धिनी विद्या वा परमेश्वर की प्राप्ति जिस द्वारा की जाती है, वह ब्रह्मयज्ञ, पितृ- नाम सदसद्विवेकी, ज्ञानी पुरुषों की पूजा, सत्कार जिस द्वारा किया जाय, वह पितृयज्ञ, देव- नाम सर्वोत्तम गुण सबके लिये जिस द्वारा पहुंचाये जावें, वह देवयज्ञ अथवा परमेश्वर की आज्ञा पालन द्वारा देव- नाम परमात्मा का पूजन जिससे किया जाय वह अग्निहोत्र देवयज्ञ। भूत- नाम पशु, पक्षी, कीट, पतगदि जन्तुओं का सत्कार जिस द्वारा किया जाय, वह भूतयज्ञ, बलिवैश्वदेव कहाता है। और नर- नाम उपदेशादि द्वारा सबको ठीक मार्ग पर चलाने वाले अकस्मात् उपस्थित हुए अर्थात् भोजन के समय आये मनुष्यों का सत्कार जिससे किया जाता है, वह नृयज्ञ कहाता है। ये पञ्च महायज्ञों के नामार्थ वा शब्दसम्बन्धी अर्थ हैं।

जिस किसी प्रकार अन्य प्राणियों को सुख पहुँचाना धर्म कहाता है। इसी अर्थ से पञ्च महायज्ञ भी धर्म का संचय कराने वाले होने से धर्म शब्द के अर्थ हो सकते हैं। और जब ये धर्म हैं तो अधर्म की निवृत्ति भी किसी प्रकार हो सकती है। यद्यपि पञ्च महायज्ञ ओषधि से रोग की निवृत्ति होने के समान चूल्हादि से होने वाले हिंसारूप दोषों के निवर्त्तक होने सम्भव नहीं। तो भी हिंसा रूप दोष से होने वाले अपराध का प्रतिपक्षी- विरोधी पञ्च महायज्ञ से होने वाला पुण्य फल हो सकता है। अर्थात् जीवहिंसा का दुःख फल है और पञ्च महायज्ञों के अनुष्ठान का सुख फल होगा। सुख से दुःख की निवृत्ति होती ही है। तथा जैसे बुरे कर्म का फल दुःख मिलता है, वैसे अच्छे कर्म का सुख फल हो। वा जैसे भूख-प्यास से होने वाले दुःख की निवृत्ति अन्न-जलादि से होती है, तब सुख उत्पन्न हो जाता है। यह भी एक प्रकार का प्रायश्चित्त है, अर्थात् वैसे ही पञ्च महायज्ञ के सेवन से पुण्य फल का उदय होकर दुःख का नाश होता है। जैसे दुःख भोगने से शरीर, इन्द्रिय, आत्मा और अन्तःकरण व्याकुल वा निर्बल हो जाते हैं, वैसे ही सुख मिलने पर हृष्ट-पुष्ट हो जाते हैं, यह भी एक प्रकार से दुःख-निवृत्ति का उपाय है। इस प्रकार पञ्च महायज्ञ वा सब सुकृत- पुण्य कर्म दुःख को हटाने वाले हो सकते हैं। तथा अनेक अन्न-जलादि सुख के साधनों के उपार्जनरूप प्रयत्न वा उपाय दुःख हटाने के लिये ही प्रतिदिन मनुष्य करता है। वैसे ही पञ्च महायज्ञ भी प्रतिदिन सेवन करने योग्य हैं। जैसे- ब्रह्मचर्य के सेवन से मानस, वाचिक दुष्कर्म से होने वाले दुःख की वासनारूप जड़ पहले ही कट जाती है। पीछे उन (जिनका फल होना निश्चित नहीं जो ओषधि करने से रोग के समान साध्य हैं ऐसे) संचित कर्मों का नाश हो जाने से दुःख भी उत्पन्न नहीं होता। तथा पितृनामक ज्ञानियों के सेवन करने से ज्ञानी लोग अनियतविपाक संचित दुष्ट कर्मों की निवृत्ति का उपाय दिखाते हैं। आगे होने वाले आचरणों को उपदेश से सुधार देते हैं, उससे दुष्ट कर्म नहीं करता, जिनका फल दुःख हो। इस प्रकार अन्य भी महायज्ञ दुःख के हटाने में हेतु हैं। गृहस्थ पुरुष को उचित है कि आलस्य, निद्रा और प्रमादादि को छोड़कर उनका सेवन करे। यह संक्षेप से सामान्य पञ्चयज्ञों का विचार है।

अब पितृयज्ञ के दो भेद हैं- तर्पण और श्राद्ध। उनमें तर्पण सामान्य कर भूख-प्यास आदि से होने वाले दुःख की निवृत्तिरूप तृप्ति वा प्रसन्नता, मन में पूरा सन्तोष वा आनन्दरूप माना जाता है। और श्राद्ध नाम कर्मविशेष का है कि जिस कर्म के द्वारा अन्न से तृप्त हुए जन क्षुधा से होने वाले दुःख से निवृत्त होते हैं। श्रद्धा से जिस कारण दिया जाता है, इसलिये इस पितृसम्बन्धी दानकर्म को श्राद्ध कहते हैं। अथवा श्रद्धा पूर्वक दिये जाने वाले अन्न का नाम भी श्राद्ध हो सकता है। इसी अर्थ से श्राद्धभोजी शब्द सार्थक बन जाता है कि श्राद्ध-नाम श्रद्धापूर्वक बनाये अन्न का खाने वाला। तथा इसी विचार के अनुसार पाणिनीय सूत्र ‘श्राद्धमनेन भुक्तमिनिठनौ’ घट जाता है कि जिसने श्राद्ध का भोजन किया हो, वह श्राद्धी वा श्राद्धिक कहावेगा। यहां भक्ति श्रद्धा से पकाये हुए अन्न का नाम श्राद्ध है। इसी प्रमाण से श्राद्ध शब्द भोजन से होने वाले सत्काररूप कर्म का नाम है, यह निश्चित होता है। अन्यत्र भी जहां-जहां श्रेष्ठ लोगों के बनाये वा माननीय पुस्तकों में श्राद्ध शब्द की व्याख्या दीख पड़ती है, वहां भी भोजन का ही प्रकरण है। लौकिक परिपाटी से भी भोजन सम्बन्धी सत्कार कर्म में श्राद्ध शब्द प्राप्त होता है। अनेक मनुष्य किसी नियत दिन जब किन्हीं ब्राह्मणों को भोजन कराते हैं, तब कहते हैं कि आज हमारे घर में श्राद्ध है। किन्तु वे लोग पिण्ड आदि नहीं करते, केवल भोजन कराने का नाम भी श्राद्ध बोलते हैं। इससे सिद्ध हुआ कि भोजन से होने वाले सत्कार कर्म और उस सत्कार के लिये श्रद्धा से बनाये अन्न का नाम श्राद्ध है, यही सत्य सिद्धान्त है।

विवाह, नियोग और पुनर्विवाहों का विचार : पण्डित भीमसेन शर्मा

विवाह, नियोग और पुनर्विवाहों का विचार

अब गृहाश्रम के प्रसग् में विवाह, नियोग और पुनर्विवाहों का विचार किया जाता है कि इस विषय में मानवधर्मशास्त्र का क्या सिद्धान्त है ? ब्रह्मचर्य आश्रम सेवन के पश्चात् मनुष्य को गृहाश्रम का प्रारम्भ करना चाहिये। उसमें विवाह करना ही गृहाश्रम का मुख्य स्वरूप है। इसी कारण गृह नाम स्त्री के समीप रहने वाला गृहस्थ कहाता है। यदि गृहस्थ शब्द का यह अर्थ माना जावे कि जो गृह नाम घर में रहे वह गृहस्थ है, तो ब्रह्मचारी और वानप्रस्थ भी किसी प्रकार के घर में ही ठहरते हैं, तो उनकी भी गृहस्थ संज्ञा होनी चाहिये। अथवा यदि संन्यासी भी किसी के घर में ठहरा हो तो उसका भी गृहस्थ नाम पड़ना चाहिये। अथवा जिन-जिन के स्त्री नहीं और वे किसी घर में रहते हैं, तो गृहस्थ कहाने चाहियें। पर ऐसी परिपाटी लोक में नहीं है। इस कारण गृह शब्द स्त्री का पर्यायवाचक रखना चाहिये कि जो गृह नाम स्त्री के समीप ठहरे वह गृहस्थ वही गृहाश्रमी भी है। और स्त्री के साथ सम्बन्ध वा मेल होना ही विवाह है। अर्थात् स्त्री उसको अपना पति चित्त से मान ले और पुरुष उस स्त्री को अपनी पत्नी चित्त से मान ले इस प्रकार उन दोनों का परस्पर मन, वाणी और शरीर से सम्बन्ध होना, विवाह पद का अर्थ है। यदि मण्डप रचना पूर्वक कन्या के घर में जो वेदोक्त क्रिया होती अर्थात् मन्त्र पढ़ते वा होमादि करते हैं, उसका नाम विवाह मान लें, तो गान्धर्व, राक्षस और पैशाच विवाहों का नाम विवाह नहीं पड़ेगा क्योंकि उनमें वैदिक मग्लाचरण वा शिष्ट लोगों का स्वीकृत व्यवहार प्रायः नहीं होता। इसीलिये वे निन्दित विवाह माने गये हैं। परन्तु क्षत्रियों में पहले से ही गान्धर्व विवाह की कुछ-कुछ प्रवृत्ति चली आती है। और गान्धर्व विवाह में प्रायः स्त्री-पुरुषों का संयोग पहले ही हो जाता है, और पीछे विवाह का कृत्य अर्थात् कुछ शिष्ट व्यवहार भी होता है। इसमें विवाह की प्रसिद्धि करने से पूर्व प्रायः स्त्री-पुरुषों का संयोग हो जाता है, इसी कारण श्रेष्ठ लोगों में इसकी निन्दा है। यही चाल आजकल इग्लेण्डदेशवासियों में है, कि कन्या और वर की इच्छा से पहले संयोग भी हो जाता है। विवाह में वैदिकप्रक्रिया मन्त्रपाठ वा होमादि करने और अनेक सज्जन पुरुषों के सामने प्रतिज्ञा पढ़े जाने का यही प्रयोजन है, कि एक तो सर्वसाधारण को प्रकट हो जावे, कि अमुक का पुत्र और अमुक की कन्या का विवाह हो गया और द्वितीय उन कन्या वरों की प्रतिज्ञा के अनेक सज्जन लोग साक्षी हो जावें, कि प्रतिज्ञा से विरुद्ध चलने में उन दोनों को भय रहे कि हमको वे लोग धिक्कार देंगे। और तृतीय ऐसे बड़े आजन्म सम्बन्ध होने के प्रारम्भ में सर्वशक्तिमान् परमेश्वर की स्तुति, प्रार्थना करना, कि वह सबका स्वामी सदा हमको धर्म पर चलने की प्रेरणा करे इत्यादि प्रयोजनों के लिये मग्लाचरणरूप वेदी पर कृत्य अवश्य करना चाहिये, पर उस कृत्य का नाम विवाह नहीं है। इसी कारण यदि वेदीमात्र का कृत्य होकर कन्या वर पृथक्-पृथक् हो जावें और फिर उनका मैथुन संयोग होने से पूर्व ही पुरुष का शरीर छूट जावे तो वह कन्या धर्मशास्त्रानुकूल विधवा नहीं मानी जा सकती और ऐसी दशा में उस पुरुष के मर जाने पर उस कन्या का फिर से वेदोक्तरीति का विवाह हो सकता है पर लोक में इससे विरुद्ध चाल पड़ गयी है कि वेदी पर के कृत्य को ही पूरा विवाह समझ लेते हैं, और उस कृत्य के पश्चात् पुरुष के मर जाने से कन्या को विधवा मानकर बैठाल रखते हैं। इसका बड़ा कारण अविद्या है। इस विषय का जिनको विशेष व्याख्यान देखना हो वे “विवाहव्यवस्था” नामक पुस्तक में देखें। इस प्रकरण में तात्पर्य यही है कि वेदी पर जो वेदोक्त मग्लाचरण होता है वह स्वयं विवाह नहीं किन्तु विवाह की प्रसिद्धि प्रार्थना और प्रतिज्ञा होने के लिये है और विवाह का पूर्वरूप है जैसे ज्वर के पूर्वरूप को कोई ज्वर माने वा कहे तो सर्वथा विरुद्ध वा हानिकारक नहीं, वैसे यहां नहीं घटता क्योंकि विवाह शब्द का अर्थ पतिपत्नीभाव से स्त्री-पुरुष का संयोगमात्र न माना जावे तो गान्धर्वादि को विवाह नहीं कह सकते। इसलिये विवाहशब्द का उक्तार्थ ही ठीक है। इसी अर्थ से द्वीपान्तर निवासियों के सम्बन्ध को भी विवाह कह सकते हैं। इस लेख से मेरा यह प्रयोजन नहीं है कि ब्राह्मादि श्रेष्ठ विवाहों में वैदिक मग्लाचरण करना विशेष प्रयोजनीय नहीं, किन्तु आशय यह है कि ब्राह्म आदि शिष्ट विवाह हैं, और जिनमें वेदोक्तक्रिया नहीं होती, वे नीच लोगों के विवाह हैं। इससे ब्राह्मादि उत्तम हैं। और ब्राह्मणादि वर्णों को वैसे ही करना चाहिये। पर वेदी की क्रिया मात्र को विवाह समझ लेने से ही अनेक कन्या निरपराध विधवा मानकर बैठा रखी हैं, यही बड़ी हानि है, यदि विवाह का ठीक अर्थ समझ लें तो जिनका पुरुष से संयोग नहीं हुआ वे कन्या वास्तव में विधवा नहीं। उनका विवाह भी नहीं हुआ तो अब उनका ठीक विवाह निःसन्देह कर देना चाहिये यही मेरा प्रयोजन है।

विवाह के आठ भेद हैं, अर्थात् मनुष्य जाति भर में आठ प्रकार के ही विवाह माने जा सकते हैं। उनके नाम ब्राह्म, दैव आदि हैं। इनका विशेष व्याख्यान वहीं तृतीयाध्याय के भाष्य में होगा। परन्तु इस प्रसग् में इतनी शटा हो सकती है कि स्वयंवर विवाह कौन है ? इसका उत्तर यह है कि स्वयंवर इन आठ से भिन्न कोई विवाह नहीं, किन्तु मुख्यकर प्राजापत्य के अन्तर्गत आ सकता है, क्योंकि उसमें कन्या-वर दोनों परस्पर पहले प्रतिज्ञा कर लें, कि हम दोनों परस्पर प्रसन्न हैं, गृहाश्रम में धर्म करेंगे, ऐसा वाणी से कहकर वेदोक्त विधि से विवाह किया जाय, वह प्राजापत्य है। पद्मावती आदि के स्वयंवर में यही हुआ भी है कि पहले वर-कन्या की परस्पर प्रसन्नता होकर विवाह हुए हैं। इसीलिये इसको चार प्रशस्त विवाहों में रखा है कि जो आर्यों को करना चाहिये।

विवाह प्रसग् में एक पुरुष को एक ही स्त्री के साथ विवाह करना चाहिये। यह वार्त्ता ‘पुत्र-पौत्रों के साथ आनन्द करते हुए दोनों स्त्री-पुरुष गृहाश्रम में धर्म का सेवन करें’।१ इस अथर्वमन्त्र में द्विवचन का ग्रहण होने से ही निश्चय होती है कि यही वेद का सिद्धान्त है। और यही सनातन धर्म है कि एक पुरुष एक ही सवर्ण स्त्री के साथ विवाह करे। ऐसा होने पर जो कोई कामी पुरुष अपने वर्ण की वा अन्य वर्णों की अनेक स्त्रियों के साथ विवाह करते हैं, वे वेदविरुद्ध हैं। और पूर्वकाल में किन्हीं प्रतिष्ठित पुरुषों ने भी ऐसा किया तो जानो वेदविरुद्ध किया। अर्थात् कई विवाह कर लेने से किसी की प्रतिष्ठा नहीं होती किन्तु प्रतिष्ठा के हेतु उन लोगों के अन्य श्रेष्ठ काम थे [यद्यपि असवर्ण वा अनेक स्त्रियों के साथ विवाह करना धर्मानुकूल वा प्रशंसा योग्य सुख का हेतु काम नहीं है, तथापि उससे भी अधिक निकृष्ट कर्म की अपेक्षा वह अच्छा है। अर्थात् अपने से उच्च वर्ण की कन्या से विवाह करना अत्यन्त बुरा है। इसलिये यदि असवर्णों के साथ विवाह किसी कारण करना ही पड़ता हो, वा अपने वर्ण की योग्य अनुकूल कन्या नहीं मिलती हो, तो अपने से नीचे वर्ण की कन्या से विवाह कर लेना चाहिये। इसका प्रयोजन यह है कि पुरुष का अंश उत्तम और स्त्री का कुछ निकृष्ट रहने से सन्तान ठीक धर्मात्मा वा विचारशील उत्पन्न होते हैं। जैसे अन्य पदार्थों के मेल से वस्तु बनते हैं, वहां भी यह नियम रहता है कि अमुक-अमुक इस-इस प्रकार का इतना-इतना पदार्थ मिलने से अमुक वस्तु ठीक बनेगा। इसी कारण वैसा ठीक मेल न मिलने से अनेक वस्तु बिगड़ जाते हैं। इस पर कुछ अधिक समाधान की आवश्यकता नहीं, जो कोई निश्चय करना चाहे वह प्रत्यक्ष अनुभव कर सकता है, अर्थात् एक ब्राह्मण से शूद्र की कन्या में उत्पन्न हुए और एक शूद्र से ब्राह्मणी में उत्पन्न हुए सन्तानों के गुण-कर्म-स्वभाव का कितना भेद पड़ता है ?] तो भी जो कामी लोग सामान्य प्रकार से अर्थात् निषिद्ध माता, भगिनी पक्ष की स्त्रियों के साथ भी व्यभिचार करते हैं, अथवा वेष्याओं का सेवन करते हैं, उनकी अपेक्षा अनेक विवाह करने वाले कामी लोग सुखी वा धर्मात्मा होते हैं। इस प्रकार कामी पुरुषों को भ्रूणहत्यादि महापातकों से रोकने के लिये यह उपाय वा किन्हीं का मत अच्छा है, कि जो अनेक स्त्रियों के साथ विवाह कर लेना चाहिये अर्थात् निषिद्ध स्त्रियों और वेष्याओं के साथ विवाह करने की अपेक्षा कामासक्त पुरुषों को अनेक विवाह करके निर्वाह करना अच्छा है। किन्तु एकस्त्रीव्रत वाले सनातन धर्मी की अपेक्षा से वे कामी उत्तम नहीं हैं। इसीलिये इस मनुस्मृति के तृतीयाध्याय में लिखा गया है कि जो कामासक्ति के साथ प्रवृत्त हैं, उनके लिये आगे कही गई अन्य वर्णों की स्त्रियों के साथ भी विवाह हो सकता है। इसमें दो पक्ष हैं कि अनेक स्त्रियों के साथ विवाह करने वाले को अपने वर्ण की अनेक स्त्रियां न हों वा किसी कारण न प्राप्त हो सकें तो अपने से नीचे वर्ण की अन्य स्त्रियों के साथ विवाह करना चाहिये। उनमें ब्राह्मण को क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र की कन्याओं के साथ विवाह कर लेना चाहिये, यह किन्हीं का मत है, और अन्य मनु आदि के मत में तो ब्राह्मण, क्षत्रियों को शूद्र की कन्या के साथ कदापि विवाह न करना चाहिये। यह अनेक धर्मात्माओं और मानवधर्मशास्त्र का मत है। यद्यपि नीति वालों के कहने वा मानने के अनुसार स्त्री सम्बन्धरूप विवाह के दो फल हैं। जैसे नीति में लिखा है कि ‘रति और पुत्र ये दो फल स्त्री के हैं।’१ परन्तु धर्मशास्त्रों के सिद्धान्त से सन्तानों की उत्पत्ति ही मुख्य फल है, किन्तु रतिमात्र चाहने वाले पुरुष धर्मात्मा नहीं हो सकते। जैसे कहा है कि ‘जो अर्थ- धनादि और काम भोग में आसक्त नहीं हैं, उनके लिये धर्म का उपदेश किया गया है’२ अर्थात् जो धनादि की प्राप्ति और कामभोग में आसक्त हैं, अर्थात् तृष्णारूप नदी में गोता खा रहे हैं, उनको धर्म का ज्ञान नहीं होता। इससे स्त्री का सम्बन्ध होने पर यदि पुत्रादि उत्पन्न हों, तो गृहाश्रम की सफलता है, अन्यथा निष्फल है। इसी कारण नीति में लिखा है कि- ‘सन्तति न हो तो मैथुन करना शोचनीय है।’३ इसी कारण विवाह करने से पूर्व ही मन में फल का अनुसन्धान करने के लिये और उत्तम सन्तान होने के लिये उपाय दिखाये गये हैं, कि यह कार्य इस प्रकार किया हुआ सफल और अच्छा फलदायक होता है वा होगा। और विरुद्ध अनिष्ट फल को हटाने के लिये कहा है, कि इस-इस प्रकार की कन्या के साथ विवाह न करना चाहिये।

सम्यक् विचार पूर्वक भी यदि विवाह किया जाय और किसी कारण फल-सिद्धि न हो, और दो में से एक मर जावे। उनमें यदि अक्षतयोनि स्त्री     विधवा हो जावे, अर्थात् पति मर जावे, अथवा विरक्त साधु, पतित, नपुंसक और असाध्यरोगी और सन्तानों के उत्पन्न कर सकने में अशक्त किसी प्रकार हो जावे, तो उस स्त्री को दूसरे पति से विवाह कर लेना चाहिये। और उसके पिता वा भाई को उचित है कि अन्य पुरुष के साथ सम्बन्ध कर दें। ‘वह कन्या यदि अक्षतयोनि हो तो पौनर्भव नामक पुरुष के साथ उसका पुनर्विवाह करना चाहिये।’१ इत्यादि वचनों से मनु जी ने भी अक्षतयोनि कन्या का पुनर्विवाह कहा है। तथा कात्यायन स्मृति में लिखा है कि ‘मन-वाणी से स्त्री को स्वीकार करके जो कोई पुरुष मर जावे और उस कन्या से संयोग न हुआ हो तो कन्या अन्य वर को तीन मास पीछे स्वीकार कर लेवे। तथा वेदी सम्बन्धी विवाह क्रिया हुए पश्चात् वर अन्य वर्ण का अर्थात् अपने से नीच वर्ण का निकले, वा पतित, नपुंसक, दुष्कर्मी, सगोत्र, शूद्र अथवा दीर्घरोगी निकले तो विवाह हो जाने पर भी उस कन्या का विवाह अन्य अच्छे निर्दोष वर के साथ कर देना चाहिये।’२ इत्यादि प्रमाणों से सिद्ध है कि अक्षतयोनि कन्या का पुनर्विवाह वैदिकरीति से ही कर देना चाहिये। युक्ति से भी यही सिद्ध होता है कि जैसे जगत् में जो कार्य जिस प्रयोजन वा फल के लिये आरम्भ किया जाता है, वह यदि किसी प्रकार निष्फल हो जावे, तो उसको फिर भी करते हैं। अर्थात् दो बार, तीन बार आदि भी करते हैं कि जब तक सफल न हो, तब तक बार-बार करते हैं। जैसे क्षुधा की निवृत्ति के लिये अन्न पकाते हैं। यदि वह पाक किसी प्रकार सफल न हो, तो फिर पाक किया जाता है। वैसे ही यहां भी एक वा दो विवाहों से फल सिद्ध न हो, तो बार-बार कई विवाह करने चाहियें। उन्हीं की नियोग संज्ञा पड़ती है, इसी प्रकार अनेक नियोग निकलते हैं। और विवाह का अवान्तर भेद पुनर्विवाह वा नियोग है। उनमें अक्षतयोनि कन्या का पति मर जाने वा किसी प्रकार सन्तानोत्पत्तिरूप फल सिद्ध करने में असमर्थ होने पर पुनर्विवाह करना चाहिये, और उसमें मरणपर्यन्त स्त्री-पुरुषों का सम्बन्ध बना रहता है, इस कारण उसको पुनर्विवाह कहते हैं। क्षतयोनि स्त्री का पुत्रादि के अभाव में सन्तानोत्पत्ति के लिये ही नियोग करना चाहिये। नियोग में उन-उन स्त्री-पुरुषों का सम्बन्ध दो पुत्रों की उत्पत्ति पर्यन्त ही रखा जाता है। ये पुनर्विवाह और नियोग दोनों आपद्धर्म हैं। इसी कारण सबको नियोग वा पुनर्विवाह करने नहीं पड़ते। यदि कोई स्त्री वा पुरुष सनातनधर्मरूप ब्रह्मचर्य के साथ नहीं रह सकता हो, और व्यभिचार के साथ गर्भपातादि पाप करावे वा अनेक विपत्तियां भोगे, उसकी अपेक्षा पुनर्विवाह वा नियोग द्वारा निर्वाह करना उत्तम है। जब विवाह का भी किन्हीं के मत में नियम वा बन्धन नहीं है। यदि कोई पुरुष वा स्त्री विवाह करना ना चाहे, वह विवाह न करके जन्म भर ब्रह्मचर्य आश्रम के साथ रहे, तो जिसकी स्त्री वा जिस स्त्री का पति मर जावे, उस पर शास्त्र का बन्धन क्यों कर हो सकता है ? कि जो उसको विवाह करना ही चाहिये। किन्तु इस अंश में दोनों स्त्री-पुरुष स्वतन्त्र हैं, चाहें विवाह करें वा न करें। जो लोग नियोग और पुनर्विवाह करते हैं, उनकी अपेक्षा से ब्रह्मचर्य में स्थित स्त्री-पुरुष अतिश्रेष्ठ हैं। परन्तु जन्मभर ब्रह्मचर्याश्रम के साथ रहना भी अति कठिन है। साधारण लोग ऐसा नहीं कर सकते, किन्तु कोई विचारशील ब्रह्मचर्य के तेज को सह सकता है। नियोग का विधान नवमाध्याय में किया है, उसका विशेष व्याख्यान भी वहीं देखना चाहिये। वहां नियोग विधान किये पश्चात् चार श्लोकों से नियोग का खण्डन भी किया है, उसकी समीक्षा नवमाध्याय के प्रक्षिप्त प्रसग् में होगी। सन्तान चाहने वाली क्षतयोनि स्त्री को नियोग करना चाहिये, यह मानवधर्मशास्त्र का सिद्धान्त है। नियोग का आपद्धर्म होना, मनु जी ने नवमाध्याय में स्वयमेव स्वीकार किया है, कि- ‘अब आगे स्त्रियों के आपत्काल का धर्म कहेंगे।’१ अनेक लोग इस विषय में विरुद्ध निश्चय किये हुये हैं कि कलियुग में नियोग नहीं करना चाहिये। और उन लोगों ने ऋषियों के नाम से बनाये धर्मशास्त्राभासों में लिखा भी है कि- ‘घोड़े का मारना-          अश्वमेध, गौ का मारना- गोमेध, संन्यास धारण करना, मांस के पिण्ड देना और नियोग करना, ये पांच कर्म कलियुग में न करे।’२ इत्यादि। यह वेद से विरुद्ध और प्रमादी लोगों का कहा वचन है, क्योंकि वेद जैसे पवित्र पुस्तक में घोड़े का मारना आदि घृणित काम कैसे हो सकता है ? अर्थात् वेद धर्म का मूल है और अहिंसा को सब लोग परम धर्म मानते हैं। यदि वेद में घोड़े आदि की हिंसा हो तो वह धर्म का मूल नहीं हो सकता। इस अंश के विशेष व्याख्यान करने का यहां अवसर नहीं। संन्यास और नियोग अवसर, योग्यता वा अधिकार के अनुसार करने चाहियें। इसीलिये वेद के नियोग प्रकरण में लिखा है कि- ‘वैसे संवत्सर वा समय आगे आवेंगे कि जब कुलस्त्री लोग अनुचित व्यभिचारादि कर्म करेंगी, उन समयों में नियोग करना चाहिये।’१ इससे नियोग वेदानुकूल सिद्ध होता है। तिससे गर्भहत्या न होने के लिये और आपत्काल में विधवाओं का निर्वाह करने के लिये योग्यतानुसार नियोग वा पुनर्विवाह अवश्य करने चाहियें। और जब भूख लगती है, तब उसकी निवृत्ति के लिये बुद्धिमान् को अवश्य यत्न करना चाहिये। जिन पुस्तकों में भूख न लगने पर भी भोजन देने का विधान है, वे धर्मशास्त्र नहीं। जब जैसे कर्म से मनुष्यों के दुःख की निवृत्ति और सुख की प्राप्ति होती है, उस काल में वैसे कर्मों के सेवन के लिये जिन पुस्तकों में आज्ञा लिखी है, वे ही वेदादि श्रेष्ठ पुस्तक धर्मशास्त्र कहाने योग्य हैं। और धर्मशास्त्र बनाने का यही प्रयोजन है कि जो उनमें कहे मार्ग से चलते हुए मनुष्य दुःखों को न प्राप्त हों और यथासमय सुखों को अवश्य प्राप्त हों। जिन पुस्तकों में समयानुसार दुःख से बचने का उपाय नहीं दिखाया गया, वे धर्मशास्त्र नहीं हैं। इस कारण नियोग के निषेध करने वालों का धर्मशास्त्र न होना ही प्रामाणिक न होने में हेतु है। इससे सामयिक दुःखों की निवृत्ति के लिये विचारशील धर्मात्मा लोगों को आपत्काल में नियोग से धर्म की रक्षा करनी चाहिये, यह मानवधर्मशास्त्र का सिद्धान्त वा आशय है।

द्वितीय अध्याय के प्रक्षिप्त श्लोकों की समीक्षा : पण्डित भीमसेन शर्मा

अब द्वितीयाध्याय के प्रक्षिप्त श्लोकों की समीक्षा करते हैं। इस अध्याय पर व्यूलरसाहब ने कहा है कि “यद्यपि द्वितीयाध्याय से लेकर षष्ठाध्यायपर्यन्त सब कथन मनुस्मृति में धर्मसूत्रों के अनुकूल है, तो भी बीच-बीच में कहीं-कहीं पीछे से श्लोक मिलाये जान पड़ते हैं। जैसे- इस द्वितीयाध्याय में प्रारम्भ से ११ ग्यारह श्लोक पीछे किन्हीं ने मिलाये हैं। अर्थात् १-५ तक श्लोक किसी भी धर्मशास्त्र के आशय से नहीं पाये जाते। छठा श्लोक पुनरुक्त है, क्योंकि बारहवें में यही बात कही गयी है, जो छठे में है। सातवें पद्य में आत्मश्लाघा दोष है, अर्थात् अपने आप ही प्रशंसा की है। आठवें और नववें श्लोक में फल दिखाया गया है तथा दशवें, ग्यारहवें श्लोकों में तर्क का निषेधरूप दोष आता है, क्योंकि धर्म विषय की तर्क से अवश्य परीक्षा करनी चाहिये। इस प्रकार आदि के ११ श्लोक प्रक्षिप्त हैं” इत्यादि।

इसका उत्तर यह है कि- यह नियम नहीं कर सकते कि जो एक किसी     धर्मशास्त्र में हो और सबमें न हो वह प्रक्षिप्त माना जावे। क्योंकि सब लोग बराबर नहीं कह सकते, अर्थात् आप ही पहले कही बात का प्रत्यक्षर अनुवाद कोई नहीं कर सकता। इस समय भी पुस्तक बनाने वाले विद्वान् लोग एक ही विषय में अपने-अपने अनुभव को लेकर न्यूनाधिक लिखते वा कहते हैं, उनमें किसी का कथन प्रक्षिप्त वा प्रामादिक नहीं समझा जा सकता। किन्तु जो प्रकरण-विरुद्ध,    धर्म-विरुद्ध वा पक्षपात-युक्त हो वही प्रक्षिप्त है। किन्तु किसी अन्य की अपेक्षा से अधिक कथन प्रक्षिप्त नहीं है।

और जो छठे, बारहवें श्लोकों में पुनरुक्त दोष दिया, सो भी ठीक नहीं, क्योंकि उन दोनों के अभिप्राय में भेद है। और कदाचित् पुनः वही बात कही भी गयी हो, तो अनुवादार्थ मानने में दोष नहीं। छठे श्लोक में धर्म का मूल दिखाया, और बारहवें में साक्षात् धर्म का स्वरूप कहा है। छठे में मनु जी का मत दिखाया गया है, और बारहवें में अपने मत का अनुवाद करके अपना मत पुष्ट करने के लिये अन्य लोगों की सम्मति “आहुः” क्रिया से दिखायी है। इस प्रकार मानने से पुनरुक्ति दोष नहीं आता। सातवां श्लोक किसी प्रकार आत्मश्लाघा दोष से युक्त हो, तो वहां भी भृगु ने मनु जी की प्रशंसा की है, इससे आत्मश्लाघा नहीं है। मनु जी की प्रशंसा करने से भृगु का अभिप्राय यह है कि- इस मानवधर्मशास्त्र के पढ़ने वाले लोग मन में गौरव रखके इस शास्त्र को पढ़ें, विचारें, किन्तु सहसा वेदविरुद्ध न मान लेवें। आठवें, नववें श्लोकों में जो फलश्रुति है, वह रुचि बढ़ाने के लिये अर्थवाद है। जिस वस्तु की गुण-कीर्त्तन रूप स्तुति की जाती है, उसमें मनुष्य श्रद्धा करते हैं, इसलिये अर्थवाद सफल ही है। दशवें, ग्यारहवें श्लोक तर्क के निषेध करने वाले नहीं हैं, किन्तु आशय यह है कि- वैसा तर्क न करना चाहिये, जिससे वेद और वेदानुकूल स्मृति का भी खण्डन हो जावे, अथवा बौद्ध वा सौगत आदि नाम वाले नास्तिक लोग जैसे तर्क का आश्रय लेते हैं, वैसा तर्क नहीं करना चाहिये। “जो तर्क के साथ अनुसन्धान करता है, वह ठीक धर्म को जान लेता है, अन्य नहीं” इस प्रकार कहे बारहवें अध्याय के वचन से सूचित होता है कि धर्म की रक्षा और धर्म को सिद्ध करने के लिये तर्क करना चाहिये, किन्तु धर्म वा धर्म को कहने वाले शास्त्र के खण्डन के लिये तर्क नहीं करना चाहिये, यह बात इस द्वितीयाध्याय के दसवें, ग्यारहवें श्लोकों से जतायी गयी है। जैसे दुष्ट को मारने के लिये शस्त्र चलाना चाहिये, किन्तु अपना शरीर काटने के लिये नहीं। जैसे शस्त्र से सब उचित-अनुचित का छेदन हो सकता है, वा जैसे गम्या-अगम्या दोनों में मैथुन हो सकता है, पर तो भी उचित का छेदन और गम्या में मैथुन करना चाहिये, यह शास्त्रों में विधान किया गया है। वैसे ही तर्क से उचित का ही खण्डन करना चाहिये तथा रक्षा करने के योग्य धर्म वा धर्मशास्त्र की रक्षा करनी चाहिए, यह तात्पर्य है।

और जो व्यूलरसाहब ने यह कहा कि तेरह आदि अनेक श्लोक द्वितीय अध्याय में अन्य धर्मशास्त्र से अधिक कहे हैं। इसका उत्तर भी मैंने दे दिया है। परन्तु किसी से यह अधिक है, इसलिये दूषित है यह नहीं हो सकता। तथा इस द्वितीयाध्याय में व्यूलरसाहब के कथनानुसार अठासीवें श्लोक से लेकर सौवें श्लोक पर्यन्त प्रकरण विरुद्ध होने से प्रक्षिप्त हैं, ऐसा प्रतीत होता है। इन (८८- १००) पद्यों के पूर्व और पर सन्ध्या का प्रकरण है। बीच में जितेन्द्रियता का प्रसग्, इन्द्रियों का परिगणन, अवान्तर भेद और उनको विषयों से रोकने का उपाय इत्यादि कथन विरुद्ध है, उस विषय का मानवधर्मसूत्रों में वर्णन नहीं था और था तो अति संक्षेप से था। उसी को भृगु ने पद्य बनाते समय विस्तार पूर्वक वर्णन किया, ऐसा अनुमान होता है। और सन्ध्या कर्म में जितेन्द्रियता का भी बड़ा उपयोग है, क्योंकि जिसके वश में अपने इन्द्रिय नहीं, वह सन्ध्या के फल का भागी कदापि नहीं हो सकता। इस कारण यद्यपि उक्त तेरह श्लोकों का आशय मनु जी का कहा नहीं था, तथापि उनमें धर्म से वा वेद से विरोध वा पक्षपात नहीं प्रतीत होता, जिससे वे श्लोक किसी प्रकार दूषित कहे जावें। इस प्रकार व्यूलरसाहब ने द्वितीयाध्याय पर जो कुछ कहा है उसका उत्तर जानो।

इस अध्याय में बावनवां श्लोक भी विचारणीय है, अर्थात् इस श्लोक में जो बात कही है कि “अवस्था चाहने वाला पूर्व को मुख कर, यश चाहने वाला दक्षिण को, लक्ष्मी चाहने वाला पश्चिम को और सत्य चाहने वाला उत्तर को मुख कर भोजन करे” यह असम्भव है। क्योंकि जब चार ही दिशाएं हैं, तो कभी किसी और कभी किसी दिशा में मुख कर के भोजन करना ही पड़ेगा। तो प्रत्येक मनुष्य सब दिशाओं में मुख कर के भोजन कर सकते हैं, यदि वैसा फल होना सम्भव हो तो, सभी मनुष्य चारों फल के भागी होवें, पर यह बात प्रत्यक्ष से भी विरुद्ध है, अर्थात् प्रत्यक्ष में सब मनुष्यों में वैसे फल नहीं दीखते अर्थात् प्रायः पश्चिम को मुख कर भोजन करने वाले सैकड़ों दरिद्री दीख पड़ते हैं। यदि कहो कि यज्ञोपवीत होते समय प्रथम मांगी हुई भिक्षा के भोजन में ब्रह्मचारी को यह फल होता है, ऐसा मानने पर भी वही दोष है। अर्थात् ब्रह्मचारी भी किसी दिशा को मुख कर स्वयमेव भोजन करेगा, तो किसी न किसी प्रकार फल सबको होना चाहिये, सो भी ठीक सिद्ध नहीं हो सकता, क्योंकि ब्रह्मचारी वा अन्य मनुष्य वैसे फलभागी नहीं मिलते, किन्तु अल्पायु और दरिद्रादि विपरीत तो दीख पड़ते हैं। इससे अनुमान होता है कि यह श्लोक प्रक्षिप्त है।

इस द्वितीयाध्याय का छासठवां श्लोक भी विचारणीय है। उसमें लिखा है कि कन्याओं के जातकर्मादि संस्कार बिना मन्त्र पढ़े करने चाहियें। इस पर शटा होती है कि ऐसा क्यों करें ? यदि शरीर के संस्कार में मन्त्रपाठ भी हेतु है, तो शरीर का संस्कार वा शुद्धि होने के लिये सब क्रिया ज्यों की त्यों करें, यह कथन विरुद्ध पड़ता है। क्योंकि शुद्धि के लिये उपाय करना कहा जावे और शुद्धि के हेतु मन्त्र पढ़ने का निषेध किया जाय, यह परस्पर विरुद्ध है। यदि कदाचित् मानते हों कि शूद्र के तुल्य स्त्रियां नीच हैं, इससे उनको वेद के सुनने का अधिकार नहीं, तो विवाह में भी उनका मन्त्रों से संस्कार नहीं करना चाहिये। क्योंकि वहां भी वे मन्त्र सुन लेंगी। विवाह में जब स्वयमेव स्त्रियों को मन्त्र बोलने की आज्ञा देते हैं। तो सुनने की क्या कथा है। इससे अनुमान होता है कि मन्त्र सुनने वा बोलने में स्त्रियों को दोष नहीं है। यह बात अनेक आर्ष पुस्तकों में अर्थात् कहीं-कहीं कर्मकाण्ड सम्बन्धी गृह्यसूत्रादि में भी मिलती है कि स्त्रियों के जातकर्मादि संस्कार मन्त्र बिना पढ़े करने चाहियें। इससे अनुमान होता है कि पूर्वकाल में भी किन्हीं-किन्हीं ऋषि लोगों की ऐसी सम्मति होगी। परन्तु उस सम्मति के एकदेशी होने से सब को ग्राह्य नहीं। अर्थात् सब ऋषियों का ऐसा मत नहीं है। और वेद सम्बन्धी सिद्धान्त भी यह नहीं हो सकता। यदि वेद पढ़ने वा सुनने का स्त्रियों को अधिकार न हो तो वेद में भी निषेध मिलना चाहिये, सो नहीं दीखता। यदि कोई कहे कि वेद में ‘स्त्रियों को वेद पढ़ाना चाहिये’ ऐसा विधान भी नहीं मिलता, तो उत्तर यह है कि जैसा विधान पुरुषों को मिलता है, वैसा ही स्त्रियों के लिये है। अर्थात् जैसा कहा गया कि वेद पढ़ना चाहिये तो जिन-जिन पुरुषों को पढ़ना आवेगा उन-उन की स्त्रियों को भी पढ़ाना अवश्य उपयोगी है। इस प्रसग् में प्रमाणों का संग्रह इसलिये नहीं किया कि यह लेख अधिक न बढ़ जावे। पीछे किसी अवसर पर कुछ प्रमाण भी लिख देंगे। जो-जो कर्म वेदादिशास्त्रों में ब्राह्मणादि वर्णों को कर्त्तव्य मानकर कहे गये हैं, वे उन-उन की स्त्रियों को भी वैसे ही कर्त्तव्य हैं। क्योंकि स्त्री पुरुष की अर्द्धाग्ी है। स्त्री-पुरुष दोनों मिल कर पूरे हैं, अकेले-अकेले    अधूरे हैं, तो जो काम पुरुष के लिये कहा गया, उसके अच्छे-बुरे फल में स्त्री स्वयमेव अधिकारिणी हो सकती है। इसलिये जहां पुरुष को अधिकार है, वहां उसकी स्त्री को भी अवश्य होना चाहिये। जब स्त्री के शरीर से बने हुए बालकों को अधिकार है, तो उन बालकों की उपादानकारण स्वरूप स्त्रियों को अधिकार न माना जावे, यह पक्षपात मात्र है। अथवा क्या यह बड़ा प्रमाद नहीं ? कदाचित् कहो कि जो स्त्रियां वेदादिशास्त्र पढ़ने में असमर्थ हैं, उनको अधिकार नहीं है, तो वैसे असमर्थ निर्बुद्धि पुरुषों को भी अधिकार नहीं है। स्त्रियों को अधिकार न देने से पुरुष भी विद्या-बुद्धि रहित बिगड़े संस्कारों वाले स्त्रियों के तुल्य नीच प्रकृति वाले उत्पन्न होते हैं। यही इस देश की दुर्दशा का बड़ा हेतु है। पहले जब विद्या और धर्मनीति की शिक्षादि को प्राप्त करा के स्त्रियों का शारीरिक वा आत्मिक संस्कार किया जाता है, तो उन शुद्ध संस्कार को प्राप्त हुई स्त्रियों में बालक भी शुद्ध, संस्कारी, शुभगुण सम्पन्न उत्पन्न होते हैं। यही बात सुश्रुत के शारीर स्थान में कही भी है कि ‘स्त्री-पुरुष जैसे भोजन, छादन, आचरण और चेष्टा के साथ गर्भाधान समय में संयोग करते हैं, उनका पुत्र भी वैसे आचरण वा चेष्टा वाला होता है।’१ मनुष्य के आहार, आचरण और चेष्टा विद्या, शिक्षा के अनुसार होते हैं। अर्थात् विद्वान् और मूर्ख दोनों एक से आचार-विचार नहीं रख सकते, किन्तु स्वयमेव चेष्टादि बदल जाते हैं। इसलिये स्त्रियों को वेदादि शास्त्र पढ़ाने और सुनाने चाहियें, जिससे मूल के संस्कार युक्त होने से वृक्षरूप पुत्रादि संस्कारी हों। ‘यह स्त्री प्राणियों के उत्पन्न होने के लिये खेत के तुल्य पृथिवी है।’१ अर्थात् जैसे पृथिवी में सब अन्नादि उत्पन्न होते हैं, वैसे स्त्रीरूप खेत में मनुष्यादि प्राणी उत्पन्न होते हैं, प्राणियों की उत्पत्ति का खेत स्त्री है, यह आशय ऊपर कहे मनु जी के वाक्य से निकलता है। पुरुष के शरीर में जितना रस, रुधिर आदि धातुओं का समूह है, वह सब बाल्यावस्था में प्रथम माता के शरीर से आया है, वह मातारूप स्त्री यदि किसी प्रकार नीच ठहराई जावे, तो बालक के उत्तम होने में क्या हेतु है ? इस प्रकार पुरुष के तुल्य स्त्रियों का भी पठन-पाठन में अधिकार सिद्ध होने पर छासठवां श्लोक प्रक्षिप्त प्रतीत होता है। तथा आगे कहे सरसठवें श्लोक के साथ विरोध भी है। अर्थात् सरसठवें श्लोक में मनु जी ने स्त्रियों के सब कर्म वैदिक कहे हैं। इसमें विशेष होगा सो वहां यथावसर कहेंगे। इस प्रकार इस द्वितीयाध्याय में दो ही श्लोक प्रक्षिप्त ठहरते हैं, तो शेष २४७ श्लोक ठीक समझने चाहियें। अब यहां लिखना समाप्त करते हैं।

गर्भाधानादि संस्कारों का विचार : पण्डित भीमसेन शर्मा

गर्भाधानादि संस्कारों का विचार

अब द्वितीयाध्याय की समीक्षा की जाती है। द्वितीयाध्याय के प्रारम्भ से लेकर षष्ठाध्याय पर्यन्त गर्भाधानादि वेदोक्त तथा वेदमूलक षोडश संस्कारों का वर्णन है। संस्कार सोलह ही हैं न्यूनाधिक नहीं, इस पर व्यासस्मृति में लिखा है कि-

“गर्भाधान, पुंसवन, सीमन्तोन्नयन, जातकर्म, नामकरण, निष्क्रमण, अन्नप्राशन, मुण्डन, कर्णवेध, यज्ञोपवीत, वेदारम्भ, केशान्त, समावर्त्तन, विवाह, विवाहाग्नि का ग्रहण-[चतुर्थी कर्म वा इसी को गृहाश्रम-संस्कार भी कह सकते हैं।] और त्रेताग्निसंग्रह [इसी का नाम वानप्रस्थ संस्कार भी कह सकते हैं।]” ये सोलह संस्कार शास्त्रकारों ने माने हैं।

इनमें से केशान्त संस्कार अनुमान से एकदेशी प्रतीत होता है, और दशकर्मपद्धति बनाने वाले ने भी केशान्त संस्कार नहीं माना। तथा श्री स्वामी दयानन्द सरस्वती जी ने भी अपनी संस्कारविधि में केशान्त संस्कार नहीं लिया। दाढ़ी मूंछ वा बगलों के बनाने का आरम्भ जिस पहले दिन हो उसको केशान्त संस्कार कहते हैं। यदि व्यासस्मृति के “केशान्तः स्नानम्” पदों में विसर्ग को अशुद्ध मानें और यह अर्थ मानें कि जिसमें सब केश मुड़ा दिये जावें, ऐसा स्नान- समावर्त्तन, तो संस्कार सोलह नहीं हो सकते, किन्तु १५ ही रहते हैं, जो कि इष्ट नहीं हैं। तथा मनुस्मृति में केशान्त संस्कार माना है कि- “ब्राह्मण का सोलह वर्ष पर केशान्त हो।” तथा व्याससंहिता की अपेक्षा स्वामी जी ने संन्यास और अन्त्येष्टि दो संस्कार अधिक लिये हैं, इस कारण उनकी संस्कारविधि में सत्रह संस्कार हो जाते हैं। उनमें किसी को किसी के अन्तर्गत करके वा अन्य किसी प्रकार समाधान करना होगा। अर्थात् संस्कार सोलह ही हैं, यह तो सर्वतन्त्र सिद्धान्त से सिद्ध है, इसमें किसी का परस्पर विरोध नहीं है। यद्यपि दशकर्मपद्धति पुस्तक बनाने वाले पण्डितों ने दश ही कर्म कहे हैं, तो भी उन्होंने संस्कारों की सोलह संख्या का खण्डन नहीं किया, किन्तु उपनयन, वेदारम्भ और समावर्त्तनरूप तीन संस्कारों को लौकिक चाल के अनुसार एक ही कर्म माना है, इस कारण दस कहने से बारह तो आ जाते हैं। समय के बिगड़ जाने से वानप्रस्थ और संन्यासधारण तथा अन्त्येष्टिकर्म की प्रवृत्ति नहीं रही, ऐसा मानकर दशकर्मपद्धति में उक्त तीनों संस्कार नहीं रखे। इसलिये उसमें यही न्यूनता है। क्योंकि जिस शुभकर्म की प्रवृत्ति न रही हो वा न्यून हो गयी हो, उसकी विशेष प्रवृत्ति करनी चाहिये। इस प्रकार संस्कार सोलह ही मानने चाहियें, यह सिद्धान्त है।

व्याससंहिता में पढ़े त्रेताग्नि संग्रह शब्द से वानप्रस्थ संस्कार का ग्रहण हो जायेगा। और उसमें संन्यास आश्रम भी आ सकता है, क्योंकि घर से निकल कर विरक्त होना दोनों में तुल्य है। इस प्रकार अन्त्येष्टि नामक एक संस्कार व्याससंहिता से अधिक बचता है, जिसको श्री स्वामी दयानन्दसरस्वती जी ने माना है। उसको संस्कार बुद्धि से मानने में “गर्भाधान से श्मशान पर्यन्त जिसके संस्कार वेद से कहे गये हैं” यह मनुस्मृति का वचन ही प्रमाण है। इस कारण अन्त्येष्टि को संस्कार मानना निर्मूल नहीं है।

इन सोलह संस्कारों में कुछ प्रधान और कुछ गौण हैं। मुख्य संस्कारों का विशेष कर वर्णन है। और गौणों का संक्षेप में। इस प्रकार इस मनुस्मृति के द्वितीयाध्याय के दस श्लोकों में गर्भाधानादि मुण्डन पर्यन्त संस्कारों का वर्णन है। और द्वितीयाध्याय के दो सौ चौदह श्लोकों में केवल यज्ञोपवीत और वेदारम्भ संस्कारों का वर्णन है। अतः इन दो सौ चौदह श्लोकों में से एक पैंसठवें श्लोक में केशान्त और ६६-६७ में स्त्री के संस्कार विषय में सामान्य कथन है। इस कारण संस्कारों में ये ही दोनों सबसे मुख्य हैं। क्योंकि इन्हीं दोनों संस्कारों के होने से ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य द्विज बनते और कहाते हैं। प्राणिमात्र के जगत् में जितने इष्टसिद्धि के प्रयोजन हैं, उन सबमें सुख की प्राप्ति और दुःख के त्याग की इच्छा ही मुख्य प्रयोजन है। इन दोनों की सिद्धि में सर्वोपरि प्रधान साधन विद्या के अभ्यास से अन्तःकरण की शुद्धि करना है। और वह विद्या का अभ्यास ब्रह्मचर्य आश्रम के नियमों का यथावत् सेवन करने पूर्वक और गुरु की सेवा-शुश्रूषा पूर्वक आश्रम की समाप्ति पर्यन्त निरन्तर किया हुआ सफल होता है। और वह पुरुष (जिसने पूर्ण विद्याभ्यास कर लिया है) संसार और परमार्थ के सुख भोगने का पात्र बनता है। इस प्रकार सुख का मूल होने से सब आश्रमों में ब्रह्मचर्य आश्रम प्रधान है। और ब्रह्मचर्य आश्रम के आरम्भसूचक होने से दोनों संस्कारों (यज्ञोपवीत-वेदारम्भ) की प्रधानता है। संस्कार दो प्रकार के हैं- एक- शरीर सम्बन्धी, और द्वितीय- आत्मसम्बन्धी वा अन्तःकरण सम्बन्धी। उनमें यद्यपि अपनी-अपनी अपेक्षा से कहीं-कहीं दोनों प्रधान हैं, तो भी सर्वोत्तम सुख का हेतु होने से आत्मसम्बन्धी संस्कार सर्वोपरि उत्तम है। कारण यह है कि सुख-दुःख का आधार अन्तःकरण है, और दुःख का मूल कारण अज्ञान है, और अन्तःकरण में विद्यारूप छोंक लग जाने से अज्ञान निवृत्त हो जाता है, तभी दुःखों से भी मनुष्य बच सकता है। इस प्रकार आत्मिक संस्कार की सर्वोपरि उत्तमता मानकर द्वितीयाध्याय में साधनों सहित यज्ञोपवीत और वेदारम्भ संस्कारों का मुख्यकर वर्णन है। इस मानवधर्मशास्त्र के द्वितीयाध्याय में ब्रह्मचर्याश्रम का यथार्थ वर्णन है, सो आगे आवेगा, इस कारण इस विषय में यहां कुछ भी विशेष कथनीय नहीं।

‘सृष्टि के आदि राजपुरूष मनु का शूद्रादि वर्णों के ब्राह्मण वर्ण में वर्णोन्नति के लिए गुणवर्धन का प्रशंसनीय विधान’–मनमोहन कुमार आर्य

maharshi manu

ओ३म्

सृष्टि के आदि राजपुरूष मनु का शूद्रादि वर्णों के ब्राह्मण वर्ण में

वर्णोन्नति के लिए गुणवर्धन का प्रशंसनीय विधान

 


हमारे अनेक क्षत्रिय, वैश्य व शूद्र वर्ण के बन्धु प्रायः कहा करते हैं कि महाराज मनु ने ब्राह्मणेतर वर्णों के साथ अन्याय किया है। उनका यह आरोप समाज में प्रचलित जन्म पर आधारित जाति व्यवस्था के कारण होता है। आरोपकर्ता बन्धुओं के इस आरोप के पीछे की पीड़ा तो समझ में आती है परन्तु जैसे किसी आरोप में पुलिस कई बार असली आरोपी के स्थान पर अन्य निर्दोष व्यक्तियों को पकड़ लेती है, ऐसा ही हमारे आरोपकर्ता बन्धुओं का महाराज मनु पर आरोप है। मनु कौन थे? इसके उत्तर में हम यह बताना चाहते हैं कि सृष्टि के आरम्भ में अमैथुनी सृष्टि में ब्रह्माजी व अग्नि, वायु, आदित्य व अंगिरा आदि ऋषि उत्पन्न हुए थे। ब्रह्माजी की पहली पीढ़ी में स्वायम्भुव मनु उत्पन्न हुए। उन्होंने अपने समय में राज्य व्यवस्था को सर्वप्रथम प्रचलित किया और इसके लिए वैदिक मान्यताओं को केन्द्र में रखते हुए देश के संविधान मनुस्मृति की रचना व प्रणयन किया। ब्रह्माजी की उत्पत्ति आज से 1,96,08,53,114 वर्ष पूर्व हुई थी। इससे अनुमान लगाया जा सकता है कि इतने वर्ष पूर्व प्रणीत मनुस्मृति का मूल स्वरूप क्या सुरक्षित रहा है? मनुस्मृति में प्रक्षेपकों ने नाना प्रकार के विकार, परिवर्तन व संशोधन आदि समय-समय पर किये हैं जिस कारण आज प्राप्त होने मनुस्मृति वह प्राचीन मनुस्मृति नहीं है जो कि महाराज मनु ने सृष्टि के आरम्भ में रची थी। हम समान्य साहित्य के सन्दर्भ में यह जानते हैं कि कई बार संशोधन अच्छा व उपयोगी होता है और कई बार गलत भी। मनुस्मृति के बारे में महर्षि दयानन्द और अनेक वैदिक विद्वानों का यह सुनिश्चित मत है कि प्रक्षेपकों ने अपने स्वार्थ की पूर्ति के लिए इसमें वेदों व महाराज मनु की मूल भावना के विपरीत परिवर्तन व प्रक्षेप किये हैं। यह अच्छी बात रही कि प्रक्षेपकों ने प्रक्षेप करते समय अपने पाठ तो इसमें जोड़े और बढ़ाये परन्तु मूल पाठों को इसमें से हटाया नहीं। इस कारण आज जो मनु-स्मृति प्राप्त होती है, उसमें महाराज मनु के मूल श्लोक भी सुरक्षित व विद्यमान हैं। ऐसे ही मनु के एक श्लोक को प्रस्तुत कर हम यह दिखाना चाहते हैं कि मनु ने ब्राह्मणेतर अन्य तीन वर्णों क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र को भी ब्राह्मण वर्ण का बनने का अवसर सुलभ कराया था और वैदिक काल में अनेक लोग अन्य-अन्य वर्णों से ब्राह्मण भी बने थे। इस सन्दर्भ में हम अपने समय के एक सिद्ध योगी, धर्मात्मा, ईश्वर का साक्षात्कार किए हुए तथा वेदों एवं वैदिक साहित्य के शीर्षस्थ विद्वान महर्षि दयानन्द (1825-1883) के वचनों को प्रस्तुत करते हैं।

 

महर्षि दयानन्द ने अपनी कालजयी कृति सत्यार्थ प्रकाश के चैथे समुल्लास में स्वयं प्रश्न उपस्थित किया है कि क्या जिसके माता-पिता ब्राह्मण हों, वह ब्राह्मणी-ब्राह्मण होता है? और क्या जिसके माता-पिता अन्य वर्णस्थ हों   उनका सन्तान कभी ब्राह्मण हो सकता है? महर्षि दयानन्द का कहना व मानना है कि ब्राह्मण माता-पिता की सन्तान वेदों व वैदिक साहित्य में ब्राह्मण वर्ण के लिए प्रतिपादित गुण-कर्म-स्वभाव के अनुकूल दीक्षित व योग्य होने पर ब्राह्मण-ब्राह्मणी हो सकते हैं और यदि उनके गुण-कर्म व स्वभाव ब्राह्मण वर्ण के अनुकूल नहीं हैं तो नहीं भी हो सकते। अन्य वर्णस्थ माता-पिता की सन्तानों के ब्राह्मण होने न होने के प्रश्न पर वह लिखते हैं – ‘हां बहुत से (अन्यवर्णस्थ ब्राह्मण) हो गये, होते हैं, और होंगे भी। जैसे छान्दोग्य उपनिषद् में जाबाल़ ऋषि अज्ञातकुल (संदर्भप्रमाणः सा (जाबाला) हैनमु वाच नाहमेतद् वेद तत यद्गोत्रस्त्वमसि बह्वहं चरन्ती परिचारिणी यौवने त्वामलभे। …… होवाच (आचार्यः) नैतदब्राह्मणो विवक्तुमर्हति। छान्दोग्योपनिषद 4/4/2-5), महाभारत में विश्वामित्र क्षत्रियवर्ण (प्रमाण सन्दर्भःकथं प्राप्तं महाराज क्षत्रियेण महात्मना। विश्वामित्रेण धर्मात्मन् ब्राह्मणत्वं नरर्षभ।। महा. अनु. 3/1,2) और मातंग ऋषि चाण्डाल कुल से (संदर्भप्रमाणःस्थाने मतंगो ब्राह्मण्यमालभद् भरतर्षभ। चण्डालयोनौ जातो हि कथं ब्राह्मण्यमवाप्तवान्।। महाभारत अनु. 3/19) ब्राह्मण हो गये थे। अब भी जो उत्तम विद्या स्वभाववाला है, वही ब्राह्मण के योग्य और मूर्ख शूद्र के योग्य होता है। और वैसा ही आगे भी होगा।

 

इसके बाद महर्षि दयानन्द ने प्रश्न किया है कि भला जो रज-वीर्य से शरीर हुआ है, वह बदल कर दूसरे वर्ण के योग्य कैसे हो सकता है? इसका वह स्वयं उत्तर देते हैं कि रजवीर्य के योग से ब्राह्मण शरीर नहीं होता। इसके बाद वह महाराज मनु की मनुस्मृति से क्षत्रिय, वैश्य व शूद्र को ब्राह्मण बनाने की योग्यता का उल्लेख करते हुए मनुस्मृति के श्लोक संख्या 2/28 को प्रस्तुत कर उसका हिन्दी अनुवाद करते हैं जो पाठकों के लिए उद्धृत करते हैं। श्लोक है – स्वाध्यायेन जनैर्होमैस्त्रैविद्येनेज्यया सुतैः। महायज्ञैश्च यज्ञैश्च ब्राह्मीयं क्रियते तनुः।। इस श्लोक का अर्थ है – (स्वाध्यायेन) पढ़नेपढ़ाने (जपैः) विचार करनेकराने, (होमैः) नानाविध होम के अनुष्ठान, (त्रैविद्येन) सम्पूर्ण वेदों को शब्दअर्थसम्बन्धस्वरोच्चारण सहित पढ़नेपढाने, (इज्यया) पौर्णमासी इष्टि आदि के करने, पूर्वोक्त विधिपूर्वक (सुतैः) धर्म से सन्तानोत्पत्ति,  (महायज्ञैश्च) ब्रह्मयज्ञ, देवयज्ञ, पितृयज्ञ, वैश्वदेवयज्ञ और अतिथियज्ञ, (यज्ञैश्च) अग्निष्टोमादि यज्ञ, विद्वानों का संगसत्कार, सत्यभाषण, परोपकारादि सत्कर्म, और सम्पूर्ण शिल्पविद्यादि पढ़के दुष्टाचार छोड़ श्रेष्ठाचार में वत्र्तने से (इयम्) यह (तनुः) मानव शरीर (ब्राह्मी) ब्राह्मण का (क्रियते) किया जाता है। जो मनुष्य रज-वीर्य से उत्पन्न सन्तान को उसी वर्ण का अर्थात् ब्राह्मण-ब्राह्मणी के पुत्र व पुत्री को ब्राह्मण व ब्राह्मणी मानते हैं, उनसे पूछते हैं कि क्या इस श्लोक को तुम नहीं मानते? उत्तर- मानते हैं।, फिर क्यों रज-वीर्य के योग से वर्णव्यवस्था मानते हो? मैं अकेला नहीं मानता, किन्तु बहुत से लोग परम्परा से ऐसा ही मानते हैं। महर्षि फिर स्वयं से प्रश्न करते हैं कि क्या तुम परम्परा का भी खण्डन करोगे? इसका उत्तर देते हुए वह लिखते हैं कि नहीं, परन्तु तुम्हारी उलटी समझ को नहीं मान के खण्डन भी करते हैं। प्रश्न- हमारी उलटी और तुम्हारी सूधी समझ है, इसमें क्या प्रमाण है? उत्तर- यही प्रमाण है कि जो तुम पांच-सात पीढि़यों के वर्तमान को सनातन व्यवहार मानते हो, और हम वेद तथा सृष्टि के आरम्भ से आज-पर्यन्त की परम्परा (को परम्परा) मानते हैं। देखो, जिसका पिता श्रेष्ठ उसका पुत्र दुष्ट, और जिसका पुत्र श्रेष्ठ उसका पिता दुष्ट, तथा कहीं दोनों श्रेष्ठ वा दुष्ट देखने में आते हैं। इसलिए तुम लोग भ्रम में पड़े हो। इसके आगे वह लिखते हैं कि देखो, मनु महाराज (मनुस्मृति 4/178) ने क्या कहा है- येनास्य पितरो याता येन याताः पितामहाः। तेन या यात् सतां मार्गं तेन गच्छन्न रिष्यते।। अर्थात् जिस मार्ग से इसके पिता-पितामह चले हों, उसी मार्ग में सन्तान भी चलें। परन्तु सताम्= जो सत्पुरूष पितापितामह हों उन्हीं के मार्ग में चलें और जो पितापितामह दुष्ट हों, तो उनके मार्ग में कभी चलें। क्योंकि उत्तम धर्मात्मा पुरूषों के मार्ग में चलने से दुःख कभी नहीं होता।

 

महर्षि दयानन्द महाभारत काल के बाद भारत ही नहीं वरन् विश्व के वेद, वैदिक साहित्य एवं संस्कृत के महान विद्वान हुए हैं। उनके द्वारा मनुस्मृति के आधार पर यह सिद्ध किया गया है कि वर्ण गुण, कर्म व स्वभाव के आधार पर होते हैं, जन्म के आधार पर नहीं। विद्याध्ययन एवं चारित्रिक गुणों में वृद्धि कर वर्ण में उन्नति की जा सकती है और अपनी इच्छा के अनुसार वर्णों के गुण-कर्म व स्वभाव को धारण कर वर्ण परिवर्तन अर्थात् मनोवांछित वर्ण को ग्रहण व धारण किया जा सकता है। इन विधानों के प्रकाश में मनु जी को समाज व मनुष्यों में असमानता, ऊंच-नीच, विषमता या छुआ-छूत फैलाने का दोषी नहीं माना जा सकता। इसका दोष मनुस्मृति में प्रक्षेप करने वाले अज्ञात विद्वानों का है जिन्होंने अपने वर्ग के स्वार्थ के लिए मनृस्मृति में प्रक्षेपों को किया। उनका यह कार्य एक निन्दनीय कर्म है। महर्षि दयानन्द को इस बात का श्रेय प्राप्त है कि उन्होंने मनु पर लगने वाले मिथ्या आरोपों से उन्हें मुक्त किया। यहां यह भी उल्लेख करना है कि आर्य समाज द्वारा देश भर में लगभग 500 गुरूकुलों में वेद और वेद-व्याकरण की शिक्षा बिना जाति व वर्ण का अन्तर किये समान रूप से दी जाती है। जो व्यक्ति स्वयं या अपनी सन्तानों को ब्राह्मण बनाना चाहते हैं, वह वहां प्रवेश लेकर इसका लाभ उठा सकते हैं। आर्य समाज ने विगत 130 वर्षों में सहस्रों अब्राह्मणों को गुण-कर्म-स्वभाव के अनुसार ब्राह्मण ही नहीं अपितु वेद-भाष्यकार तक बनाया है। उन जितनी व जैसी योग्यता देश के वर्तमान शीर्षस्थ विद्वान संस्कृतज्ञ ब्राह्मणों में भी नहीं है। मनुस्मृति में सेे मिलावट दूर करने के उद्देश्य से प्रक्षेप निकाल कर विशुद्ध मनुस्मृति प्रकाशित करने का महनीय कार्य भी महर्षि दयानन्द के अनुयायियों द्वारा किया गया है जिसके लिए दिल्ली स्थित आर्ष साहित्य प्रचार ट्रस्ट, नयाबांस, खारी बावली, दिल्ली-6, स्थापक प्रकाशक महात्मा दीपचन्द आर्य, लेखक, अनुवादक सम्पादक पं. राजवीर शास्त्री एवं प्रो. सुरेन्द्र कुमार तथा वर्तमान प्रकाशक श्री धर्मपाल आर्य विशेष रूप से बधाई के पात्र हैं। हमारा निवेदन है कि यदि किसी को मनु महाराज से कोई शिकायत है तो उसे सार्वजनिक करने से पहले वह इस ग्रन्थ का गम्भीरता से अध्ययन अवश्य करे अन्यथा उसकी आलोचना निराधार व प्रमाण विरूद्ध होने से असत्य व अज्ञानी व्यक्ति की खीज के समान होगी।

 

वर्तमान समय परिवर्तनकारी युग है जिसमें सभी धार्मिक व सामाजिक कुप्रथाओं व अन्धविश्वास आदि को समाप्त व नष्ट होना ही होगा। अब समय आ गया है कि विज्ञान की भांति सभी धार्मिक व सामाजिक विषयों में एक मत हुआ जाये जिससे सामाजिक, धार्मिक कटुता व विषमता समाप्त होकर समाज, देश व विश्व में चिरस्थाई सुख-शान्ति स्थापित हो। हम ईश्वर से भी प्रार्थना करते हैं कि वह सामाजिक व धार्मिक भेदभाव समाप्त करने व सत्य व ज्ञान-विज्ञान पर आधारित एक सत्य मत की स्थापना में समाज के शीर्ष लोगों को प्रेरित करे।

 

मनमोहन कुमार आर्य

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